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Jail Radio: Ambala

Apr 28, 2010

राष्ट्रीय संपत्ति को नुकसान पहुंचाते खाली दिमाग

दिल्ली के एक मॉल में लोग फिल्म देखने गए थे लेकिन वहां उनका साक्षात्कार परदे की फिल्म की बजाय असली जिंदगी की फिल्म से ही हो गया। फिल्म शुरू होने से कुछ मिनटों पहले किसी ने एक न्यूज चैनल को एक फैक्स भेजा और धमकी लिखी कि मॉल में कुछ ही मिनटों में धमाका होने वाला है।

बस, इतना करने की देर थी कि दिल्ली पुलिस अपने लाव-लश्कर के साथ वहां पहुंच गई। फिल्म की स्क्रीनिंग कुछ समय के लिए टाल दी गई और तलाशी शुरू हो गई। तलाशी कुत्ते भी आए थे जो सूंघ-सूंघ कर बेहाल होते गए। कुछ घंटों की इस कवायद में 15 लाख रूपए का नुकसान हुआ और डॉग स्कवॉड, बम स्कवॉड से लेकर पुलिस के तमाम विशेषज्ञों का जो समय खर्च हुआ, सो अलग।

इस घटना की मीडिया में कवरेज हुई और अगले दिन की अखबारों में फोटो सहित विवरण भी मिला लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती। पिछले दो दिनों में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में होक्स कॉल की यह छठी घटना है। जरा याद कीजए।। हर साल गर्मी कि शुरूआत होते ही खास तौर पर ऐसी होक्स कॉलों का सिलसिला जैसे चल निकलता है। ये फोन कौन करता है, क्यों करता है, इसके जरिए उसे हासिल क्या होता है। आम तौर पर ऐसी कॉलों के पीछे किसी आंतकी संगठन का हाथ शायद ही मिलता है। इन कॉलों को अक्सर वे युवा या छात्र करते हैं जिन्हें छुट्टी के दिन में करने को कुछ नहीं होता और जिन्हें रोमांच की तलाश होती है। ऐसे फोन करने के बाद या तो वे खुद मौके पर पहुंच कर कथित नजारे का मजा लेते हैं या फिर टीवी पर अपने कारनामे का लाइव तमाशा देखते हैं।

खैर, ऐसा करने वाले अक्सर पकड़े भी जाते हैं और मैं बात इसी मुद्दे की करना चाहती हूं। जो पकड़े जाते हैं, उनके साथ होता क्या है। क्या उन्हें कोई सजा होती है, क्या उन पर कोई मुकद्दमा चलता है या उन पर कोई बड़ा जुर्माना लगाया जाता है या फिर उनका कोई सार्वजनिक बहिष्कार होता है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इनमें से शायद कुछ भी ठोस होता ही नहीं। पुलिस की फटकार मिलती है, समाज अगले दिन ऐसा करने वालों को भुला देता है और आस-पास के युवाओं की नजर में ऐसा करने वाला एक हीरो की तरह उभर आता है। इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है कि हमारे यहां खाली समय के धनी लोगों की कोई कमी है ही नहीं। फिरोजपुर में इकनोमिक्स के हमारे एक टीचर होते थे- राठौर सर। वो अक्सर एक बात कहते थे। युवाओं से अगर कहा जाए कि घास उखाड़नी है तो शायद ऐसा करने में उनकी इज्जत में कमी आ जाए लेकिन अगर उन सबको मैदान में बिठा कर कोई लेक्चर सुनाने लगे तो वे अनमने भाव में शायद सारे मैदान की घास की उखाड़ डालें। यहां भी यही मामला है। हमारे यहां स्कूलों के खाली बच्चों की जमात दिखाई देती है। हां, ऐसे बच्चे भी हैं जो गर्मियों की छुट्टों में कुछ सीखने में समय लगाते हैं, रेस्त्रां में नौकरी करते हैं या किसी सामाजिक काम से जुड़ जाते हैं लेकिन शहरों में ऐसे बच्चों की तादाद काफी कम हैं। यहां के मध्यमवर्ग औऱ उच्च वर्ग के बाब लोग गर्मी की पूरी छुट्टियां थकान उतारने में ऐसे लगाते हैं मानो निराला की कविता की महिला की तरह इलाहाबाद के पथ पर पूरे साल पत्थर ही तोड़ते रहे हों। यह खाली दिमागों का शैतानी अस्तबल है। एसी रूम में बैठ कर ये अपनी बोरियत मिटाने और हीरो बनने के लिए सामाजिक-सरकारी-राष्ट्रीय पूंजियों से खेलने में इन्हें कोई परहेज नहीं होता। और विडंबना तो देखिए। ऐसी खुराफातें करने वाले जब पकड़े जाते हैं तो मीडिया में इनकी छुटकिया से खबर भी मुश्किल से आती है। ये हर बार सजा से तब तक बचते चले जाते हैं जब तक कि ये कोई ऐसा बड़ा कारनामा नहीं कर डालते जहां इनके पापा लोगों का रूतबा काम नहीं आता।

लगता यही है कि अब ऐसे तमाशे न हों इसके लिए मीडिया को होक्स कॉलों को करने वालों पर सख्ती से स्टोरीज करनी चाहिए और पुलिस और कानून को भी इन्हें किसी हाल में बख्शना नहीं चाहिए। क्योंकि अपनी बोरियत मिटाने के लिए जिस पैसे को ये उड़ा डालते हैं, वो टैक्स देने वालों के पसीने की उपज हैं। इनसे हमदर्दी करना किसी दरिंदगी से कम नहीं होगा। सोचिए कि अगर कभी ऐसा हो कि होक्स कॉल की वजह से पुलिस किसी एक कोने में सिमटी हो और असली वारदात कहीं और हो जाए तो। इसलिए अब ऐसे सिरफिरों को माफी देने का समय जा चुका है।

(यह लेख दैनिक भास्कर में 28 अप्रैल, 2010 को प्रकाशित हुआ)

Apr 25, 2010

एक ख्वाब की कब्रगाह

लो मर गई मरजानी
तब भी चैन नहीं
देह से झांक कर देख रही है तमाशा
कुनबुना रहे हैं पति
बेवजह छूट गया दफ्तर सोमवार के दिन ही
बच्चों की छटपटाहट
काश मरतीं कल शाम ही
नहीं करनी पड़ती तैयारी टेस्ट की

अब कौन लाए फूलों की माला इस तपती धूप में
नई चादर
कौन करे फोन
कि आओ मरजानी पड़ी है यहां
देख जाओ जाने से पहले कि
तुम्हें पता लगेगा नहीं
वो मरी कि मारी गई

मरजानी जानती है
नौकरानी को नहीं मिल रहा
हल्दी का पैकेट
पति को अपनी बनियान
बेटे को अपनी छिपाई सीडी
कैसे बताए मरजानी
अलमारी के किन कोनों में
सरकी पड़ी हैं चीजें

मरजानी तो अभी है
पुराने कफन में
कि मौत से पहले
गर तैयार कर लिया होता बाकी का सामान भी खुद ही
तो न होता किसी का सोमवार बेकार

कौन जाने
आसान नहीं होता मरजानी होना
चुपके से मरना
हौले-हौले मरना
दब-दब कर मरना
और मरना
ये मरना सोमवार को कहां हुआ
मरना तो कब से रोज होता रहा
मरजानी को खबर थी
घर की दीवारों को
रंगों को
चिटकनियों को
बर्तनों को
गीले तकियों को
बस उसे ही खबर नहीं थी
जिसका हो गया सोमवार बेकार

Apr 24, 2010

संवाद


नहीं सुनी बाहर की आवाज
अंदर शोर काफी था
इतना बड़ा संसार
हरे पेड़, सूखे सागर भी
बहुत सी झीलें, चुप्पी साधतीं नदियां
अंदर रौशनी की मेला भी, सुरंगों की गिनती कोई नहीं
अपने कई, अपनेपन से दूर भी
खिलखिलाहटें अंतहीन, नाजुक लकीरें भी
सपने भर-भर छलकते रहे
नहीं समाए अंजुरी में
इस शोर में बड़ी तेज भागी जिंदगी
अंदर का हड़प्पा-मोहनजोदाड़ो
चित्रकार-कलाकार
अंदर इतनी मछलियां, इतनी चिड़िया, इतने घोंसले
बताओ तुमसे बात कब करती
और क्यों?

Apr 13, 2010

आतंक के महिमामंडन से घबराया मंत्रालय

                    

 

जब से दंतेवाड़ा की घटना से सब सहमे हुए हैं,देश का सूचना और प्रसारण मंत्रालय अब आतंकियों के महिमामंडन को लेकर जाग उठा है। हाल ही में मंत्रालय ने देश के सभी टीवी चैनलों को निर्देश दिया कि वे आतंकवादियों और आतंकवादी संगठनों को जरूरत से ज्यादा कवरेज न दें और साथ ही उनसे जुड़ी घटनाओं को अतिरिक्त जिम्मेदारी और संवेदनशीलता के साथ कवर किया जाए। हालांकि यह निर्देश दंतेवाड़ा की घटना के पहले का है लेकिन इस घटना के बाद वह और भी ज्यादा प्रासंगिक हो उठा है।

 

इस निर्देश में आतंकियों के साथ इंटरव्यू दिए जाने पर भी कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा गया है कि ऐसा होने से आंतकियों को अपना राजनीतिक एजेंडा स्थापित करने में मदद मिल सकती है। इस निर्देश में कड़ाई की आवाज को मिलाने के लिए केबल टीवी अधिनियम 1995 के प्रोग्राम कोड का हवाला भी दिया गया है। इसके साथ ही मंत्रालय ने यह सफाई भी दी है कि यह सुझाव राष्ट्रीय हित में और गृह मंत्रालय की सलाह पर दिए गए हैं।

 

यहां दो मुद्दे दिखाई देते हैं। एक तो है आतंक के दैत्यीकरण का और दूसरे उसके अप्रत्यक्ष तौर पर महिमामंडन का। जैसे फिल्मों में पुलिस के देर से आने की छवि पक चुकी है, वैसे ही आतंकवादी के आधुनिक, युवा और तकनीक में पारंगत होने की छवि ने अपनी पक्की जगह बना ली है। आतंकी मीडिया के भरपूर दोहन की कहानी समझ चुका है और हैरानी की बात यह कि कई बार वह संवेदना भी बटोर ले जाता है। कसाब की सुरक्षा पर हो रहा खर्च या उसे फांसी पर लटकाया जाना मानव अधिकार की विभिन्न परिधियों में आकर बहस की वजह बन सकता है।

  

 

लेकिन यहां एक मुद्दा और भी है और वह है खुद पत्रकारों की सुरक्षा का। यह सच किसी से छिपा नहीं है कि दुनियाभर में पत्रकारों को आतंकवाद की एक बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी है। अल्जीरिया,कोलंबिया,स्पेन से लेकर फिलीपींस तक में बहुत से पत्रकारों का अपहरण हुआ है,हत्याएं हुई हैं। वॉल स्ट्रीट जरनल के पत्रकार डेनियल पर्ल की हत्या ने खोजी पत्रकारिता से जुड़े जोखिम को जैसे उधेड़ कर ही रख दिया था। भारत में भी पत्रकार लगातार ऐसे जोखिमों से खेलते रहे हैं चाहे वो कश्मीर के मामले में हो या नक्सलवाद के मामले में। पत्रकारिता से जुड़े जोखिम से निपटने के लिए सरकारी स्तर पर कभी बहुत हंगामा होते नहीं देखा गया।  

 

खैर,बात हो रही थी सूचना और प्रसारण मंत्रालय की जारी हिदायत की। दरअसल पिछले दो-चार साल में मंत्रालय की तरफ से ऐसी हिदायतों को जारी करने का मौसम काफी जोर पकड़ चुका है। मुंबई हमले की लाइव कवरेज के दौरान जब दुनिया भर की नजरें हमारी कवरेज पर थीं, तब भी कवरेज के गैर-जिम्मेदाराना हो जाने की बातें उठी थीं। कहा गया कि टीवी पर अपराध लाइव प्रस्तुतिकरण की वजह से बचाव कार्य में बाधा तो आती ही है, साथ ही सुरक्षा पर सेंध लगाए जाने के आसार भी कई गुणा बढ़ जाते हैं। यह कहा गया कि मीडिया कई बार अपराध और आतंक को किंग साइज इमेज दे देता है जो सिविल सोसाइटी के लिए खतरनाक हो सकता है। यह ठीक वैसे ही है जैसे कि किसी बच्चे को तेज कंप्यूटर गेम खेलने की आदत पड़ जाए और फिर बड़े होने पर वो खुद भी सड़क पर कुछ वैसे ही उच्छृंखल अंदाज में अपनी गाड़ी को दौड़ाने लग जाए और डरे भी न।

 

लेकिन यहां कुछ बातें समझ में नहीं आतीं। भारत में सूचना और प्रसारण से संबंधी तमाम नीतिगत अधिकार सूचना और प्रसारण मंत्रालय के पास हैं और मंत्रालय के गठन से लेकर आज तक कभी भी मंत्रालय के आदेशों में न तो पूरी गंभीरता दिखाई दी और न ही कड़ाई। दूसरे, हिदायतें भी आधी-अधूरी ही दिखाई दीं और तीसरे, कभी भी इस बात का खुलासा ठीक से हुआ नहीं कि हिदायत के ठीक से लागू न होने पर मंत्रालय ने क्या एक्शन लिया।

 

यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आतंकवाद चाहे किसी भी किस्म का हो, खबर बनता ही है। लेकिन उस खबर का आकार क्या हो, इसे तय करने का अधिकार अब एडिटोरियल के हाथों से सरक कर अब अखबार की पूरी व्यवस्था के एख बड़े तंत्र के हाथों में पहुंच गया है।
 

इसके अलावा प्रेस की स्वतंत्रता की परिधि क्या हो, यह भी तय नहीं हो सका है। इसलिए लगता यही है कि समय हिदायतें देने या बंदिशें लगाने का नहीं है बल्कि एक खुले माहौल की जमीन को तैयार करने का है।

 

 

( यह लेख 11 अप्रैल, 2010 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)

Apr 3, 2010

वो बत्ती, वो रातें

बचपन में
बत्ती चले जाने में भी
गजब का सुख था
हम चारपाई पे बैठे तारे गिनते
एक कोने से उस कोने तक
जहां तक फैल जाती नजर
हर बार गिनती गड़बड़ा जाती
हर बार विशवास गहरा जाता
अगली बार होगी सही गिनती
बत्ती का न होना
सपनों के लहलहा उठने का समय होता
सपने उछल-मचल आते
बड़े होंगे तो जाने क्या-क्या न करेंगें
बत्ती के गुल होते ही
जुगनू बनाने लगते अपना घेरा
उनकी सरगम सुख भर देती
पापा कहते भर लो जुगनू हथेली में
अम्मा हंस के पूछती
कौन-सी पढ़ी नई कविता
पास से आती घास की खुशबू में
कभी पूस की रात का ख्याल आता
कभी गौरा का
तभी बत्ती आ जाती
उसका आना भी उत्सव बनता
अम्मा कहती
होती है जिंदगी भी ऐसी ही
कभी रौशन, कभी अंधेरी
सच में बत्ती का जाना
खुले आसमान में देता था जो संवाद
उसे वो रातें ही समझ सकती हैं
जब होती थी बत्ती गुल।