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Feb 16, 2010

तमाशे को मीडिया ने फिर से जिंदा किया

क्या शाहरूख खान और बाल ठाकरे हमारी सांसे हैं जिनके बिना जीया नहीं जा सकता। आपका जवाब न हो सकता है लेकिन इस पूरे हफ्ते जो कवरेज दिखी,उसने आभास तो कुछ ऐसा ही दिया।

 

अब इस बात पर यकीन नहीं होता जो जतलाती है कि टीवी के लिए एयरटाइम कोकेन की तरह है,यानी कि बेशकीमती। प्रिंट के पास जगह की कमी है और लोगों के पास टिक कर पढ़ने की। तो फिर सवाल यह है कि अगर वाकई ऐसा है तो इतनी सस्ती चीजें क्यों और कैसे दिखाई जाने लगी हैं।

 

यह पूरा हफ्ता ठाकरे,शाहरूख खान और कुछ राहुल गांधी के नाम रहा। ठाकरे के पुराने पड़ चुके तमाशे को मीडिया ने पुरानी-बासी रोटी को बार-बार गरम घी में सेकने की तरह इस्तेमाल किया। पूरा मीडिया ही ठाकरेमय होता दिखा। लगा कि ठाकरे को एकाएक कवरेज का बादशाह बना दिया गया। दूसरी तरफ अपनी पीआर एजेंसी की बदौलत खुद को किंग मानने लगे शाहरूख खान ने बिन खर्चे की पब्लिसिटी पाई, नेताओं की तरह बड़ी-बड़ी बातें कीं, खुद को एक शहीद की तरह दिखाने की कोशिश की और मदर टेरेसा बने रहे। टीवी पर जितनी भी बहसें दिखीं, वो बहसों के साथ-साथ जरूरत न होने पर भी फिल्म की क्लिपिंग दिखाते चले गए। देखते ही देखते देश भर में उनकी नई फिल्म को लेकर ऐसी लहर चल निकली कि विवाद की नीयत पर ही शक होने लगा। टीवी ने इतनी बार सिनेमा हालों के बाहर तैनात पुलिस वाले दिखाए कि लगा कि देश के सामने एक बड़े संकट की घड़ी खड़ी पैदा हो गई है। माई नेम इज खान का इस से बढ़िया मुफ्त प्रचार और भला क्या होता। जनता भी इस इमोश्नल अत्याचार का हिस्सा बनी और उसने मंदी से मंद हुई अपने जेबों से पैसा निकाल फिल्म को सेहत बनाने का पूरा मौका दिया। फिल्म के नाम पर देश प्रेम के गाने गाए जाने लगे और ऐसा महसूस करवाया जाने लगा कि जैसे करगिल युद्ध ही छिड़ गया हो।  

 

दरअसल थ्री इडियट्स के बहाने इस बार प्रचार के फार्मूलों पर जो बहस छिड़ी है,वह काबिलेतारीफ है। प्रचार के इस खेल में कुछ उन टुटपुंजी लेखकों ने भी बहती गंगा में हाथ धोने की कोशिश की जिनका नाम उनके मोहल्ले के लोग भी शायद ठीक से नहीं जानते। इसी गड़बड़झाले में चेतन भगत का नाम उन लोगों को भी याद हो गया जिन्होंने पढ़ाई छोड़ने के बाद फिर कभी कोई किताब पढ़ी ही नहीं थी।

 

इस बहस से एक नतीजा साफ तौर से निकल कर सामने आया। प्रचार जरूरी है और प्रचार सिर्फ किताबी व्याकरण के हिसाब से करने से अब काम नहीं चलता। प्रचार के लिए विवाद, अपवाद, सवाल, जवाब, नाराजगी, खुशी, नकल, षड्यंत्र, हेराफेरी और इडियटपने के तरीके भी खुद उसे ही निजात करने होंगे जो प्रचार चाहता है। उसके बाद समय मीडिया को पटाने पर खर्च करना है और फिर घर बैठ कर कोरियोग्राफी देखनी है। सब नाचते हुए ही दिखाई देंगे।

 

कई साल पहले दक्षिण अफ्रीका में जब हीरे की बिक्री काफी कम होने लगी तो इस व्यापार से जुड़ी दुनिया की सबसे बड़ी खनन कंपनी ने एक विज्ञापन एजेंसी की सेवा ली। एजेंसी ने लोगों की सोच का गहनता से अध्ययन किया और आखिर में जिस अभियान को जन्म दिया, वो था हीरे हैं सदा के लिए। यह लोगों के लिए एक भावनात्मक संदेश साबित हुआ। कई लोग एकाएक यह मानने और महसूस करने लगे कि अगर हीरा है सदा के लिए तो प्रेम के इजहार का भला इससे सटीक प्रतीक और क्या हो सकता है। अचानक हीरे से प्यार की बारिश होते दिखने लगी,हीरे की बिक्री काफी बढ़ गई और हीरा एक बार फिर मान-प्रतिष्ठा का सूचक बन गया। जो अपनी प्रेयसी को हीरा नहीं दे सकता था, उसके लिए हीरा एक चुनौती बनकर खड़ा हो गया और जिसके हाथ में हीरे की अंगूठी थी, वह मुमताज की तरह इठला सकती थी।

 

लेकिन वो हीरा था। ये फिल्म है। पर दोनों का मर्म तकरीबन एक है जनता को भावुक करना और फिर उसकी भावुकता से अपनी जेब को धीरे से भर कर मुस्कुरा देना। फिर यह भी कहना कि (स्व)प्रेम और युद्ध में सब जायज होता है।

 

सोचने की बात है कि महंगाई से बुरी तरह जूझ रहे इस देश के लिए शाहरूख खान की फिल्म क्या इतनी जरूरी चीज है कि उसके लिए देश के तमाम बड़े चैनल अपनी घिसाई शुरू कर दें और जनता को तस्वीरें कुछ इस अंदाज में दिखाएं कि जैसे देश पर कोई बड़ी आफत ही आ गई हो। दूसरे ये कि अगर यह बहस सिर्फ क्षेत्रीय राजनीति के आस-पास की थी तो क्या फिल्म को पब्लिसिटी दिए बिना क्या इस पर कोई सार्थक बहस नहीं की जा सकती थी। वही टीवी जिसके पास सूखे और बाढ़ के लिए कवरेज करने का समय नहीं होता, जिसे पैसे का संकट सदाबहार रहता है, वह इस तरह की पब्लिसिटी क्या किसी साधुवाद के तहत कर रहा होगा। खुद ही सोचिए। वैसे समझ में ये नहीं आता कि जब देश पर असल में कोई संकट आया होगा तो न जाने कवरेज का क्या हाल होगा। अब यह देखने का भी मन है कि आने वाले कुछ दिनों में सितारे अपनी फिल्म के प्रमोशन के लिए कौन-से नए पैंतरे ईजाद करते हैं और कैसे नेता कुछ ऐसे बयान देने लगते हैं जिससे उनकी बासी पड़ रही दुकान में फिर से नया खून बहने लगे।

 

(यह लेख 16 फरवरी, 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)


Feb 6, 2010

मन


अभी भी मन करता है
घूम आऊं किताबों के मेले में
पलटूं एक-एक पन्ना
और घर आऊं
तो तैयार मिले मां के हाथों का खाना
पिता की चिंता

लौटूं
तो इत्मीनान से खोलूं
किताबों का थैला
महसूसूं खुशबू ताजे छपे पन्नों की
उनकी जिल्द पर जडूं इतिहास होता वर्तमान-
अपना नाम, तारीख, साल

फिर उन्हें दूं जिल्द का तकिया
उन्हें सहलाऊं
तकिए के पास रख
मजे से सो जाऊं

सुबह पहली नजर फिर जाए
इन्हीं मीठे बेरों पर
उन्हें बता दूं छुअन से
दफ्तर से आते ही
दिमागी सैर करूंगी इनके साथ

अभी भी मन करता है
न जाने क्या-क्या

Feb 3, 2010

मीडिया का चरित्र और उसकी मजबूरियां

अंग्रेजी के एक अखबार के पत्रकार ने जब अपने यहां छपने वाली किसी स्टोरी विशेष की विश्वसनीयता पर आपत्ति जताई तो उसे जवाब संपादक से नहीं,बल्कि अखबार के मार्केटिंग हेड की तरफ से मिला। वैसे वह जवाब कम और सख्त हिदायत ज्यादा थी। उक्त महोदय ने जुझारू पत्रकार से कहा कि अखबार एक धंधा है। हम सब यहां पर धंधा करने बैठे हैं, अगरबत्ती जलाने नहीं। इसलिए आप वही लिखिए और वही देखिए जो बिकने लायक हो। अगर आपकी स्टोरी बिकने लायक नहीं होगी तो आप भी अखबार के लायक नहीं होंगे। दूसरी बात, हम भी कई बार आपको स्टोरी बताएंगे। वो स्टोरीज आपको करनी होंगी और याद रखिए, हम नहीं चाहेंगें कि उन स्टोरीज पर काम करते हुए आप अपने दिमाग को भी इस्तेमाल में लाएं।

 

यह नए समय की पत्रकारिता की सच्ची तस्वीर है। टैगलाइन चाहे जो भी कहे, अंदरूनी सच यही है कि पत्रकारिता अब पूरा सच नहीं बल्कि काफी हद तक व्यापार है। अखबार व्यापार कर रहा हो, इससे शायद किसी को बड़ी आपत्ति न हो लेकिन अफसोस इस बात पर तो हो सकता हो जब अखबार सिर्फ व्यापार ही बन कर रह जाए। हाल के महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव के तुरंत बाद द हिंदू के ग्रामीण संपादक पी साईंनाथ की खोजपरक रिपोर्ट ने जब यह साबित किया कि कैसे उस समय महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण के पक्ष में सरकारी खर्च पर सकारात्मक स्टोरीज छापी गईं, तो राजनीतिक हलकों में इसे लेकर तनाव पैदा हुआ। कई खबरों में अशोक चव्हाण की तुलना सम्राट अशोक तक से की गई थी। यह खबरें उस समय पर छपीं थीं जब कि चुनाव की घोषणा हो चुकी थी और जाहिर तौर पर आचार संहिता लागू हो गई थी। इन खबरों को नियम के मुताबिक कहीं भी एडवरटोरियल के रूप में छापा नहीं गया (ताकि पाठक को इस बात का अहसास तक न हो कि उन्हें खबर के रूप में जो दिया जा रहा है, वह असल में एक प्रायोजित मामला है)। इस तरह जनता के जो पैसे सरकारी खजाने में जमा होते रहते हैं, उसका एक बड़ा हिस्सा इन दिनों राजनेता अपनी इमेज एंड लुक को चमकाने में खर्च करने लगे हैं, वो भी कुछ इस अंदाज में कि जेब जनता की ढीली हो औप मकसद वे साधें।

 

यह ठीक है कि बाजार में टिके रहने के लिए व्यापार तो करना ही होगा लेकिन व्यापार की भी कुछ शर्तें और मर्यादाएं होती हैं। ऐसा कतई नहीं है कि कोला से कीटनाशक उड़नछू हो गए हैं। वे आज भी उन्हीं बोतलों में मौजूद हैं। इनमें कीटनाशक होने की जो छोटी-मोटी खबरें कुछ साल पहले हुईं थीं, उनका सीधा फायदा यह हुआ कि कई गांवों में किसानों ने कोला को अपने खेतों पर एक कीटनाशक के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया (और इससे खूब लाभान्वित भी हुए) लेकिन मीडिया को क्या हुआ। इन कीटनाशकों को मीडिया ने क्यों हजम किया। क्या मीडिया इस बात  आश्वस्त हो गया कि कोला स्वास्थ्यवर्धक है, हानिकारक नहीं। यहां मीडिया की चुप्पी की वजह तर्क और प्रमाण पर आधारित परिणाम नहीं था, बल्कि सिक्कों की खनक और मुंह से टपकती लार थी। स्वाद और ठंडे के नाम पर कीटनाशक देने वाली ये कंपनियां चैनलों और अखबारों को बने रहने के लिए मोटी रकम देती हैं। कुछ दिनों तक हाथी के दांतों से गुस्सा दिखाने के बाद मीडिया सहमत हो गया कि कीटनाशकों के चक्कर में मोटे लालाओं और आकाओं से नाराजगी मोल लेने से जन हित सुखाय पत्रकारिता भले ही हो जाएगी लेकिन मीडिया मालिक सुखाय नहीं। वैसे भी यह दौर 1940 का नहीं है जब महात्मा गांधी सरीखे व्यक्तितत्व सोचते थे कि मीडिया और विज्ञापन एक-दूसरे से जितना दूर रहें, उतना ही भला है।  

 

तो फिर किया क्या जाए। पूरा सच कहीं भी नहीं है और पसरे हुए पूरे झूठ को ढूंढना मुश्किल नहीं। ऐसे में जरूरी हो जाती है मीडिया शिक्षा जो किसी को भी दी जा सकती है। सूचना क्रांति के इस विस्फोटक दौर में मीडिया के चरित्र और उसकी मजबूरियों को समझाने के लिए कुछ प्रयास किए ही जाने चाहिए। जब तक ऐसा हो पाता है, तब तक एक आम दर्शक और पाठक को इतना तो जान ही लेना चाहिए कि वह जो देखे-पढ़े, उस पर विश्वास करने से पहले अपनी समझ को भी इस्तेमाल में लाए। सीधा मतलब यह कि अगर वह खुद भी थोड़ा पत्रकार बन सके तो कोई हर्ज नहीं। यह किसने कहा कि हथियार की समझ तभी बढ़ानी चाहिए जब खुद के पास हथियार हो।
 

(यह लेख 3 फरवरी, 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)