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LANGUAGE AND PRINCIPLES OF ONLINE NEWS WRITING

Oct 31, 2009

कौन-सा फॉलोअप, किसका फॉलोअप

11 साल पहले एक दिन खबर मिली कि नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास लगे एक टावर पर एक आदमी चढ़ गया है और उतरने का नाम ही नहीं ले रहा। बनारस से दिल्ली आए उसका कहना था कि वह तभी उतरेगा जब उसकी पत्नी मायके से वापिस आकर उसके साथ दोबारा रहने का वादा करेगी, वो भी दुनिया के सामने। उस पुरूष ने अंतर्जातीय विवाह किया था और लड़की के मां-बाप जबरदस्ती लड़की को अपने साथ ले गए थए जिसे यह युवक बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। उसके आस-पास के लोगों ने भी उसकी कोई मदद नहीं की, इसलिए वो दिल्ली चला आया और गाड़ी के स्टेशन आते ही सदमे के चलते सीधे पहुंचा टावर के ऊपर।

 

हम लोगों के लिए यह मजेदार खबर थी। पहले दिन एक-दो लोग कवर करने पहुंचे। एनडीटीवी(स्टार न्यूज) पर इस खबर को दिखाने का असर यह रहा कि अगले दिन अखबारवालों का हुजूम भी लग गया। सर्दियों के दिन थे।हम टावर के नीचे। टावर वाला ऊपर। कभी पूरा लेटमलेट,कभी अधलेट, कभी उठ कर नमाज अदा करता। जब खास मूड में होता तो हाथ हिलाता,हम सबके नाम पूछता। उस दिन शाम होते-होते उसने सबके लिए पर्चियां फेंकनी शुरू कर दीं। एनडीटीवी के नाम, इंडियन एक्सप्रेस के नाम, पंजाब केसरी के नाम। लिखा यह कि वह राष्ट्रपति से मिलने के बाद ही नीचे उतरेगा क्योंकि उसे किसी पर भरोसा नहीं है। उसे विश्वास था कि सिर्फ राष्ट्रपति ही अब उसे इस वियोग से मुक्ति दिला सकते हैं। खैर स्टोरी लायक चटपटा सामान हम लोगों को रोज नसीब होता रहा।

 

लेकिन एक दिन सुबह पहुंचे तो देखा टावर वाला न्यूजमेकर गायब। मालूम हुआ कि एक रात रेलवे पुलिस के जवान उसे उतार ले गए। उसके पास से डाई फ्रूट्स के दो झोले भी मिले(वह रोज यही खाता था)। उस दिन स्टोरी ये बनी कि उस टावर के पास पुलिसकर्मी तैनात कर दिए गए हैं ताकि कोई उस पर चढ़ न सके। वाह!

 

आज 11 साल बाद भी कई बार लोग इस घटना का जिक्र करते हैं। वे जानना चाहते हैं कि वहां से निकल कर वह पागलखाने पहुंचा या अपनी पत्नी के पास। जवाब किसी के पास नहीं है।  

 

यहां से अब जरा एक गंभीर मुद्दे पर आइए। मुद्दा है फॉलो अप का। मीडिया, खास तौर से इलेक्टॉनिक मीडिया खबर तो दिखाता है लेकिन उसके निष्कर्ष या कुछ सालों में उसमें आए बदलाव को दिखाने में अक्सर चूक जाता है। याद कीजिए प्रियदर्शिनी मट्टू। वो सुंदर कश्मीरी लड़की जिसे एक आईपीएस अधिकारी के बिगड़ैल लड़के संतोष ने बलात्कार के बाद बेदर्दी से मार डाला था। इस घटना की परिणति जनता नहीं जानती। संतोष अपने पिता के प्रभाव की वजह से आखिर में छूट गया या अब भी वो कैद है। मट्टू परिवार अब कहां है। वगैरह।

 

याद कीजिए हाल की घटना। 30 अगस्त 2008 की दोपहर जब उमा खुराना एक सरकारी स्कूल में रोज की तरह गणित पढ़ा रही थीं और टीवी पर खबर चली थी कि वे लड़कियां मुहैया करवाती हैं। इस खबर की पूरी तफ्तीश हुई नहीं, वो टीवी पर चल गई और पलों में भीड़ ने स्कूल को और फिर उमा को घेर लिया, बदसलूकी की। खैर, बाद में खबर काफी हद तक फर्जी साबित हुई। खुराना की नौकरी बहाल हो गई लेकिन आज वो किस हाल में, कहां हैं, इस एक रिपोर्टिंग ने उनकी और परिवार की सोच को कैसे बदला, कोई नहीं जानता। अगर आपको याद हो, उमा खुराना और आरूषि हत्या की घटनाओं की वजह से ही ब्रांडकास्टिंग कोड को लागू करने की जोरदार बहस छिड़ी थी। इसी तरह नीतिश कटारा मामले की मुख्य गवाह और उसकी प्रेमिका भारती यादव कहां है, मनु शर्मा मामले का अंत कहां हुआ, सत्येंद्र दुबे का परिवार किस हाल में है, बंगारू लक्ष्मण अब क्या करते हैं, सीताराम केसरी का परिवार अब कहां है, जनता नहीं जानती। लेकिन लोग जानना चाहते हैं। आलम यह है कि जिस गुड़िया( वही जिसका पति पाकिस्तान जेल से बरसों बाद लौटा तो गुड़िया दूसरी शादी कर चुकी थी)के लिए मीडिया ने चर्चा की चटपटी दुकानें सजाई थीं, उसकी मौत पर महज एक चैनल उसके घर पहुंचा था और आज तो कोई नहीं जानता कि गुड़िया का बच्चा अब किसके पास है।

 

 

तो मीडिया ने खबर के आने पर तस्वीरें तो दिखाईं लेकिन तस्वीर के बाद की तस्वीर दिखाना वो शायद भूल गया। भागते चोर की लंगोटी पकड़ने के चक्कर में सब भागमभाग में छूटता जाता है। दिमाग को तस्वीरें मुहैया कराना इलेक्ट्रानिक मीडिया का काम है लेकिन क्या कोई भी घटना महज चंद तस्वीरें ही है। क्या मीडिया के लिए हर घटना महज एक स्टोरी है और वह सिर्फ एक स्टोरी टेलर। क्या उसका काम कहानी बांचना ही है, परिणति दिखाना नहीं। मीडिया की शायद इसी चंचल, अगंभीर और विश्लेषण से इतर आदत ने उसकी छवि को मसखरे-सा बना डाला है।


(यह लेख 18 अक्तूबर को दैनिक हिंदुस्तान के लखनऊ संस्करण में प्रकाशित हुआ)

Oct 12, 2009

आहा जिंदगी

पहला अध्याय

नई फ्राक मिली
कचनार के फूलों से लदी डाली पर
गिलहरी-सी
ठुमक-घुमक उठी
जन्नत मुट्ठी में
जमीन आसमान पर

दूसरा अध्याय

दुपट्टा ओढ़ा
नजरें जैसे सारी उसी पर
सपनों के सीप भरे-भरे से
किसी सुनहरे रथ के इंतजार में
इंतजार की सड़क छोटी थी


तीसरा अध्याय

बैलगाड़ी आई
पहियों के नीचे
सपनों ने पलकें मूंदीं
अदरक-प्याज के छौंक में
बैलवाले को चीखें न सुनीं
ये सड़क बड़ी लंबी लगी

चौथा अध्याय

पलों का रेला है
सड़कें सांस हैं
सभी जुड़ीं, गुत्तमगुत्था
जिंदगी सड़कों की लंबाई मापने से नहीं चलती
चलती है जीने से
आह जिंदगी, वाह जिंदगी।


Oct 7, 2009

कैसे पैदा हुआ दहशत का माहौल

चुनावी माहौल की रस्साकशी के बीच हाल ही में मुंबई में कुछ ऐसा भी हुआ जिसने विचलित किया। ये तस्वीरें दहशत और सामाजिक विद्रूपता की थीं। ये तस्वीरें उस परिवार की पत्नी और तीन लड़कियों की हैं जिन्हें परिवार के मुखिया ने सात साल तक कमरे में बंधक बना कर रखा। इन  महिलाओं के लिए सूरज की रोशनी सपना था और भरपेट खाना भी। यह सब सात साल तक चला, वो भी एक ऐसे शहर में जिसे सपनों की माया नगरी कहा जाता है। एक ऐसा शह जहां हर साल गरीबी, दहशत, शोषण और प्यार के आस-पास घूमतीं 1000 से ज्यादा फिल्में बनाई जाती हैं जो कि दुनिया में सबसे ज्यादा हैं।

बहरहाल इन महिलाओं को कमरे की चारदीवारी में रखने वाला गोम्स अब पुलिस की गिरफ्त में है। उस पर मुकद्दमा भी चलेगा लेकिन कहानी यहां खत्म नहीं होती। यहां से कहानी शुरू होती है। यह कहानी डर, अपराध और सामाजिक अविश्वास के ताने-बाने को उधेड़ कर समझने के लिए जोर डालती है। गोम्स को डर था कि अगर उसकी पत्नी और बेटियां समाज की गलियों में निकलीं तो वे यकीनन बलात्कार की शिकार हो सकती हैं। हां, बहुत से लोग इसे महज मनोवैज्ञानिक समस्या कह कर इससे निजात पा सकते हैं और उनके लिए गोम्स की गिरफ्तारी कहानी के सुखद और त्रासद अंत की घोषणा हो सकती है लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता।

असल में समाज में सुरक्षा को लेकर विश्वास का टूटना, कानून के ढीलेपन, बलात्कार या छेड़खानी की शिकार युवतियों का तिरस्कार को भुगतना, समाज की नजरों का ढेढ़ापन ऐसा बहुत कुछ है जो किसी को भी गोम्स बना सकता है। इससे भी आगे हैं नपुसंक सामाजिक, प्रशासनिक और मीडियाई नीतियां और ढुलमुलापन। भारत में एक मिनट में करीब तीन युवतियां छेड़खानी या बलात्कार का सामना करती हैं। इनमें से ज्यादातर पुलिस और प्रशासन की कृपा से छूट जाते है। जो पकड़े जाते हैं, उनमें से 90 प्रतिशत गवाहों के न होने और केस में पीडित पक्ष के हिम्मत छोड़ देने से छूट जाते हैं। ऐसे में समाज पर विश्वास कौन,कैसे और क्यों करे।

जो पकड़े जाते हैं, जिन का जुर्म वाकई साबित हो जाता है, क्या मीडिया कभी भी यह दिखाता है कि बलात्कारी को अपने कुकर्म के लिए देखिए क्या पीड़ा उठानी पड़ी। क्या मीडिया कभीअपराधी को डराता है? नहीं, बल्कि मीडिया उसको डराता है जिस पर डर पहले से ही हावी है। मीडिया बलात्कार कवर करता है तो उसमें भी वो 'क्लास '  को ध्यान में रखता है। उच्च वर्ग के बलात्कारी की खबर मामूली गलती के आस-पास ही घूमती दिखती है जबकि निम्न वर्ग का बलात्कारी यौन पीड़ित के तौर पर देखा जाता है लेकिन कहीं भी अपराध को अपराध की तरह ट्रीट नहीं किया जाता।

क्या मीडिया यह नहीं जानता कि उसका काम समाज को यह संदेश भी देना है कि अपराध करेगें तो सजा भी भुगतेगें। दरअसल फिल्म और टीवी दोनों में ही खलनायक का अंत सिर्फ पल भर का होता है जबकि पूरी फिल्म उसके ऐशोआराम के आस-पास घूमती है। दर्शक को उसका यही मखमली पक्ष याद रह जाता है। वह पौने तीन घंटे तक फिल्म में देखता है कि खलनायक के पास नाम, पैसा, रूतबा-सब है। पिटाई चूंकि आखिरी 15 मिनट में सिमट जाती है और तमाम गोरखधंधे करने वाला बस एक गोली से मर कर चैन पा लेता है, इसलिए खलनायक की जिंदगी ज्यादा सुखमय और आसान दिखाई देती है। न्यूज में भी तकरीबन यही फार्मूला चलता है।

एक बात और। अपराध और आत्महत्या दोनों ही अचानक नहीं घटते। दोनों के साफ लक्षण होते हैं। कई बार यह लक्षण बचपन से दिखने लगते हैं। लेकिन चूंकि बेटा कपूत होकर भी सपूत की श्रेणी से चिपका कर रखना हमारी फितरत है, हम इन लक्षणों को महज शरारत का नाम देकर बचते फिरते हैं। सड़कों पर बेवजह हार्न बजाने वाले, रूआब झाड़ने वाले, घर पर पत्नियों को पीटने वाले, बिगड़े बेटों के लिए दिनोंदिन और आधुनिक साज उपलब्ध करवाने और परिवारों में महिला को निचले पायदान पर रखने वाले लक्षण अपराध की तरफ ही इशारा करते हैं। चूंकि यह कथित तौर पर छोटे अपराध हैं या यूं कहिए कि स्वीकार्य अपराध हैं, इस पर भौंहें नहीं तनतीं। दूसरे यह कि आज भी भारत में अपराध पर आडियंस की रीसर्च पर ज्यादा काम नहीं हुआ है। अमरीका में ऐसे प्रयास जरूर होते रहे हैं। अमरीका में 1950 में हुए एक शोध में यह कहा गया कि अमरीकी समाज में होने वाले अपराधों में से 70 प्रतिशत सिनेमा से उपजते हैं। इसी तरह ब्रिटेन में 1984 में पीयरसन ने दर्शक पर पड़ने वाले असर की विस्तृत विवेचना की।

दरअसल अपराध हर समाज में होते हैं और हर अपराध दूसरे अपराध से किसी न किसी रूप में अलहदा होता है। अपराध पर एक मिनट की स्टोरी कर उसे समेटना टीवी न्यूज मीडिया की मजबूरी है लेकिन आपराधिक होते समाज को परत-दर-परत छीलना क्या उसका काम नहीं है। समाज में गोम्स भी मौजूद हैं और गोम्स जैसों को गोम्स बनाने वाले भी। इसलिए खबर तो उन पर होनी चाहिए जो हर बार कानून से बच निकलते हैं और मोहल्ले दर मोहल्ले में किसी गोम्स को पैदा कर जाते हैं। 

अब बात निकली है तो दूर तक जानी ही चाहिए।


(यह लेख 6 अक्तूबर,2009 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)