Nov 13, 2009
सपने अभी मरे नहीं और कविता भी
Oct 31, 2009
कौन-सा फॉलोअप, किसका फॉलोअप
11 साल पहले एक दिन खबर मिली कि नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास लगे एक टावर पर एक आदमी चढ़ गया है और उतरने का नाम ही नहीं ले रहा। बनारस से दिल्ली आए उसका कहना था कि वह तभी उतरेगा जब उसकी पत्नी मायके से वापिस आकर उसके साथ दोबारा रहने का वादा करेगी, वो भी दुनिया के सामने। उस पुरूष ने अंतर्जातीय विवाह किया था और लड़की के मां-बाप जबरदस्ती लड़की को अपने साथ ले गए थए जिसे यह युवक बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। उसके आस-पास के लोगों ने भी उसकी कोई मदद नहीं की, इसलिए वो दिल्ली चला आया और गाड़ी के स्टेशन आते ही सदमे के चलते सीधे पहुंचा टावर के ऊपर।
हम लोगों के लिए यह मजेदार खबर थी। पहले दिन एक-दो लोग कवर करने पहुंचे। एनडीटीवी(स्टार न्यूज) पर इस खबर को दिखाने का असर यह रहा कि अगले दिन अखबारवालों का हुजूम भी लग गया। सर्दियों के दिन थे।हम टावर के नीचे। टावर वाला ऊपर। कभी पूरा लेटमलेट,कभी अधलेट, कभी उठ कर नमाज अदा करता। जब खास मूड में होता तो हाथ हिलाता,हम सबके नाम पूछता। उस दिन शाम होते-होते उसने सबके लिए पर्चियां फेंकनी शुरू कर दीं। एनडीटीवी के नाम, इंडियन एक्सप्रेस के नाम, पंजाब केसरी के नाम। लिखा यह कि वह राष्ट्रपति से मिलने के बाद ही नीचे उतरेगा क्योंकि उसे किसी पर भरोसा नहीं है। उसे विश्वास था कि सिर्फ राष्ट्रपति ही अब उसे इस वियोग से मुक्ति दिला सकते हैं। खैर स्टोरी लायक चटपटा सामान हम लोगों को रोज नसीब होता रहा।
लेकिन एक दिन सुबह पहुंचे तो देखा टावर वाला न्यूजमेकर गायब। मालूम हुआ कि एक रात रेलवे पुलिस के जवान उसे उतार ले गए। उसके पास से डाई फ्रूट्स के दो झोले भी मिले(वह रोज यही खाता था)। उस दिन स्टोरी ये बनी कि उस टावर के पास पुलिसकर्मी तैनात कर दिए गए हैं ताकि कोई उस पर चढ़ न सके। वाह!
आज 11 साल बाद भी कई बार लोग इस घटना का जिक्र करते हैं। वे जानना चाहते हैं कि वहां से निकल कर वह पागलखाने पहुंचा या अपनी पत्नी के पास। जवाब किसी के पास नहीं है।
यहां से अब जरा एक गंभीर मुद्दे पर आइए। मुद्दा है – फॉलो अप का। मीडिया, खास तौर से इलेक्टॉनिक मीडिया खबर तो दिखाता है लेकिन उसके निष्कर्ष या कुछ सालों में उसमें आए बदलाव को दिखाने में अक्सर चूक जाता है। याद कीजिए प्रियदर्शिनी मट्टू। वो सुंदर कश्मीरी लड़की जिसे एक आईपीएस अधिकारी के बिगड़ैल लड़के संतोष ने बलात्कार के बाद बेदर्दी से मार डाला था। इस घटना की परिणति जनता नहीं जानती। संतोष अपने पिता के प्रभाव की वजह से आखिर में छूट गया या अब भी वो कैद है। मट्टू परिवार अब कहां है। वगैरह।
याद कीजिए हाल की घटना। 30 अगस्त 2008 की दोपहर जब उमा खुराना एक सरकारी स्कूल में रोज की तरह गणित पढ़ा रही थीं और टीवी पर खबर चली थी कि वे लड़कियां मुहैया करवाती हैं। इस खबर की पूरी तफ्तीश हुई नहीं, वो टीवी पर चल गई और पलों में भीड़ ने स्कूल को और फिर उमा को घेर लिया, बदसलूकी की। खैर, बाद में खबर काफी हद तक फर्जी साबित हुई। खुराना की नौकरी बहाल हो गई लेकिन आज वो किस हाल में, कहां हैं, इस एक रिपोर्टिंग ने उनकी और परिवार की सोच को कैसे बदला, कोई नहीं जानता। अगर आपको याद हो, उमा खुराना और आरूषि हत्या की घटनाओं की वजह से ही ब्रांडकास्टिंग कोड को लागू करने की जोरदार बहस छिड़ी थी। इसी तरह नीतिश कटारा मामले की मुख्य गवाह और उसकी प्रेमिका भारती यादव कहां है, मनु शर्मा मामले का अंत कहां हुआ, सत्येंद्र दुबे का परिवार किस हाल में है, बंगारू लक्ष्मण अब क्या करते हैं, सीताराम केसरी का परिवार अब कहां है, जनता नहीं जानती। लेकिन लोग जानना चाहते हैं। आलम यह है कि जिस गुड़िया( वही जिसका पति पाकिस्तान जेल से बरसों बाद लौटा तो गुड़िया दूसरी शादी कर चुकी थी)के लिए मीडिया ने चर्चा की चटपटी दुकानें सजाई थीं, उसकी मौत पर महज एक चैनल उसके घर पहुंचा था और आज तो कोई नहीं जानता कि गुड़िया का बच्चा अब किसके पास है।
तो मीडिया ने खबर के आने पर तस्वीरें तो दिखाईं लेकिन तस्वीर के बाद की तस्वीर दिखाना वो शायद भूल गया। भागते चोर की लंगोटी पकड़ने के चक्कर में सब भागमभाग में छूटता जाता है। दिमाग को तस्वीरें मुहैया कराना इलेक्ट्रानिक मीडिया का काम है लेकिन क्या कोई भी घटना महज चंद तस्वीरें ही है। क्या मीडिया के लिए हर घटना महज एक स्टोरी है और वह सिर्फ एक स्टोरी टेलर। क्या उसका काम कहानी बांचना ही है, परिणति दिखाना नहीं। मीडिया की शायद इसी चंचल, अगंभीर और विश्लेषण से इतर आदत ने उसकी छवि को मसखरे-सा बना डाला है।
Oct 12, 2009
आहा जिंदगी
Oct 7, 2009
कैसे पैदा हुआ दहशत का माहौल
Sep 20, 2009
बढ़ रही है मीडिया की भूमिका
शशि थरूर की साइट में कांग्रेस के रंग भरे हैं। वे हाथ जोड़ कर कहते दिखते हैं कि वे पूरी शिद्दत के साथ तिरूवनंतपुरम की जनता के लिए काम करेंगे। जनता ने उन पर विश्वास भी किया कि ऐसा ही होगा और इसलिए उन्हें जीत मिली।
लेकिन दूसरी तस्वीर कुछ और कहती है। यह तस्वीर छेड़ती है,अट्टहास करती है औऱ छवि के दम को जोर से कम करती है। यहां झटका है। इंडियन एक्सप्रेस की खबर पाठक को फिर से राजनीति के खोखलेपन और आम आदमी के पैसे की उड़ती धज्जियों पर कड़वा कर डालती है।
सोचने की बात है कि रोज ट्विट करने वाले,बड़ी बातें लिखने वाले, बुद्धिमान और युवा थरूर पुराने राजनेताओं की तरह पुरानी सोच को पुख्ता करते मिल कैसे गए। इस पूरे घटनाक्रम ने युवा को यह सोचने के लिए झकझोरा है कि क्या युवाओं के राजनीति में आने से वाकई भ्रष्टाचार कम होगा?
लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि जो मोटा बिल उनके और एस एम कृष्णा के नाम बना है, उसका भुगतान वाकई करेगा कौन। जनता को इसे जानने का पूरा हक है और मीडिया को हक है कि वह भी जनता के पैसों की हिफाजत करे।
लेकिन जरा सोचिए, पैसों की इस शाही खर्चों के कितने मामलों में जनता सच के आखिरी सिरे तक पहुंच पाई है। जनता को अमूमन खबर का सिर्फ एक सिरा मिलता है। वह कुछ दिनों तक उसे याद करती है, फिर बहुत जल्दी भूल भी जाती है क्योंकि मीडिया की तरह जनता भी जल्दी में है। दूसरे, जनता भ्रष्टाचार को अपनी जिंदगी की सांसों को तरह स्वीकार कर चुकी है। लेकिन इसका एक असर यह भी हुआ है कि जनता में कडवाहट बेतहाशा बढ़ गई है।
हाल ही में एक कालेज में छात्रों से जब अपनी पसंदीदा हस्तियों पर एक मोनोग्राम तैयार करने को कहा गया तो सिवाय एक छात्र के, किसी ने भी राजनेता को नहीं चुना और जिसने चुना भी, उसने लालू यादव का चुनाव किया। इसमें भी व्यंग्य है, हास्य है, करूणा है और खीज है।
राजनेता और उनके साथ ही उनका ऐशों में पलने वाला परिवार यह भूल जाता है कि बहुत सी नजरें उन पर टिकी रहती हैं। वे समझते हैं, वे नजरें उनसे दूर हैं। वे मीडिया के सच्चे हिस्से से मिलने में कचराते हैं क्योंकि रंगा सियार अपना चेहरा शीशे में देखने से डरता है लेकिन जनता सब जानती है और उस खीज को झेलती है। कभी मौका आता है तो वो अपनी खीज को उतारने में जरा मौका नहीं चूकती।
हाल ही में बूटा सिंह, फिर वीरभद्र सिंह और अब एक छोटे टुकड़े के कथित भ्रष्टाचार में थरूर और कृष्णा के नाम के आने से एक बार फिर राजनीति के जर्रे-जर्रे पर कैमरे की नजर और कलम के पैनेपन के मौजूद होने की जरूरत बढ़ गई है। पत्रकार बिरादरी के लिए आने वाले समय में काफी काम है। एक ऐसा काम, जो जन हित में है। यह काम तभी पुख्ता तरीके से हो पाएगा जब पत्रकार ट्रक पर लिखे स्लोगन की तरह राजनेता से दो हाथ की दूरी रखते हुए अपने माइक्रोस्कोप को चौबीसों घंटे तैयार रखेगा। तो तैयार हो जाइए। बिगुल तो कब का बज चुका।
(यह लेख 11 सितंबर, 2009 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)
Sep 18, 2009
अश्क में भी हंसी है: वर्तिका नन्दा की कविताएं: 2012
किताब लिखी है।
वो जो पिछली गली में रहती है
उसने खोल ली है अब सूट सिलने की दुकान
और वो जो रोज बस में मिलती है
उसने जेएनयू में एमफिल में पा लिया है एडमिशन।
पिता हलवाई हैं और
उनकी आंखों में अब खिल आई है चमक।
बेटियां गढ़ती ही हैं।
पथरीली पगडंडियां
उन्हे भटकने कहां देंगीं!
पांव में किसी ब्रांड का जूता होगा
तभी तो मचाएंगीं हंगामा बेवजह।
बिना जूतों के चलने वाली ये लड़कियां
अपने फटे दुपट्टे कब सी लेती हैं
और कब पी लेती हैं
दर्द का जहर
खबर नहीं होती।
ये लड़कियां बड़ी आगे चली जाती हैं।
ये लड़कियां चाहे पीएम की हों
या पूरनचंद हलवाई की
ये खिलती ही तब हैं
जब जमाना इन्हे कूड़ेदान के पास फेंक आता है
ये शगुन है
कि आने वाली है गुड न्यूज।
Sep 4, 2009
चूल्हा-चौकी संभालने वाले हाथों में मीडिया
बहुत दिनों बाद उत्तर प्रदेश एक सुखद वजह से सुर्खियों में आया है। खबर है कि बुंदेलखंड की ग्रामीण महिलाओं की मेहनत से निकाली जा रही अखबार खबर लहरिया को यूनेस्को के किंग सेजोंग साक्षरता अवार्ड, 009 के लिए चुन लिया गया है। इस अखबार को बुंदेलखंड की पिछड़ी जाति की महिलाएं निकाल रही थीं। इस अखबार की खासियत है – महिलाओं के हाथों में मीडिया की कमान और साथ ही खबरों की स्थानीयता। इस अखबार में आस-पास के परिवेश के पानी, बिजली, सड़क से लेकर सामाजिक मुद्दे इस अखबार में छलकते दिखते हैं और साथ ही दिखती है – इन्हें लिखते हुए एक ईमानदारी और सरोकार।
दरअसल भारत भर में इस समय जनता के हाथों खुद अपने लिए अखबार चलाने की मुहिम सी ही चल पड़ी है। हाल ही में बुंदेलखंड के एक जिले ओरइया से छपने वाले अखबार मित्रा में इस बात पर सारगर्भित लेख प्रकाशित हुआ कि कैसे प्राथमिक स्कूलों मे दाखिला देते समय जातिगत भेदभाव पुख्ता तौर पर काम करते हैं। इसी तरह वाराणसी से पुरवाई, प्रतापगढ़ से भिंसार, सीतापुर से देहरिया और चित्रकूट से महिला डाकिया का नियमित तौर पर प्रकाशन हो रहा है।
इसका सीधा मतलब यह हुआ कि रसोई संभालने वालों ने अब कलम भी थाम ली है। यह भारत का महिला आधारित समाचारपत्र क्रांति की तरफ एक बड़ा कदम है। यहां यह सवाल स्वाभाविक तौर पर दिमाग में आ सकता है कि ग्रामीण महिलाओं ने सूचना और संचार के लिए सामुदायिक रेडियो या फिर ग्रामीण समाचार पत्र का माध्यम ही क्यों चुना। वजह साफ है। मुख्यधारा का मीडिया गांव को आज भी हास्य का विषय ही मानता है और फिर महिलाओं को जगह देना तो और भी दुरूह काम है।ऐसे में सामाजिक कार्यकर्ताओं की मदद से इन महिलाओं ने अपनी आवाज खुद बनने के लिए ऐसे माध्यम को चुना जिस पर न तो मुख्यधारा मीडिया की कोई गहरी दिलचस्पी रही और न ही पुरूषों को। यह तो काफी बाद में समझ में आया कि इन माध्यमों के लोकप्रियता की डगर चल निकलते ही इनमें गहरी रूचि लेने वाले भी गुड़ को देख कर चींटियों की तरह उमड़ने लगे।
अकेले सामुदायिक रेडियो की ही मिसाल लें तो आंध्रप्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, झारखंड और यहां तक कि अंडमान और निकोबार तक में ऐसी महिलाओं की मजबूत जमात खड़ी हो गई है जो विशुद्ध तौर पर पत्रकारिता कर रही हैं। इन महिलाओं के पास भले ही किसी मान्यता प्राप्त नामी संस्थान का पत्रकारिता का डिप्लोमा या डिग्री ने हो, लेकिन दक्षता और मेहनत के मामले में ये किसी से कम नहीं हैं। झारखंड के चला हो गांव में, रांची की पेछुवाली मन के स्वर, उत्तराखंड की हेवल वाणी, मंदाकिनी की आवाज, प्रदीप सामुदायिक रेडियो, कर्नाटक की नम्मा धवनि, केरल का रेडियो अलाकल, राजस्थान के किशोर वाणी समेत ऐसी मिसालों की कमी नहीं जहां जनता ने सामाजिक सरोकारों की डोर खुद अपने हाथों में थाम ली है।
यहां एक मजेदार घटना का उल्लेख करना जरूरी लगता है। बुंदेखंड के एक गांव आजादपुरा में पानी की जोरदार किल्लत रहती है। यहां एक ही कुंआ था जिसकी कि मरम्मत की जानी काफी जरूरी थी। यहां की महिलाएं स्थानीय अधिकारियों से कुछेक बार इसे ठीक कराने के लिए कहती रहीं लेकिन बात नहीं बनी। लेकिन जैसे ही इन महिलाओं ने कुंए की बदहाली और उसकी मरम्मत की जरूरत की बात अपने रेडियो स्टेशन के जरिए की, स्थानीय प्रशासन ने तुरंत नींद से जगते हुए चार दिनों के भीतर ही उनका कुंआ ठीक करवा दिया। इस एक घटना ने महिलाओं को रेडियो की ताकत का आभास तो करवाया ही, लेकिन साथ ही यह हिम्मत भी दी कि सही नीयत और तैयारी से अगर संचार का खुद इस्तेमाल किया जाए तो रोजमर्रा के बहुत-से मसले खुद ही हल किए जा सकते हैं। इस इलाके में सामुदायिक रेडियो के लिए 5 रिपोर्टर और दो संचालक हैं। इसके अलावा एक प्रबंध समिति भी है जिसका मुखिया सरपंच है। इसके अलावा इसमें किसानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की भरपूर भागदारी है।
बहरहाल खबर लहरिया की इस उपलब्धि को भारत में महिलाओं के जरिए सूचना क्रांति की एक बेहद बड़ी मुबारक खबर के रूप में देखा जाना चाहिए। एक ऐसे दौर में, जब कि भारत में पूंजी केंद्रित पेज तीनीय पत्रकारिता का जन्म हो चुका है और वह एक बिगड़े बच्चे में तब्दील होकर पत्रकारिता के अभिभावकीय रूप को अपनी डफली के मुताबिक नचा रहा है, ऐसे में स्थानीय मीडिया से उम्मीदें और भी बढ़ जाती हैं। वैसे भी स्थानीय मुद्दों के लिए मुख्यधारा के पास समय, संसाधनों, विज्ञापनों से लेकर प्रशिक्षण तक – न जाने किन-किन सुविधाओं की कमी हमेशा ही रही है। जहां रवि नहीं होता, वहां कवि भले ही पहुंच जाता हो लेकिन आज भी जिन गांवों के कुएं सूख गए हैं और जहां पहुंचने के लिए हेमामालिनी के गालों सरीखी सड़कें नहीं हैं, वहां मुख्यधारा मीडिया को पहुंचने में वैसी ही तकलीफ होती है जैसी किसी आईपीएस के बेटे को डीटीसी की बस में बैठने में। इसलिए बेहतर यही होगा कि गांववाले अपनी समस्याओं के निपटारे के लिए अपना माइक और अपनी कलम खुद ही थामें। मुख्यधारा के तलब लिए गांव का दर्शन नेताओं की ही तरह चुनावी मौसम में ही सही है। साल के बाकी पौने चार सालों का जिम्मा शायद स्थानीय ग्रामाण मीडिया खुद ही उठा सकता है।
तो इसका मतलब यह हुआ कि चूल्हा-चौकी संभालने वाली अब सही मायने में सशक्त हो चली हैं। लगता है, कहीं दूर से तालियों की आवाज सुनाई दे रही है।
(यह लेख दैनिक भास्कर में 18 अगस्त, 2009 को प्रकाशित हुआ)
Aug 30, 2009
MCRC Mass Communication Details
Suggested Readings for Students (A)
4. Principles & Ethics of Journalism ------------Dr. Jan R Hakemuldar, Dr. Fay AC
5. Media & Development -------------------------M R Dua & V S Gupta
6. Mass Communication & Development -------Dr. Baldev Raj Gupta
7. Mass Communication In India ---------------Keval J Kumar
8. What Do We Mean By Development ---------by Nora Quebral
Article in IDR, 1973, Pg-25
9. Modern Media in Social Development---Harish Khanna
10. The Changing conceptions of Development 0by S L Sharma,
Article in National Development, Vol. 1, 1980
11. Lectures on Mass Communication ------------S Ganesh
12. Indian Broad Casting -------------------------H R Luthra
13. Television Techniques -------------------------Hoyland Beltinger
14. Advertising Made Simple ---------------------Frank Jefkins
15. Ogilvy on Advertising -------------------------David Ogilvy
16. Advertising Management ---------------------Aaker, Myers & Batra
17. Management, Prentice Hall of India ---------Stephen P. Robbins & Mary Coulter,
18. The Indian Press – Profession to Industry --Anna Bhattacharyajee
19. Beyond Those Headlines:---M. V. Desai & Sewanti
00Insiders on the Indian Press ------
20. Economic Aspect of Indian Press ------------Ashok V. Desai
Suggested Readings for Students (B)
23. Communication-concepts & Process -----------------Joseph A Devito
24. Lectures on Mass Communication -------------------S Ganesh
25. The Process of Communication -----------------------David K Berlo
26. Communication Facts & Ideas in Business ----------L. Brown
27. Mass Communication & Development ---------------Dr. Baldev Raj Gupta
28. Communication Technology & Development -------I P Tiwari
29. Mass Communication in India ------------------------Keval J Kumar
30. Here’s the News ------------------------------------------Paul de Maesener
31. Cinema & Television -------------------------------------Hermabon & Shahani
32. Mass Communication Journalism in India ---------D S Mehta
33. Mass Media Today ---------------------------------------Subir Ghosh
34. The Communication Revolution ----------------------Narayana Menon
35. The Story of Mass Communication -------------------Gurmeet Singh
36. Mass Communication Theory -------------------------Denis McQuail
37. Mass Culture, Language & arts in India---Mahadev L Apte
38. You & Media: Mass Communication & Society---David Clark
39. Towards a Sociology of Mass Communication--Denis McQuail
40. The Myth of Mass Culture---Alan Swingewood
Suggested Readings for Students (C)
41. Betrayal of Indian Democracy: M B Chande
42. Om Heritage: Bhartiya Vidya Bhavan Publication
43. The Problems of Indian Economy: S K Misra & V K Puri
44. Modern Economics: Jack Harvey
45. The Indian Economy: Robert Lucas
46. Indian Economy under Reforms: Nagesh Kumar
47. Social Reforms: P V Rajeev
48. An Introduction to Sociology: Hen Browne
49. Communication: C.S. Rayadu
Suggested Readings for Students (D)
51. Dictionary of Modern English Usage 0000000--G Davison
52. Strengthen Your Writing 00000000000000-----Narayanaswami
53. Improve Your Word Power 0000000000000----R Birley
54. Plain English Guide 000000000000000000-----M Cutts
55. Paragraph Writing for All 00000000000000----G K Puri
56. Developing Writing Skills in English 00000000-S K M angal
56. Dictionary Confusible Words0000000000000-G Davidson
57. Foundations of Politics00000000000000000--Andrew Heywood
58. State & Politics in India000000000000000---Edited by Parth Chatterjee
Aug 25, 2009
Suggested Readings for Students (E)
59.
Surviving in the Newspaper Business: Jane Willis
60. Strategic Newspaper Management: Conard C Fink
61. Indian Broadcasting: H. R. Luthra
62. Social Research: S R Vajpayee
63. Doing Your Research Project: Judith Bell
64. Research Methodology Methods & Techniques: C R Kothari
65. Research Methodology in Social Sciences: Sandhu & Singh
66. Communication & Research for Management: V P Michael
67. Research in Mass Media: S R Sharma & Anil Chaturvedi
68. Research-How to Plan, Speak & Write About it: Clifford Hawkins
& Marco Sorgi
69. Cyberspace Aur Media: Sudhir Pachauri
70. Fundamentals of Information Technology: Deepak Bharihoke
71. Multimedia Systems: Agarwal & Tiwari
72. IT in the new millennium: V D Dudeja
73. IT: S L Sah
74. Electronic Media & the Internet: Y K D’souza
75. Many Voices One World: UNESCO
76. Facts of Life: A Communication Challenge UNICEF, India-1993
77. The Media & Modernity: John B Thompson, 1995
78. Mass Communication Perspective: Uma Narula
79. Globalisation: Albrowm & King E
80. Technology & Communication Behaviour: Belmont C A Wadsworth
Aug 10, 2009
MEDIA BOOKS - (Hindi)
Name of the Book
|
Author
|
Publisher
|
Year
|
टेलीविजन और क्राइम रिपोर्टिंग
|
वर्तिका नन्दा
|
राजकमल प्रकाशन
|
2011
|
मीडिया और जनसंवाद
|
वर्तिका नन्दा और उदय सहाय
|
सामयिक प्रकाशन
|
2009
|
कॉरपोरेट मीडिया, दलाल स्ट्रीट
|
दिलीप मंडल
|
राजकमल प्रकाशन
|
2011
|
पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा
|
आलोक मेहता
|
सामयिक प्रकाशन
|
2006
|
मीडिया की खबर
|
अरविंद मोहन
|
शिल्पायन
|
2008
|
टेलीविजन की कहानी
|
श्याम कश्यप और मुकेश कुमार
|
राजकमल प्रकाशन
|
2008
|
Aug 9, 2009
Media Books
Media Theory
Name of the book |
Author |
Publisher |
Year |
Understanding Media |
Marshall McLuhan |
Routledge |
2001 |
Mass Communication Theory |
Denis McQuail |
SAGE |
2001 |
Manufacturing Consent |
Herman and Chomsky |
Pantheon Books |
1988 |
The Global Media |
Herman and McChesney |
GDN |
1997 |
India's Newspaper Revolution |
Robin Jeffery |
Oxford University Press |
2000 |
Mass Communication in India |
Keval J Kumar |
Jaico |
2009 |
Here is the News |
Rangaswamy Parthasarathy |
Sterling Publishers |
1994 |
History of Indian Journalism |
J. Natrajan |
Publications Divisions, Ministry of I&B,
Government of India |
1997 |
The Press in India |
G N S Ragahvan |
Gyan books |
1994 |
Companion to Media Studies |
Angharod Valdivia |
Blackwell Publishers |
2004 |
Communication for Development |
Melkote & Steeves |
SAGE |
2001 |
The Indian Media Business |
Vanita Kohli |
SAGE |
2006 |
India's Communication Revolution |
Singhal and Rogers |
SAGE |
2001 |
Mass Communication and Journalism in India |
D.S. Mehta |
Allied |
1992 |
Whose News? The Media and Women |
Ammu Joseph & Kalpana Sharma |
SAGE |
1996 |
A Hand Book for Journalists |
M V Kamath |
Vikas |
2007 |
Broadcast
Media
Satellite Invasion in India |
S. C. Bhatt |
Gyan books |
1994 |
Broadcasting In India |
P C Chatterji, |
SAGE |
1991 |
Satellites Over South Asia: Broadcasting, Culture
and the Public Interest |
David Page, William Crawley |
SAGE |
2001 |
How to Watch TV News |
Neil Postman |
Penguin Books |
1992 |
Television in India: Changes and Challenges |
Gopal Saxena |
Vikas |
1996 |
Television Handbook |
Patricia Holland |
Routledge |
1997 |
News and Entertainment |
Daya Kishan Thussu |
SAGE |
2007 |
Advanced Journalism |
Adarsh Kumar Varma |
Har Anand Publications |
2000 |
This is All India Radio |
U L Baruah |
Publications Divisions, Ministry of I&B
Government of India |
1983 |
The Radio Handbook |
Carole Fleming |
Routledge |
2002 |
Radio Journalism |
Guy Starkey & Crisell |
SAGE |
2009 |
The Practical Media Dictionary |
Jeremy Orlebar |
Arnold |
2003 |
How to Read a Film: Motives, Media,
Multimedia |
James Monaco |
Oxford University Press |
2007 |
Online
Journalism
Online Journalism |
Jim Hall |
Pluto |
2001 |
Web Production |
Jason Whitmaker |
Routledge |
2001 |
Media
Ethics and Press Laws
The Press |
M Chalapati Rao |
National Book Trust |
1974 |
Law of the Press |
D D Basu |
Prentice Hall |
1986 |
Media
Management
Newspaper Management in India |
Gulab Kothari |
Rajasthan Patrika Limited |
2000 |
Media and Communication Management |
C S. Rayudu |
Himalaya |
2003 |
Marketing of Newspapers |
R Padmaja |
Kanishka |
2008 |
Strategic Management in the Media |
Lucy Kung |
SAGE |
2008 |
The Fundamentals of Marketing |
Edward Russell |
Ava Publishing |
2009 |
Photography
Complete Idiot’s Guide to Digital Photography |
Steve Greenburg |
Pearson |
1999 |
Films
A Dictionary of Film Terms: The Aesthetic Companion
to Film Art |
Frank Eugene Beaver |
Peter Lang |
2006 |
How to Read a Film: Motives, Media, Multimedia |
James Monaco |
Oxford University Press |
2007 |
The History of Cinema For Beginners |
Jarek Kupsc |
Orient Longman |
2006 |
The Cinematic Imagination: Indian Popular Films as
Social History |
Jyotika Virdi |
Permanent Black |
2007 |
Bollywood: Sociology Goes to the Movies |
Rajinder Kumar Dudrah |
SAGE |
2007 |
Our Films Their Films |
Satyajit Ray |
Orient Longman |
1976 |
Media
Education
Name of the book |
Author |
Publisher |
Year |
Exercises in media education |
Peter Gonsalves |
Don Bosco Communications, Mumbai |
1999 |
The Practical Media Dictionary |
Jeremy Orlebar |
Arnold |
2003 |
Media Literacy, A Reader |
Macedo, Daniel and Shirley Steinberg, |
Peter Lang, New York |
2007 |
में इन्हें भी पढ़ा जा सकता है
Name of the Book |
Author |
Publisher |
Year |
टेलीविजन और क्राइम रिपोर्टिंग |
वर्तिका नन्दा |
राजकमल प्रकाशन |
2011 |
मीडिया और जनसंवाद |
वर्तिका नन्दा और उदय सहाय |
सामयिक प्रकाशन |
2009 |
कॉरपोरेट मीडिया,
दलाल स्ट्रीट |
दिलीप मंडल |
राजकमल प्रकाशन |
2011 |
पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा |
आलोक मेहता |
सामयिक प्रकाशन |
2006 |
मीडिया की खबर |
अरविंद मोहन |
शिल्पायन |
2008 |
टेलीविजन की कहानी |
श्याम कश्यप और मुकेश कुमार |
राजकमल प्रकाशन |
2008 |