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LANGUAGE AND PRINCIPLES OF ONLINE NEWS WRITING

Jul 22, 2008

धर्म की दुकान - मीडिया का पकवान

धर्म की दुकान में बिकने वाले पकवान अब चरम पर हैं। धर्म सामाजिक और मानसिक सुखों के द्वार खोलने के अलावा अब उन सबके लिए एक आलीशान महल है जो व्यापार का ककहरा जानते हैं। इस सदी में धर्म सब तरफ दिखाई दे या न दे लेकिन धर्म के साए में चलने वाले चैनल अब चारों तरफ उछलकूद मचाते और शांति देने की कोशिश करते जरूर दिखाई देते हैं। हालत यह है कि धर्म की झंकार अब अंग्रेजी और कारोबारी चैनलों की चाल पर भारी पड़ने लगी है। टैम के ताजा आंकड़े कहते हैं कि उच्च आय वर्ग के 31 प्रतिशत और मध्यम आय वर्ग के 29 प्रतिशत लोग धार्मिक चैनल देखना पसंद करते हैं। यानी 60 प्रतिशत दर्शक आध्यात्मिक चैनलों को अपने करीब पाते हैं।आंकड़े यह भी कहते हैं कि पहले जहां धार्मिक चैनलों का मार्किट शेयर 0।2 प्रतिशत के करीब था, वह अब 0.9 प्रतिशत तक पहुंच चुका है। यहां यह गौरतलब है कि बिजनेस चैनलों का मार्केट शेयर अभी 0.5 प्रतिशत है जबकि अंग्रेजी चैनल अभी 0.9 प्रतिशत की अपनी हिस्सेदारी बनाए हुए हैं। अपनी बढ़ती सफलता के कारण आज यह चैनल विदेशोन्मुख भी हुए हैं। गाड टीवी अफ्रीका, एशिया, यूरोप और अमेरिका में फैला है जबकि ईटीसी की गुरूवाणी आज अमेरिका और इंग्लैंड में प्रसारित होती है। दरअसल धार्मिक चैनलों के सितारे बुलंद होने की कई वजहें हैं। एक बड़ी वजह तो न्यूज चैनलों की हांफती भागमभाग है जिससे दर्शक अब ज्यादा जुड़ाव महसूस नहीं करते। इसके अलावा टेलीविजन रिपोर्टिंग का दायरा लगातार फैलने की बजाय सोच के स्तर पर जिस तरह सीलन से घिरा है, उसने दर्शक को रिमोट को यहां-वहां भगाने के लिए उकसाया है। साथ ही मनोरंजन चैनलों में परोसा जाने वाला नाटकीय मनोरंजन अब बासी लगता है और मानसिक थकान को दुगुना करता है। ऐसे में धार्मिक चैनलों में बाबा लोगों की डुगडुगी राहत देती है। बाबा लोगों की भाषा आसान है, फ्रेंडली है और सीधे दर्शक को फायदा पहुंचाने की बात करती है- फायदा चाहे शारीरिक आराम का हो या फिर मानसिक शांति का। यहां योग, फेंगशुई, पर्व, यात्राएं, वास्तु, आर्ट आफ लिविंग का भरापूरा पैकेज है जहां दर्शक फिलहाल तो खुद को ठगा महसूस नहीं करता। आगे की राम जाने ! मजे की बात यह कि इन चैनलों के पास न तो कोई बहुत आधुनिक तकनीक है और न ही बड़े तकनीकी विशेषज्ञ। क्वालिटी की रामकथा भी अभी इन्हें बांचनी नहीं आई है। वैसे भी इनके दर्शक इन चैनलों को इन छोटी-मोटी तकनीकी कमियों के लिए बड़ी उदारता से माफ कर देते हैं। इन चैनलों को पर नजर पहुंचते ही दर्शकों में स्वाभाविक तौर पर बड़प्पन की भावना उग आती है। शायद इसलिए कि आम दर्शक अब भी यही सोचता है कि ये चैनल तिजोरी की राजनीति से परे हैं( यह कितना सच है, चैनल के तमाम ठकेदार जानते हैं)। लिहाजा इन चैनलों ने अपने जोरदार मेकओवर की कोई बड़ी कोशिशें की ही नहीं हैं। यह बात अलग है कि इन चैनलों में विज्ञापन देने वालों की कतार भी पिछले कुछ सालों में लंबी खिंची है। यहां रत्नों-पत्थरों से लेकर अगरबत्ती के तमाम विज्ञापन चैनल के शांति कबूतर बेचते दिखाई देते हैं। कोशिश यह भी रहती है कि अपनी चाल से चलते हुए दिन भर शांति के तमाम प्रयोजन कर दिए जाए। इन प्रयोजनों में जुटे संचालकों का काम करने का तरीका भी कबूतर जैसा ही है जिसे इस बात की परवाह नहीं कि न्यूज चैनल की बिल्ली किस तरफ भाग रही है। वह अपनी चाल पर आंखें मूंदे मंथर गति से सरक रहा है और सरकने का नतीजा देखिए। अपने छोटे-छोटे दफ्तरों में कछुए की चाल में सरकते-सरकते ही इन चैनलों ने न्यूज चैनलों की नाक में ऐसा दम कर दिया है कि तमाशा देखते बनता है। यहां यह बात भी गौर करने लायक है कि हाल के सालों में आध्यात्म ने ऐसा चोखा रंग पकड़ा है कि न्यूज चैनलों को अब मजबूरन आध्यात्म दिखाना पड़ रहा है लेकिन आध्यात्मिक चैनलों पर अभी भी न्यूज दिखाने की कोई मजबूरी दिखाई नहीं देती। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि किसका पलड़ा भारी है! (यह लेख २० जुलाई, २००८ को नवभारत टाइम्स के फोकस पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ)

Jul 16, 2008

टीवी एंकर और वो भी तुम.../ फिर मैं क्यों बोलूं..Vartika Nanda: Poetry

टीवी एंकर और वो भी तुम
किसने कहा था तुमसे कि
पंजाब के गांव में पैदा हो
साहित्य में एम ए करो
सूट पहनो
और नाक में गवेली सी नथ भी लगा लो

बाल इतने लंबे रखो कि माथा छिप ही जाए
और आंखें बस यूं ही बात-बिन बात भरी-भरी सी जाएं।

किसने कहा था दिल्ली के छोटे से मोहल्ले में रहो
और आडिशन देने बस में बैठी चली आओ
किसने कहा था
बिना परफ्यूम लगाए बास के कमरे में धड़ाधड़ पहुंच जाओ
किसने कहा था
हिंदी में पूछे जा रहे सवालों के जबाव हिंदी में ही दो
किसने कहा था कि ये बताओ कि
तुम्हारे पास कंप्यूटर नहीं है
किसने कहा था बोल दो कि
पिताजी रिटायर हो चुके हैं और घर पर अभी मेहनती बहनें और एक निकम्मा भाई है
क्यों कहा तुमने कि
तुम दिन की शिफ्ट ही करना चाहती हो
क्यों कहा कि
तुम अच्छे संस्कारों में विश्वास करती हो
क्यों कहा कि तुम
' सामाजिक सरोकारों ' पर कुछ काम करना चाहती हो

अब कह ही दिया है तुमने यह सब
तो सुन लो
तुम नहीं बन सकती एंकर।

तुम कहीं और ही तलाशो नौकरी
किसी कस्बे में
या फिर पंजाब के उसी गांव में
जहां तुम पैदा हुई थी।

ये खबरों की दुनिया है
यहां जो बिकता है, वही दिखता है
और अब टीवी पर गांव नहीं बिकता
इसलिए तुम ढूंढो अपना ठोर
कहीं और।
........................................................

फिर मैं क्यों बोलूं
शहर के लोग अब कम बोलते हैं
वे दिखते हैं बसों-ट्रेनों में लटके हुए
कार चलाते
दफ्तर आते-जाते हुए
पर वे बोलते नहीं।

न तो समय होता है बोलने का
न ताकत
न बोलने-बतियाने का कोई खास सामान।

राजनीति और अपराध पर भी
अब बहुत बातें नहीं होतीं।

शहर के लोग शायद अब थकने लगे हैं
या फिर जानने लगे हैं
ऐसे शब्दों का क्या भरोसा
जो उड़कर नहीं जाते सियासत तक।

इसलिए शहर के लोग अब तब बोलेंगें
जब पांच साल होंगे पूरे
तब तक बोलना
बोलना नहीं
अपने अंदर के सच को काटना ही होगा।
ये दोनों कविताएं 'हंस' के जुलाई अंक में प्रकाशित हुई हैं.

Jul 9, 2008

बस यूं ही

पानी बरसता है बाहर
अंदर सूखा लगता है
बाहर सूखा
तो अंदर भीगा
हवा चलती है
मन चंचल
कुछ ज्यादा बेचैन हो उठता है।
सियासत होती है
अंदर बगावत हो जाती है
दिक्कत फितरत में है
या बाहर ही कुछ चटक गया है।
(2)
रब से जब भी मिलने गए
हाथ जोड़े
फरमाइश की फेहरिस्त थमा दी
कुछ यूं जैसे
आटे चावल की लिस्ट हो।

मोल भाव भी किया वैसे ही
कि पहली नहीं है
तो दूसरी ही दे दो
नहीं तो तीसरी।
जो दो रहे हो, वो जरा अतिरिक्त देना
और मुझसे लेने के वक्त रखना एहतियात।

रब के यहां डिस्काउंट नहीं लगता
नहीं मिलती सेल की खबर
पर जमीन के दुकानदार तब भी कर ही डालते हैं
अपनी दुकानदारी।

Jul 8, 2008

मीडिया नगरी

किताब में पढ़ लिया
और तुमने मान भी लिया
कि मीडिया सच का आईना है !

तुमने जिल्द पर शायद देखा नहीं
वो किताब तो पिछली सदी में लिखी गई थी
तब से अब तक में 'सच' न जाने कितनी पलटियां ले चुका
और तुम अभी भी यही मान रही हो
कि मीडिया सच को दिखाता है !

सुनो
नई परिभाषा ये है कि
मीडिया सच पर नहीं
टीआरपी पर टिका है

पर एक सच और है

मीडिया मजबूर है
और जो खुद मजबूर है
वो तुम्हें रास्ता क्या-कैसे दिखाए

हां, तुम ठीक कहती हो
हम-तुम दोनों मिलकर एक नए मीडिया की तलाश करते हैं
बोलो, मंगल पर चलें या प्लूटो पर
अब यह तो तुम ही तय करो
लेकिन सुनो
वक्त गुजारने के लिए
ये सपना अच्छा है न!

Jul 4, 2008

फिर मैं क्यों बोलूं

शहर के लोग अब कम बोलते हैं
वे दिखते हैं बसों-ट्रेनों में लटके हुए
कार चलाते
दफ्तर आते-जाते हुए
पर वे बोलते नहीं।

न तो समय होता है बोलने का
न ताकत
न बोलने-बतियाने का कोई खास सामान।

राजनीति और अपराध पर भी
अब बहुत बातें नहीं होतीं।

शहर के लोग शायद अब थकने लगे हैं
या फिर जानने लगे हैं
ऐसे शब्दों का क्या भरोसा
जो उड़कर नहीं जाते सियासत तक।

इसलिए शहर के लोग अब तब बोलेंगें
जब पांच साल होंगे पूरे
तब तक बोलना
बोलना नहीं
अपने अंदर के सच को काटना ही होगा।

( यह कविता 'हंस' के जुलाई अंक में प्रकाशित हुई है)

Jul 1, 2008

रिएलिटी शो - तमाशा या सच ?

जितनी ज़ोर से इस बात को कहा जाता है कि यह रिएलिटी शो है, उतने ही जोर से मन में यह बात उठती है कि क्या बाकी सब झूठ है। रियलिटी शोज़ की अति दरअसल हमें इसी चौराहे की तरफ ले जा रही है।

जर्मन समाजशास्त्री जर्गन हैबरमास ने 18वीं सदी से लेकर अब तक के मीडियाई विकास के सोपानों को बारीकी से पढ़ा। वे फैंकफर्ट स्कूल आफ सोशल थाट से जुड़े रहे हैं। उन्होंने पाया कि इसके बीज लंदन, पेरिस औरतमाम यूरोपीय देशों में पब्लिक स्फीयर के आस-पास विकसित हुए। यहां के काफी हाउस और सैलून से पब्लिक डीबेट परवान चढ़े लेकिन यह सिलसिला लंबा नहीं चला। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि राजनीति का मंचन संसद और मीडिया में होता है जबकि जनता के हितों पर आर्थिक हित हावी हो जाते हैं। कुल मिलाकर जनता की राय विचारों के आदान-प्रदान के खुले प्रवाह के ज़रिए नहीं बल्कि बड़े लोगों के प्रभाव और तोड़ने-मरोड़ने के अंदाज़ पर निर्भर करती है। ज़ाहिर है कि अक्सर जो कवायद जिस जनता के नाम पर की जाती है, वह असल में आत्म-सुख से प्रेरित होकर दिमागी ताने-बाने का शिकार होती है।

इधर भारत में हम जिस किस्म के रिएलिटी शो को देख रहे हैं, उसमें से एक का मर्म मनोरंजन है औरदूसरे का रहस्य, रोमांच, अपराध, सनसनी वगैरह। एक विजेताओं के जीतने की कहानी लाइव दिखाता है और रोमांच के बीच ही कुछ कर गुजरने की प्रेरणा भरता है, दूसरा कभी डराता है, कभी विचलित करता है। काफी हद तक सच दोनों है, मकसद एक-सा है लेकिन दोनों के तरीके अलहदा हैं। दोनों ही तरह के प्रोडक्ट सच के टैगकी मार्केटिंग करते हैं। ऊपरी परत पर सच सर्वापरि दिखता भी है।
लेकिन इस सच की परत ज़रा सी उधेड़ी नहीं कि मामला पलटा हुआ मानिए। इसे खरोंचने पर टीआरपी दिखाई देती है और उसके भीनीचे जाने पर भावनाओं से खेल कर पहले नंबर पर बन जाने की कोशिश।यह रिएलिटी टीवी ही है जिसने दो साल पहले पटियाला के एकदुकानदार के खुद को आग लगा लेने के शाट्स को लाइव की आंच पर भूना था। उस दुकानदार की जान का जाना एक्लूजिव के झंडे को फट से गाढ़ने में काम आया था। इसी रिएलिटी टीवी ने गुडिया का शौहर कौन हो, इस प्रकरण पर चटपटी रोटियां सेकी थीं।मिसालें बहुत सी हो हैं लेकिन यहां बात मानसिकता को टटोलने की हो रही है।
दरअसल इलेक्ट्रानिक मीडिया मजबूरी का नाम है। शुरूआती समय में उसे प्रिंट से जूझना था। बाद में जब प्रिंट ने ही टीवी के साथ जूझना छोड़ दिया तो हार कर (या यूं मान लीजिए कि खुद को खुद ही जीता हुआ मानकर) टीवी दूसरी जंग जीतने चल पड़ा और यह जंगखुद अपनी बिरादरी पर फतह पाने की है। संभलने की बात भी यहीं पर है क्योंकि यहां जीत के लिए कोई निश्चित फार्मूला नहीं है और न ही जीत नाम की चीज स्थाई है। यहां रिजल्ट हर शुक्रवार को आता है और शनिवार को स्याह स्लेट पर फिर से लिखना शुरू होता है।वैसे चैनलों ने अपना कोड आफ कंडक्ट और अपनी सेंसरशिप लागू करने की बात भी कह दी है लेकिन कथनी और करनी एक हो, यह बात किसी बयान को देने भर से साबित होती नहीं है।

दरअसल बात कहीं संतुलन बनाने की है। निजी चैनलों की छुपनछुपाई बीच दूरदर्शन आज भी अपनी डफली बजाने में मस्त है। सरकारी पैसे से सफेद हाथी खा-पीकर जैसा मोटा-मनमौजी हो जाता है, तकरीबन वैसी ही छवि दूरदर्शन की भी है। निजी चैनलों के पास दूरदर्शन जैसे संसाधन नहीं हैं, इसलिए वह अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए जितने हथकंडी पांव मार सकता है, मार रहा है।
दोनों दो छोर हैं। जिस दिन दोनों छोर कहीं थोड़ा लचीले होकर बदलेंगे, भारतीय टीवी की तस्वीर भी बदल जाएगी।

लेकिन हमारी जो चाल रही है, उसे देखते हुए लगता है कि जब तक हम चेतेंगे लक्ष्मण रेखाएं तार-तार हो चुकी होंगी। तब हमें एक ऐसे दर्शक वर्ग से जूझना होगा जो हमारे एकदम सच्चे सच को भी सच नहीं मानेगा।

(१ जुलाई, २००८ को राष्ट्रीय सहारा के ' हस्तक्षेप ' में प्रकाशित)