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LANGUAGE AND PRINCIPLES OF ONLINE NEWS WRITING

Dec 27, 2010

भूलना, भूलना और फिर भूलना

कितना अच्छा होता है भूल जाना

वो रातें जब भरपेट खाना नहीं मिला था

सुबहें जो सर्दी के ठिठुरे कोहरे से दबी होकर भी

भागती थीं

चाय की भाप से मुलाकात किए बिना

 

दोपहरिया इसी चिंता में कि                                                    

शाम का पहिया

जाने आज किस दिशा में घूमेगा

 

अच्छा ही होता है भूल जाना

फरेब के वो सारे पल

जब पूरब को बताया गया था पश्चिम

जब मंदिर के बाहर छोड़े जूते

न मिलने पर वापिस

सोचा था

शायद यह थी ईश्वर की मर्जी

 

अच्छा ही होता है भूल जाना

कि इम्तिहान दर इम्तिहान

यात्रा कभी खत्म नहीं होगी

 

इतना सामान समेटा

यहां से वहां से

चार सोने के कंगन दो बूंदे, बीसों साड़ियां

इन सब पर तब भी भारी थी

मांग पर पड़ी लाल बारीक रेखा

 

अच्छा होता है भूल जाना

कि यायवरी, हैरानी, परेशानियों के बीच

मुस्कुराहटें भी आती हैं मेहमानों की तरह

 

कि शाम के चुप क्षणों में

सफेद होते बाल

यह कहने के लिए अक्सर होते हैं आतुर

कि नहीं हुई है उनकी उम्र अभी ढल-ढल जाने की

 

अच्छा ही होता है

यह भी भूल जाना कि

बात सिर्फ इतनी है कि

ये सांसों का ठेला ही तो है

क्या अपना, क्या पराया

क्या मेरा, क्या तुम्हारा

 

हां, जब तक गठरी है कांधे पे अपने

तब तक तो अच्छा ही है

भूले रहना

भूले-भूले रहना

Dec 21, 2010

आज

 सूरज के गोले बनाकर

चांदी के फंदे डाल दिए

रात भर में बना डाला ऐसा स्वेटर

कि सुबह हुई

तो सूरज शरमा गया

 

गमों को हीरे के गिलास में डाला

एक सांस में गटका

सांस ठंडी हुई

फिर सामान्य

 

हिम्मत है अंधेरे की

कि रास्ते के दीए बुझाए

हम तो दीए हथेली पे लिए चले हैं

ऊर्जा मन में है

दीए बहाना हैं

 

अहा

इससे बेहतर तस्वीर क्या होगी जिंदगी की

पूछो तो इस नन्हे शावक से

यहां मुस्कुराहटें खुद चली आती हैं

खुशी का सबक लेने

Dec 19, 2010

2010

 जाते हुए साल से एक पठार मांग लिया है उधार में

पठार होंगें

तो प्रार्थनाएं भी रहेंगी

 

कहा है छोड़ जाए

आंसू की दो बूंदें भी

जो चिपकी रह गईं थीं

एक पुरानी बिंदी के छोर पर

 

कुछ इतिहासी पत्ते भी चाहिए मुझे अपने पास

वो सूखे हुए से

शादी की साड़ी के साथ पड़े

सूख कर भी भीगे से

 

वो पुराना फोन भी

जो बरसों बाद भी डायल करता है

सिर्फ तुम्हारा ही नंबर

 

हां, वो तकिया भी छोड़ देना पास ही कहीं

कुछ सांसों की छुअन है उसमें अब भी

 

इसके बाद जाना जब तुम

तो आना मत याद

न फड़फड़ाना किसी कोने पर पड़े हुए

 

कि इतने समंदरों, दरख्तों, रेगिस्तानों, पहाड़ों के बीच

सूरज की रौशनी को आंचल में भर-भर लेने के लिए

नाकाफी होता है

कोई भी साल

Dec 13, 2010

संवेदना के धागों से बुनी एक खबर

एक अकेला भारत ही संवेदनशील है, भावनाओं के समुंद्र में बहता है और वह उफान में रोज गहराता है, ऐसा नहीं है। कार्ला ब्रूनी जब फतेहपुर सीकरी जाती हैं तो अपनी दूसरी शादी और पहले से एक बच्चे की मां होने के बावजूद यह जानकर भावुक हो उठती हैं कि यहां मुराद मांगने से झोली जरूर भरती है। हाथ में चादर लिए वे माथा टेक कर कई मिनट लगातार सरकोजी के जरिए एक बच्चे की मुराद मांगती चली जाती हैं और जब चादर चढ़ा कर बाहर आती हैं तो उनके चेहरे पर नारी सुलभ संकोच और सौम्यता टपकती दिखती है। इलेक्ट्रानिक मीडिया इसी संकोच पर खबर दर खबर गढ़ता चला जाता है। कुछ जगह आधे घंटे के प्रोग्राम बना दिए जाते हैं। कार्ला और सरकोजी कव्वाली की धुन के बीच उस सलीम चिश्ती के रंग में सराबोर दिखते हैं जिसने बादशाह अकबर को भी खाली हाथ नहीं भेजा था। कार्ला बार-बार नमस्ते की मुद्रा में दिखाई देती हैं, कैमरों के सामने उनकी मुस्कुराहट और भी खिल कर सामने आती है। वे भाव विभोर हैं। कैमरे, संगीत का प्रभाव और दमदार एडिटिंग ऐसे माहौल को निर्मित कर देते हैं जहां दुनिया के एक प्रभावशाली देश का शासक भी महज एक याचक की तरह दिखाई देता है।

 

बाद में कार्ला उस वादे को दोहराते दिखती हैं कि अगली बार वे भारत प्रवास इतना छोटा नहीं बनाएंगीं बल्कि कुछ हफ्तों के लिए यहां रूकना चाहेंगीं। भारत ने उन्हें खींच लिया है। एड्स पीड़ितों से मिलते समय कार्ला ब्रूनी में यही नारीत्व झलकता है। वे एड्स से पीड़ित गर्भवती महिलाओं को दिलासा और हौसला देती हैं कि उनके बच्चे पूरी तरह से स्वस्थ होंगे। कार्ला की बातचीत, उनकी चाल और उनके चेहरे के भावों में ममत्व उमड़ता दिखता है। वे भारत में आकर मुग्ध हैं, शब्दहीन हैं और सरोकारों से भरपूर हैं।

 

इस सबका प्रभाव यह होता है कि जो रिपोर्टिंग महज दिमागी या फिर सिर्फ राजनीतिक रंग में रंगी होनी चाहिए थी, वह मानवीय सरोकारों में बुनी जाने लगती है।

 

यह मीडिया का एक नया युग है। यहां चौबीसों घंटे राजनीति नहीं परोसी जा सकती। किसी राजनियक, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति या सेलिब्रिटी की यात्रा के ऊबाऊ भाषण जनता को ज्यादा खींच नहीं सकता। यह रिपोर्टिंग का मानवीयकरण है। यहां खबर को संवदनाओं के धागे में ऐसा बुना जाता है कि सारे समीकरण ही बदले नजर आने लगते हैं। वे ऐसा बदलते हैं कि यात्रा का अंत आते-आते राष्ट्रपति ओबामा पर मिशेल भारी पड़ जाती हैं। काटेज इंपोरियम में एक माला पहनतीं या मुंबई में एक बच्ची से यह कहतीं मिशेल कि मेरे पति से जरा मुश्किल सवाल पूछो, नारीत्व के ग्लोबल परिदृश्य को साबित करती हैं। वे कह देती हैं कि भाई घर पर तो मेरी ही चलती है। यहां की बॉस मैं ही हूं। यहां कार्ला भी अपने पति सरकोजी पर साफ तौर पर हावी दिखती हैं। लगता है कि जैसे सरकोजी उनके पीछे कदमताल कर रहे हैं। कार्ला सर्वेसर्वा हैं। पति की बागडोर अपने हाथों में लिए हुए उनकी अदा निराली हो उठती है। यहां तक कि रिपोर्टिंग में भी वे ही छाई दिखने लगी हैं। उनका साथ इस यात्रा में रस भरने और भारत के साथ संबंध को पक्का बनाने का काम कर रहा है अन्यथा इस यात्रा के बोझिल दिखने की आशंका बन सकती थी।

 

शायद इसीलिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कूटनीतिक यात्राओं में पत्नी का साथ कई मायने रखता है और वह जरूरी भी है। ऐसा नहीं है कि दांपत्य भारतीय संदर्भ में ही बुनियादी जरूरत सा है बल्कि तमाम आधुनिकताओं के बावजूद पश्चिम भी इसकी जरूरत को महसूस करने लगा है। दरअसल यह वाक्यों के बीच में पढ़ने जैसा ही है। सफल दांपत्य बाहरी जिंदगी में भी पौधों को सींचने का काम करता है। यह बात अलग है कि दुनिया के कई नेताओं को ऐसा सौभाग्य मिल नहीं सका। अटल बिहारी वाजपेयी उन्हीं गिने-चुने नेताओं में से एक हैं। एक अदद पत्नी की मौजूदगी भर बोझिल होते माहौल में ताजगी ला सकती है और झुर्रियों से भरते देशों के आपसी रिश्तों में कसाव ला सकती है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ज्यादातर विदेशी यात्राओं में जब अपनी पत्नी गुरशरण कौर के साथ नजर आते हैं तो उसके कई मजबूत संदेश जाते हैं। इस पर एक मनोवैज्ञानिक सर्वेक्षण किया जाए तो हो सकता है कि कई दिलचस्प तथ्य सामने आएं।

 

बहरहाल, कार्ला और सरकोजी ने वादा किया है कि इस शादी से बच्चा होने पर वे सलीम चिश्ती की दरगाह में फिर से लौटेंगे। भारत और भारतीयों को इस वादे के पूरे होने का इंतजार रहेगा। तब शायद  मीडिया 2010 की इस फुटेज को नए सिरे से जोड़कर संवेदना की कोई नई पराकाष्ठा ही गढ़ दे।

 

(यह लेख 13 दिसंबर, 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

Dec 2, 2010

दिखा क्या ?

जो दिखता है वो होता नहीं

जो होता है, वो होता है और कहीं

परियों की कहानियों

यादों के संदूकों में बंद

कहीं छिपा

 

शहर ही की तरह होता है दिल

बड़ा भी, उतना ही कभी तंगदिल भी

 

मकबरे की तरह शिथिल भी

उत्सव की तरह खिल-खिल भी

 

किताब में जिस पत्ते को 1980 में सहेज रख छोड़ा था

उस दिन की याद में

वैसा ही गुमसुम भी

 

झुरझुरी की तरह निजी भी

उस बाल की तरह जिसकी सफेदी

अभी कालेपन के नीचे दबी है

पर वो भी है एक सच

 

चलो, इस सड़क को जरा खींच लिया जाए

बना दिया जाए यहां एक बांध

खोल दिया जाए तितलियों से भरा एक झोला

इत्र की बोतलों की कई सुरमई खुशियां

 

बस, बात सिर्फ इतनी थी

खुशबुओं की तैराई समझने के लिए

मूंदो तो पलकें पल भर को

रोको सांसें

जिंदगी खुद ही सरक आएगी

आंचल के छोर में बंधने

Nov 25, 2010

गोवा की शादी

दिल्ली से गोवा की फ्लाइट के चलने में अभी कुछ समय बाकी है। तभी एक नजारा मिलता है। पहले दो  कर्मचारीनुमा लोग दो अलग-अलग सूट थामे हुए सावधानी से चलते हुए, फिर करीब 30 लोगों का एक परिवार जैसा एक काफिला और उनके एक कोने में ठसक के साथ चलते हुए दो पंडित। पंडितों को देखते ही मामला समझ में आ जाता है। यह लड़के की बारात है।

 

फ्लाइट चलती है। बाराती रास्ते भर कुछ नहीं खाते(क्योंकि कुछ फ्लाइटों में खाने का पैसे खर्च होते हैं) हां, खुसफुसाहट जरूर कानों में पड़ती है कि वहां का इतजाम कैसा शानदार होगा।

 

गोवा आते ही कारवां खुशी से बाहर आता है। बेहद सावधानी से दूल्हे के कपड़े उठाए उन दोनों कर्मचारियों से मैं पूछती हूं क्यों भइया, इतने ध्यान से क्या उठाए हुए है। वे शर्मा कर कहते हैं (गोया यह शादी उन्हीं की हो) कि ये भइया जी के कपड़े हैं, उनकी शादी है। मेरा मन अभी भरा नहीं है। अबकी मैं पूछ बैठती हूं, भइया कपड़े बहुत महंगे हैं क्या। उनमें से एक शर्मा कर फिर से कहता है हां, बहुत महंगे हैं।

 

खैर,एयरपोर्ट पर बारातियों का भव्य स्वागत होता है। बताया जाता है कि उनके लिए गोवा के एक शानदार होटल में चार दिन और तीन रात ठहरने का इंतजाम किया गया है। जाहिर है खर्चा लड़की वालों का ही है। एक बाराती कहता है कि इंतजाम तो खास होना ही है जी। इतना तो बनता ही है। बाराती एक विशालकाय बस में जाते हैं। प्रस्तावित दूलहा अपने दोस्ते के साथ एक बड़ी कार में। एक-एक पल की वीडियो रिकार्डिंग होती है। लड़के के बैठने, हाथ हिलाने, हंसने सभी की।

 

यह कारपोरेट शादी है। यहां सब कुछ पैकेज में मिलता है। हवाई यात्रा, ठहरना, खाना-पीना, घूमना, लौटते में सोने के सिक्के पाना यह सब पैकेज का हिस्सा है। मैनें तो शादी से पहले के आयोजन की एक झलक भर ही देखी, शादी में जाने क्या हुआ होगा। लाजपतनगर के एक दुकानदार की बेटे की शादी के लिए जब यह पैकेज देखा तो सोचना पड़ा कि आजकल नेताओं, सरकारी अफसरों, बड़े व्यापारियों के बेटों के लिए जाने कैसे पैकेज होते होंगा। क्या हम वाकई तरक्की कर रहे हैं? वैसे सीबीआई है कहां और कहां है इंकम टैक्स विभाग? क्या यह विभाग उन्हीं लोगों को डराने के लिए हैं जिनके पास इंकम कम और डर ज्यादा है?

Nov 18, 2010

आखिर कहां है कला के लिए जगह

10 दिनों तक कवरेज कामनवेल्थ गेम्स के आस-पास घूमती रही। एतराज इस पर नहीं है। पर इस बात पर एतराज करने का हक तो बनता ही है कि इस कवरेज में मीडिया, खास तौर से इलेक्ट्रानिक मीडिया इस कदर लोटपोट रहा कि दिल्ली में हो रहे बहुत से  दूसरे जरूरी उत्सव उसने तकरीबन नजरअंदाज ही कर दिए। खेल महाउत्सव तो थे लेकिन उसके साए में लगा कि जैसे कवरेज का संसार भी सीमित हो गया। संगीत नाटक अकादेमी का देशपर्व इसका सटीक उदाहरण है। 10 दिन तक चले इस उत्सव को 5 हिस्सों में बांटा गया। कुलवर्णिका, नृत्य रूपा, देसज, नाट्य दर्शन और संगीत मार्ग। सभी का मकसद कलाकारों को राष्ट्रीय मंच मुहैया कराना और उन्हें प्रोत्साहित करना था। 10 दिनों तक चले इस उत्सव में करीब 1500 कलाकारों ने कला की कई ऐसी विधाएं ऐसे अद्भुत ढंग से प्रस्तुत कीं कि कई बार दर्शक खुशी के चरम को महसूस करते दिखे। संगीत, नृत्य और नाटक की भारत की इस राष्ट्रीय अकादेमी की स्थापना1952 में हुई थी और तब से यह भारत के सांस्कृतिक कलेवर में रंग भर रहा है।     

 

इसी तरह दिल्ली की साहित्य अकादमी ने कामनवेल्थ गेम्स देखते हुए दो दिवसीय राष्ट्रीय कवि सम्मेलन का आयोजन किया। मीडिया यहां भी तकरीबन नदारद दिखा। इंडिया इंटरनेशनल और हैबिटैट सेंटर दो हफ्तों में कई किताबों के विमोचन करने में व्यस्त रहे लेकिन वहां भी कवरेज का हाल तकरीबन यही रहा। हां, श्री राम कला केंद्र की हर साल होने वाली रामलीला को ठीक-ठाक कवरेज जरूर नसीब हुआ।

 

दरअसल कवरेज का ताल्लुक सीधे इस बात से होता है कि उसकी कवरेज की अनुमति देने वाले का खुद का रूझान किसमें है और कवरेज के लिए कही जा रही घटना में टीआरपी बटोरने की कितनी ताकत है। आम तौर पर कवरेज का नियंत्रण अपने हाथ में रखने वाले आका कलाकार नहीं, पत्रकार ही होते हैं, इसलिए यहां खबर का पलड़ा भारी पड़ता है। लेकिन अगर आका के चाहने पर कवरेज हो जाए तो उस कवरेज को चलाने का अधिकार आउटपुट वाले के पास होता है जो इन्हीं मापदंडों के हिसाब से चयन करता  है। नतीजतन कला और कलाकार के बड़ी खबर बनने के आसार आम तौर पर पस्त ही होते हैं, बशर्ते उस दिन राजनीतिक, खेल या दूसरे बड़े हलकों से बड़ी खबर की पैदावर न हुई हो। दूसरे, यह भी कि कला की बीट को कवर करने वाले कई बार ऐसी हीन भावना से ग्रस्त हो जाते हैं कि कांग्रेस या भाजपा कवर कर रहे रिपोर्टर की अदनी सी खबर के आगे अपनी स्टोरी को जगह दिलाने के लिए पूरी तरह जिरह नहीं कर पाते।

 

तो क्या इसका मतलब यह माना जाए कि नया थियेटर की नगीन तनवीर को तभी जाना जाएगा जब वे पीपली लाइव में चोला माटी के राम गाएंगी और लोग उस आवाज को बड़े परदे पर सुनेंगे। तब तक 30 साल की यात्रा के सहभागी सिर्फ वो मुट्ठी भर लोग होंगें जो साल दर साल ऐसे कलाकारों को मंच पर देख कर हैरानी और खुशी के भाव से बाहर आया करेगें। तो क्या कला की दुनिया को कवरेज के लिए किसी ऐसे फीके दिन का इंतजार करना होगा जिस दिन कोई न्यूज ब्रेक न हो और खबर का बाजार मंदा पड़ा हो।

 

इस तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि सांस्कृतिक बाजार को लेकर प्रिंट और उससे भी ज्यादा वेबमीडिया में काफी सरोकार दिखाई देता है।गेम्स को लेकर लगातार बनी अनियमितताओं और भ्रष्टाचार के संगीन आरोपों के बीच भी वेब मीडियाकाफी हद तक अपने संतुलन को बनाए रखने में कायम रहा है। ब्लागरों की नई उपजी फौज चहुंमुखी कवरेज में भरपूर मुस्तैद दिखती रही। हां, उनकी तुलना टीवी या प्रिंट से करना सही नहीं क्योंकि वहां पैसे की ऐसी बंदिश होती नहीं, इसलिए वो आजादी लुभावनी भी लगती है।   

 

असल में हर माध्यम की अपनी उपयोगिता और अपनी सीमाएं हैं। इसलिए समुचित कवरेज न पाने वालों को भी नए सिरे से इस बात का अवलोकन करना चाहिए कि कौन से ऐसे माध्यम ईजाद किए जाएं जिनके जरिए सूचना का संप्रेषण सटीक, तुरंत और ज्यादा कारगर हो। कला का क्षेत्र प्रयोगधर्मिता का क्षेत्र है। जब मंच के हर कोण में प्रयोगधर्मिता के नए फार्मूले ईजाद किए जा सकते हैं तो फिर कवरेज को लेकर क्या परहेज।

 

(यह लेख 24 अक्तूबर, 2010 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)

Nov 3, 2010

गुल्लक

हवा रोज जैसी ही थी

लेकिन उस रोज हुआ कुछ यूं

कि हथेली फैला दी और कर दी झटके से बंद

हवा के चंद अंश आएं होंगे शायद हथेली में

गुदगुदाए

फिर हो गए उड़नछू वहीं, जहां से आए थे

 

फूल भी क्यारी में रोज की तरह ही थे

लेकिन उस रोज जाने क्यों

एक पत्ते को उंगलियों में लिया

किताब की गोद में सुला दिया

लिख दिया उस पर तारीख, महीना, साल

पत्ता इतिहास हुआ पर दे गया कोई सुकून

कि जैसे

इतिहास को बांध लिया हो किताब की कब्र में

 

पल भी कई बार ऐसे ही समेटे कई बार

याद है शादी का वो अलबम

पहली किलकारी की तस्वीरें

होश में आते दिनों के ठुमकते दिन

 

मौसमों को भी कई बार बाहुपाश में समेटा

सर्द दोपहर की घाघरे सी फैली धूप में

बाहर बैठे

कैसे बातें लिपटती गईं थीं

इतिहास की तह में जाकर भी

वो दोपहरें आबाद थीं

 

जाने क्यों इस जीवन को छोड़ने का मन ही नहीं करता

Oct 31, 2010

रियासत

इससे बेहतर                   

बल्कि बेहतरीन और कैसा बचपन होता

बचपन को सलीकेदार, हवादार, खुशबूदार बनाने के लिए

मन की फौज को रखना चाक-चौबंद

याद रखना

दोहराना

अपनी जिंदगी की राजा या रानी मैं खुद हूं

बड़ी सी प्रजा भी खुद ही

यहां सपने मेरे अपने बड़े से खेत में उगेंगे

उनकी सिंचाई का बंदोबस्त भी मेरे हाथ में

मर्जी होगी मेरी

कि कित्ते तारे देखना चाहूं आसमान की स्लेट पर

किसे लिखूं खत

बताऊं

पिट्ठूगरम में कितनी बार जीती इस हफ्ते

अपनी गुड़िया के लिए मलमली गद्दे

अपने लिए गुलाबी फ्राक

बहन के लिए पिचकारी

सब मेरी फूलों की क्यारी से ही सरक कर आएंगे बाहर

बागडोर मेरे हाथ में

अपनी जिंदगी की, थिरकन की, मचलन की

रियासतें रियासतों से नहीं बनतीं

जहन में उकरते हैं उनके नक्शे

उसके तमाम चौबारे अंदर ही

फव्वारे भी

अंदर की रियासत बनाने वाले

सुख बोते हैं, सुख काटते हैं, सुख पाते हैं

Oct 29, 2010

पाकिस्तान, आतंकवाद और सूचना मंत्रालय

1980 के आस-पास के सालों में पंजाब के छोटे-से शहर फिरोजपुर में रहते हुए एक छवि जो मन में बसी, वो आज भी कायम है। वो छवि थी चुस्त-दुरूस्त पीटीवी यानी पाकिस्तान टीवी की। पीटीवी पंजाब में बहुत लोकप्रिय था। दूरदर्शन से भी ज्यादा। मनोरंजन के नाम पर पाकिस्तान टीवी पर भरपूर सामान रहता था लेकिन इसी के साथ जो चौंकाता था,वो था पीटीवी पर भारतविरोधी बयानबाजी। पीटीवी के समाचारों के बड़ा हिस्सा भारत के ही नाम रहता और वो एकतरफा भड़काऊ पक्ष बड़ी महारत से रखता। दूसरी तरफ भारतीय दूरदर्शन के शाम के क्षेत्रीय समाचार और रात के राष्ट्रीय समाचार संतुलित पक्ष तो देते लेकिन बेहद थके और ऊबाऊ लगते।

 

इस बात पर इतनी हैरानी नहीं होती जितनी इस पर होती है कि पिछले 30सालों से भारत का सूचना प्रसारण मंत्रालय आज भी इस भारत विरोधी मुहिम से बचने का कोई कारगर तरीका खोज नहीं पाया है।

 

ताजा खबर के मुताबिक मंत्रालय अब फिर सक्रिय हो उठा है। मंत्रालय को आभास है कि पड़ोसी देशों की सीमा से सटे इलाकों और नक्सल प्रभावित राज्यों में प्रसारण दे रहे दूरदर्शन और आकाशवाणी को आतंकवादी और माओवादी लगातार नुकसान पहुंचा रहे हैं। इनसे निपटने के लिए अब केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्रालय एक रणनीति तैयार कर रहा है। देश भर से मिली रिपोर्टों के आधार पर मंत्रालय अब इस सच को स्वीकार कर चुका है कि सीमापार से आतंकवाद झेल रहे जम्मू कश्मीर सहित पंजाब, अरूणाचल प्रदेश, मघालय, असम और नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़, झारखंड और बिहार के संवेदनशील जिलों में मंत्रालय को अब अतिरिक्त मुस्तैदी दिखानी होगी। इसके लिए दो स्तरों पर तैयारी की जा रही है। पहली एक विस्तृत रणनीति बनाते हुए दूरदर्शन और आकाशवाणी के एफएम रेडियो को नए सिरे से तैयारी करते हुए रौडमैप बनाने का काम सौंप दिया गया है। दूसरे, टीवी और रेडियो सिग्नल के माध्यम से प्रसारित हो रहे देश विरोधी अभियान को ब्लॉक करने की कारर्वाई पर गंभीर चिंतन किया जा रहा है। मंत्रालय अवगत है कि पीटीवी और पाक रेडियो के जरिए सीमावर्ती इलाकों में भारत विरोधी कार्यक्रम प्रसारित हो रहे हैं। लेकिन चिंता सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। सरकार के गले का फांस बने हुए नक्सली भी अब सूचना तकनीक में माहिर होने लगे हैं। नतीजतन वे अपने रेडियो स्टेशनों के जरिए पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित जिलों में अपनी मर्जी के मुताबिक कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं। इससे निपटने के लिए मंत्रालय ने हाई पावर ट्रासमीटर लगाने की पहल कर दी है।

 

इसी कड़ी में नौशेरा, श्रीनगर, सोपोर, जम्मू लेह, राजौरी में भी ट्रांसमीटर लगाने का काम शुरू हो गया है। अरूणाचल प्रदेश, असम और मेघालय के कुछ जिलों में भी दस वॉट की क्षमता वाले ट्रांसमीटर लगाए जाएंगें। इनसे दूरदर्शन और आकाशवाणी के सिग्नल पहले से बेहतर होगें ही, साथ ही विरोधी तत्वों के लिए इन्हें क्षीण करना असंभव होगा।

 

लेकिन इन कदमों से ज्यादा अकलमंदी मंत्रालय के इस कदम में दिखाई देती है कि अब नक्सलग्रस्त इलाकों में कम्युनिटी रेडियो के पनपने का बेहतर माहौल बनाया जाएगा। इन राज्यों में इस साल के अंत तक 100 से ज्यादा ब्रॉडकास्टिंग टावर स्थापित करने का लक्ष्य रखा गया है। भारतीय ब्रॉडकास्टिंग को ज्यादा लोकप्रिय बनाने के लिए ही जम्मू कश्मीर और उत्तर पूर्वी राज्यों में डीडी की डीटीएच सेवा को घर-घर पहुंचाने के लिए मुफ्त में सेट टॉप बॉक्स भी बांटे जा रहे हैं।

 

लेकिन असल मुद्दा दूरदर्शन-आकाशवाणी को लोगों तक पहुंचाना और विरोधियों के प्रसारण को रोकने भर से हल होने वाला नहीं है। मंत्रालय को अब यह समझ लेना होगा कि लोग सरकारी चैनल को तब ही देखेंगें जब उनमें चुस्ती,फुर्ती और बदलते समय के साथ चलने का दम-खम होगा। इतने सालों से सरकारी चैनल सत्तारूढ़ सरकार की प्यारी गुल्लक की तरह ही देखे जाते रहे हैं और मामला यहीं आकर पस्त पड़ जाता है।   

  

(यह लेख 25 अक्तूबर, 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

Oct 15, 2010

आह ओढ़नी

ओढ़नी में रंग थे,रस थे, बहक थी

ओढ़नी सरकी

जिस्म को छूती

जिस्म को लगा कोई अपना छूकर पार गया है

 

ओढ़नी का राग, वाद्य, संस्कार, अनुराग

सब युवती का श्रृंगार

 

ओढ़नी की लचक सहलाती सी

भरती भ्रमों पर भ्रम

देती युवती को अपरिमित संसार।

 

दोनों का मौन

आने वाले मौसम

जाते झूलों के बीच का पुल है।

                        

ओढ़नी दुनिया से आगे की किताब है

कौन पढ़े इसकी इबारत

ओढ़नी की रौशनाई

उसकी चुप्पी में छुपी शहनाई

उसकी सच्चाई

युवती के बचे चंद दिनों की

हौले से की भरपाई

ओढ़नी की सरकन युवती ही समझती है

उसकी सरहदें, उसके इशारे

पर ओढ़नी का भ्रम टूटने में भला कहां लगती है कोई देरी

 

Oct 11, 2010

माटी के चोले में तनवीर की विरासत

एक लोकगायिका, एक अदाकारा और बड़ी गहरी विरासत।  लेकिन असल जिम्मेदारी इससे भी कहीं बड़ी। कंधों पर नया थियेटर का काम और हर शो के बाद दर्शकों की खड़े होकर तालियों की भरपूर गूंज के साथ और बेहतर होते जाने की चुनौती। बेहतर होते जाने की यही बेचैनी नगीन तनवीर को सबसे अलग करती है। दिल्ली में संगीत नाटक अकादमी के आयोजित देश पर्व में चरनदास चोर के मंचन के बाद नगीन से विस्तार से बात करने का मौका मिला।

पहली बार चरणदास चोर में उन्होंने जब अपना कौशल दिखाया, तब साल था 1975 और उनकी उम्र थी 10 साल। आज तक वे इस शो के 1000 से ज्यादा रिहर्सल कर चुकी हैं। इसके बावजूद हर मंचन के दौरान वे एक नई ऊर्जा के साथ मंच पर कदम रखती हैं। लेकिन इसके साथ ही महसूस करती हैं कि कुछ ही सालों में थियेटर परिपक्व हुआ है। हर बार नाटक एक नया मजा देते हैं, हर बार नए मुहावरे गढ़े जाते हैं। जैसे कि इस बार चरनदास चोर में कामन वैल्थ गेम्स पर एक जगह टिप्पणी शामिल की गई और एक जगह पेप्सी कोक संस्कृति पर और इस पर लोग खूब गुदगुदाए।

वे कहती हैं कि दर्शक को सामने बैठ कर नाटक को देखना जितना लुभाता है, उन्हें उतना ही लुभाता है कलाकारों का अनुशासन और संयम। मंच पर आने से पहले सभी कलाकार पूरी तरह अपने में चरित्र में खोए रहते हैं, जरा भी बात तक नहीं होती। तन्मयता का यह माहौल सबमें ताकत भरता है।  

समय के साथ नगीन ने नाटक के तमाम पहलुओं में बदलाव होते देखे। यहां तक की कपड़े और जेवर भी बदलते गए। चरणदास चोर में रानी बनने वाली फिदा बाई पहले जो साड़ी पहनती थीं, वो सूती साड़ी छत्तीसगढ़ की हैंडलूम की होती थी। अब वो साड़ी बनती ही नहीं है। अब रानी गोल्डन साड़ी पहनती है और गोल्ड के ही गहने पहनती हैं।

नगीन बार-बार वो समय याद करती हैं जब उनके पिता हबीब तनवीर 1950 में मुंबई से दिल्ली आए और अपने साथ 6 कलाकार लाए। अपनी पत्नी की मदद से कनाट प्लेस के गैराज में नाट्य यात्रा की नीव डाली लेकिन नगीन को अखरता है कि लग बार-बार पिता का नाम लेते हुए यह भूल जाते हैं कि उनकी मां मोनिका मिश्रा नया थियेटर की जान थीं। हबीब पहले शख्स थे जो कि गांव वालों के साथ थिएटर में उतरे और उन्हें अपने हर कलाकार पर पक्का विश्वास था।

पीपली लाइव में चोला माटी के राम की जोरदार कामयाबी के बाद अब वे नाटकों से दूर रहने वाले आम दर्शकों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुकी हैं। वे फिल्म के निर्देशकों अनूशा और महमूद रिज़वी को आभार देते हुए यह भी मानती हैं कि मुंबई से से बुलावा काफी देर से आया। अब अगर अनूशा-महमूद की तरह और भी निर्देशकों को थियेटर की गूंज लुभाती है तो वे उनसे जुड़ने में एतराज नहीं करेंगी।

नगीन अब अपने सपनों पर काम करने में जुटी हैं। इस समय एक तरफ जगदीश चंद्र माथुर के नाटक कोणार्क और मन्ना भावे साठे के नाटक खामोश जुलूस पर काम चल रहा है तो दूसरी तरफ वे अपने पिता की शायरी, उनकी लिखी स्क्रिप्ट और नाटक सजो कर एक किताब का रूप देने में भी लगी हैं। परिवारवाद में न तो कभी उनके पिता का विश्वास था, न उनका है। वे पिता की विरासत को एक साथ सजोने के बाद पूरी तरह से गायकी में उतर जाना चाहती हैं।

(9 अक्तूबर, 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित) 

Oct 10, 2010

अदालत का न्याय और मीडिया की सीमाएं

यह त्रासदी ही है कि एक लड़की के बलात्कार और हत्या के आरोपी की सजा इस बिना पर कम कर दी जाए कि वह शादीशुदा है और एक लड़की का बाप भी। अभी कुछ साल पहले की दलील कुछ ऐसी थी कि युवक एक आईपीएस अफसर का बेटा है और साथ ही भावी वकील भी।

 

यह युवक संतोष कुमार सिंह है जिस पर 14 साल पहले कानून की विद्यार्थी प्रियदर्शिनी मट्टू के बलात्कार और हत्या का आरोप है। सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले को सुनते हुए 3 दिसंबर, 1999 की दोपहर याद आ गई जब एडिशनल सेशन जज जी पी थरेजा ने 499 पेज के अपने फैसले में कहा था- हालांकि मैं जानता हूं कि संतोष ने ही इस अपराध को अंजाम दिया है लेकिन मैं उसे संदेह का लाभ देते हुए बरी करता हूं। ऐसा लगता है कि कानून उन लोगों के बच्चों पर लागू नहीं होते जिन पर खुद कानून को लागू करने की जिम्मेदारी होती है। अपने फैसले में थरेजा ने माना था कि दिल्ली पुलिस ने जांच के दौरान संतोष को मदद दी। मामले में इंस्पेक्टर ललित मोहन ने झूठे सबूत गढ़ने और अभियुक्त के बचाव का माहौल तैयार करने में भूमिका निभाई। बाद में सीबीआई के हाथों जांच की कमान आने पर भी डीएनए के साथ छेड़छाड़ दिखाई दी। इसलिए यह जांच भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 45 मददगार साबित नहीं हो सकी। यहां तक कि प्रियदर्शिनी के नौकर और महत्वपूर्ण गवाह को ढूंढा नहीं जा सका। (यह बात अलग है कि प्रिंट का एक जुझारू पत्रकार इस नौकर को बिहार के एक गांव में ढूंढ निकालता है और उसका पक्ष छाप भी देता है) कुल मिलाकर यह मामला पुलिस और जांच एजेंसियों की सांठगांठ और लापरवाही का नमूना साबित हुआ। उंगलियों के निशान, हेलमेट के रखाव और अंदरूनी कपड़ों तक के मामले में जो उदासीनता बरती गई, उसने इस मामले को कमजोर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायण ने इस मामले की दुर्भाग्यपूर्ण हालत देखते हुए कहा था कि न्याय के रक्षा मंदिर अब केसिनो में तब्दील हो गए हैं।  

 

थरेजा की टिप्पणियों ने दिल्ली पुलिस के बेहद पक्षपातपूर्ण रवैये की धज्जियां उड़ा दी थीं। शरीर पर 19 जख्मों के निशान लिए प्रियदर्शिनी की जांच करने में पुलिस ने न सिर्फ कोताही बरती थी बल्कि पूरी लीपापोती भी थी की क्योंकि उस समय संतोष के पिता पुलिस महानिरीक्षक थे।

 

खैर, 1999 की उस दोपहर संतोष तकरीबन हंसते हुए पटियाला हाउस कोर्ट से बाहर निकला था। उसकी खुशी और फुर्ती देखने लायक थी। उस दिन मीडिया के लिए उसकी एक तस्वीर को कैद करना बड़ा मुश्किल साबित हुआ था और उसकी हंसी देख कर किसी भी कैमरामैन के लिए विश्वास करना आसान नहीं था कि यही वह अभियुक्त है जिस पर धारा 302 और 376 कोई असर नहीं छोड़ सकी। वैसी ही हंसी जिसने रूचिका ममाले में आला पुलिस अधिकारी राठौर को जेल भिजवा दिया था।

 

लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। केस आगे बढ़ता गया। प्रियदर्शिनी का परिवार हमेशा के लिए दिल्ली छोड़ कर जम्मू जा बसा था लेकिन वे न्याय पाने के लिए सक्रिय रहे। प्रियदर्शिनी के दोस्तों ने जस्टिस फार प्रियदर्शिनी की मुहिम चलाई और इंडिया गेट पर जाने कितनी मोमबत्तियां जलाकर सोते हुए समाज और न्यायिक व्यवस्था को झकझोरने की कोशिश की। जेसिका लाल और नीतिश कटारा मामले की तरह प्रियदर्शिनी की हत्या को भी जनता और मीडिया ने बराबर जिंदा रखा। इन दोनों ने ही न्यायालिका को कुछ भी भूलने नहीं दिया।

 

लेकिन जनता और मीडिया की एक आदत थोड़े से न्याय के बाद थक जाने की भी होती है। ताजा फैसले के तहत संतोष के बीवी-बेटी की दुहाई दी गई है। लगता है अब एक बार फिर जनता और मीडिया का काम शुरू होता है। क्या परिवार नामक संस्था से जुड़ जाने से अपराध कम हो जाता है और अपराधी अतिरिक्त संवेदना का पात्र बन जाता है, वह भी ऐसी स्थिति में जब कि अपराधी अब भी अपने अपराध को कबूल करने को राजी नहीं।

 

(यह लेख 10 अक्तूबर, 2010 को दैनिक हिंदुस्तान में कुछ बदलावों के साथ प्रकाशित हुआ)

Sep 14, 2010

दिल्ली में नीरो के अतिथियों से रू-ब-रू होना

करीब 300 लोगों की क्षनता वाला स्टीन आडीटोरियम खचाखच भरा था। हाल में हर उम्र के लोग थे लेकिन ज्यादा तादाद युवाओं की थी। वे एक ऐसी फिल्म देख रहे थे जिसमें न तो बालीवुड का तड़का-मसाला था, न बड़े सितारे और न ही उनके करियर से जुड़े सवाल। मामला किसानों की आत्महत्या का था। फिल्म थी नीरोज गेस्ट्स, कहानी थी किसानों की आत्महत्या की और फिल्म के सूत्रधार का काम कर रहे थे देश के इकलौते रूरल एडिटर पी साईंनाथ। आयोजक था- पीएसबीटी और मौका था वार्षिक फिल्म समारोह। जगह वही नई दिल्ली जहां पर किसानों की गिड़गिड़ाहट की आवाज पहुंचती ही नहीं। लेकिन फिल्म को दिखाते समय ऐसा माहौल बना हुआ था कि अगर सुई भी सरकती तो उसकी आवाज दर्ज हो जाती।

पी साईनाथ जेनयू से पढ़े हैं, मैगेसेसे अवार्ड से नवाजे जा चुके हैं और पिछले दस साल से एक ही मिशन पर काम कर रहे हैं और वह है किसान। उनकी किताब एवरीबडी लव्ज ए गुड ड्राउट किसानों के हालात का कच्चा चिट्ठा है। फिल्म पूरे सच्चेपन से बढ़ती चलती है और विदर्भ के किसानों के उन घरों में भटकती है जहां किसानों ने आत्महत्या की है। फिल्म दिखाती है कि कैसे इन परिवारों तक कोई सरकारी मदद अब तक पहुंची नहीं है और कैसे इन परिवारों के बच्चे एक ही रात में बड़े हो गए हैं। उन्हीं परिवारों में कुछ चेहरे ऐसे भी देखते हैं जो किसी भी पल आत्महत्या कर सकते हैं। फिल्म में कई जगह पर साईंनाथ का गुस्सा और क्षोभ उभरता है। उन्हें तमाम आंकडे जुबानी याद हैं। बताते हैं कि दस साल में 2 लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। वे कहते हैं कि सेंसेक्स की हालत पतली होने पर मंत्री दो घंटे में मुंबई पहुंच जाते हैं लेकिन किसानों का हाल देखने जाने के लिए देश के प्रधानमंत्री को दस साल लग जाते हैं। वे जमकर फैशनवीक की धज्जियां उड़ाते हैं, बताते हैं कि कैसे 512 पत्रकार एक फैशनवीक को कवर करने पहुंच जाते हैं और उसे एक राष्ट्रीय उच्सव में तब्दील कर जाते हैं  और कैसे किसानों की आत्महत्या किसी पत्रकार के लिए खबर तक नहीं बनती।  

कई दिनों बाद एक गंभीर मसले पर एक फिल्म देखने को मिली बिना सीटियों के, बिना शोर के बीच, एकदम सभ्य तरीके से। इसमें खास मजा यह देखकर आता है कि जिस पेज थ्री की खिल्ली वे उड़ा रहे थे, उनमें से कई तो वहीं आडीटोरियम में बैठे थे और वे भी खिसिया कर ताली बजाने को मजबूर हो गए थे।

लेकिन इसमें एक कमी लगी। फिल्म सरकारी तंत्र का हद से ज्यादा विरोध करती चलती है, खिल्ली उड़ाती है। यहां संतुलन की कमी महसूस होती है, मामला कई जगह एकतरफा होता भी दिखता है। भारतीय युवा, जो कि मीडिया के अति खुलेवाद की वजह से वैसे ही विद्रोही और नकारात्मक होते जा रहे हैं, उन्हें अगर यह प्रस्तुति सकारात्मक जवाबों से भी रूबरू कराते चलती तो असर शायद और भी प्रभावी हो जाता। 

खैर, पीपली लाइव से अलग लीक से हटकर बनी दीपा भाटिया की यह डाक्यूमेंट्री जब खत्म हुई तो तालियों की आवाज के बीच ऐसा भी लगा कि कुछ आंखें नम भी हो आई थीं। काश इस फिल्म को नीति निर्माता भी देख पाते।

(यह लेख 14 सितंबर, 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

Sep 13, 2010

सरकारी विज्ञापनों के बहाने

बात अरूण जेटली के सौजन्य से निकली है। हाल ही में अरूण जेटली ने इस बात का खुलासा किया कि लेह में बादल फटने से हुई तबाही के बाद सरकार ने 115 करोड़ रूपए की राहत दी जबकि इससे कहीं ज्यादा खर्च कांग्रेस पार्टी के अपने नेताओं के सरकारी विज्ञापनों पर खर्च होता है। इसके लिए उन्होंने मिसाल दी है 20 अगस्त को राजीव गांधी की पुण्यतिथि पर दिए गए विज्ञापनों की। उनके मुताबिक इस मौके पर देश भर के अखबारों में जारी विज्ञापनों पर कम से कम 150 करोड़ रूपए खर्च किए गए जो कि लेह पर किए गए खर्च से ज्यादा तो है ही, देश के कई राज्यों में मूलभूत जरूरतों को बेहतर करने के लिए होने वाले खर्च से भी ज्यादा है।

यहां पर सबसे पहले यह जान लेना चाहिए कि सरकारी प्रचार और विज्ञापन को लेकर दिशा-निर्देश आखिर कहते क्या हैं। इसमें चार केंद्रीय बिंदु हैं यह सरकार की जिम्मेदारियों से जुड़े हुए हों, सीधे-सपाट तरीके से उद्देश्य की पूर्ति करते हों, वस्तुनिष्ठ हों और उन्हें प्रचारित किए जाने की वजह साफ हो, वे पक्षपातपूर्ण या विवादात्मक न हों, किसी पार्टी के राजनीतिक प्रचार का औजार न हों और ऐसी समझदारी से किए जाएं कि वे जनता के पैसों के इस खर्च की न्यायसंगत वजह पेश करते हों।

इस में कोई शक नहीं है कि चाहे राजीव गांधी हों, इंदिरा गांधी या फिर नेहरू इन सभी का देश के विकास और निर्माण में अविस्मरणीय योगदान रहा है लेकिन क्या सरदार पटेल, लाल बहादुर शास्त्री, बाल गंगाधर तिलक, अरूणा आसफ अली, सुरेंद्र नाथ बनर्जी आदि को इस तराजू में कमतर आंका जा सकता है। तो फिर ऐसा क्या है कि एक साल में कांग्रेस परिवार के भरपूर विज्ञापन दिखाई दे जाते हैं जबकि कांग्रेस परिवार की परिधि से बाहर के नेताओं का नंबर उनके जन्म दिवस या पुण्यतिथि पर लगना भी मुश्किल हो जाता है।

असल में यहां खेल सत्ताओं के आस-पास ही घूमता है। जिसकी सत्ता होती है, उसके दायरे के तमाम नेता एकाएक एक बड़े कैनवास पर दिखाई देने लगते हैं। जैसे कि मीरा कुमार के लोकसभा अध्यक्ष बनने के बाद इस बार बाबू जगजीवन राम के जन्मदिवस पर एक विस्तृत डाक्यूमेंट्री ही बना दी गई। ऐसा नहीं है कि इससे पहले बाबू जी का योगदान कम समझा गया था लेकिन चूंकि इस बार मीरा कुमार का कद काफी ऊंचा हो आया था, तो ऐसा संभव हो सका।

दरअसल सरकारी स्तर पर चमचागिरी की परंपरा हमेशा से रही है लेकिन यह अखरता तब है जब इसके लिए पैसा जनता की जेब से उगाहा जाता है। तमाम नेताओं की यादों में जारी होने वाली सरकारी विज्ञापन उस स्रोत से निकलते हैं जिसका इस्तेमाल जनता की बेहतरी के लिए किया जा सकता है। यहां यादों को जिंदा रखने की जिम्मेदारी का खामियाजा आखिर जनता क्यों भुगते।

अब आज अगर भाजपा सत्ता पर आसीन हो जाए तो वीर सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी सरीखे कई नेताओं की लाइन अखबारों में लग जाएगी। मीडिया हाउस उनसे जुड़ी अहम तारीखों को अपनी फारवर्ड प्लानिंग लिस्ट में डाल लेंगे ताकि उनकी यादों के साथ न्याय हो सके। सत्ता बदलते ही सत्तारूढ़ दिवंगत नेताओं की यादों के समारोहों का जैसे उत्सव चल निकलता है।

लेकिन इसमें एक फायदा जरूर होता है। छोटे और मझोले अखबार इन्हीं विज्ञापनों के भरोसे फलते-फूलते हैं। प्रेस काउंसिल आफ इंडिया का दिशा-निर्दश यह कहता है कि आरएनआई में जो छोटे और मझोले अखबार पंजीकृत हैं, उन्हें हर साल एक नियत संख्या में सरकारी विज्ञापन जरूर दिए जाने चाहिए ताकि वे अपनी गुजर कर सकें और बड़े अखबारों के दबाव तले यूं ही मर न जाएं। इन अखबारों के लिए जन्मतिथि और पुण्यतिथि वाले ये विज्ञापन किसी रामबाण से कम नहीं। एक सर्वे के मुताबिक भारत में इस समय 300 बड़े अखबार हैं, जबकि 1000 से ज्यादा मझोले और 1100 से ज्यादा छोटे अखबार हर रोज छपते हैं। इनके लिए ये विज्ञापन ताकत के कैप्सूल हैं लेकिन इन्हें ये कैप्सूल यूं ही नहीं मिल जाया करते। यहां गलियारों में कई दिनों तक जूते घिसने पड़ते हैं औऱ कई राज्य सरकारों में तो क्लर्कों से लेकर ऊपरी स्तर तक इन यादों वाले विज्ञापन पाने के लिए सेवा भी करनी पड़ती है। 

वैसे सवाल यह भी है कि जिस भाजपा ने कांग्रेस के सरकारी विज्ञापनों पर आपत्ति जताई है, क्या वह यह संकल्प ले सकती है कि अगर वह कभी सत्ता में आई तो वह इस तरह सरकारी फंड को पानी में नहीं बहाएगी। जवाब में चुप्पी के मिलने के आसार ज्यादा हैं।

Sep 7, 2010

क्या है आइडल कार्यक्रमों का आइडल

बात आई-गई हो गई। इंडियन आइडल में कथित तौर पर एक बेसुरा आता है। जैसे ही वो गाने की शुरूआत करता है, कुछ ही सेकेंडों में कार्यक्रम के जज अन्नू मलिक, सुनिधि चौहान और सलीम मर्चेंट चेहरा बनाने लगते हैं और फिर टेबल पर सिर रख कर सो जाने का नाटक करते हैं- यह दिखाते हुए कि बेसुरापन बर्दाश्त से बाहर है। प्रतिभागी इस पर गौर करता है और गाना रोक कर स्टेज पर कहकर जाता है कि जजों को उसका गाना भले ही पसंद न आया हो लेकिन तब भी कलाकार की तौहीन नहीं की जानी चाहिए।

लड़का बाहर आता है तो अभिजीत सावंत उस युवक की प्रतिक्रिया लेना चाहते है। इस बार वह लड़का खुलकर अपनी बात रखता है। वह अपना विरोध जताता है कि कार्यक्रम में उसके साथ कुत्ते की तरह बर्ताव किया गया। इस बार वह सीधे अन्नू मलिक की प्रतिभा पर पलटवार करता है, यह जाने बिना भी कि वे पीछे ही खड़े हैं। खास बात यहीं पर है। जब अन्नू मलिक इस पर अपनी तीखी प्रतिक्रिया देते हैं, तब भी वह लड़का विचलित नहीं होता और अपनी पूरी बात कहता है। अन्नू मलिक का आवेश में आना यहां एक अजीब सी खीझ भरता है।  

यह छोटे भारत और स्मार्ट भारत के बीच का लाइव चित्रण था। लेकिन यह कहानी ज्यादा चली नहीं। बस आई और गई।

सोनी एंटरटेंमेंट पर पांच साल से चल रहे इंडियन आइडल का शुरूआती मकसद तो संगीत की छिपी प्रतिभाओं को खोज निकालना और उन्हें प्रोत्साहित करना ही था( हां, इसके बहाने पैसा कमाना और चैनल को लोकप्रियता के ऊंचे पायदान पर खड़े करने की तमन्ना तो थी ही। ) शुरूआती दौर काफी सुनहरा ही रहा। लोकप्रियता ऐसी मिलती है कि पहले साल में अभिजीत सावंत की जीत और अमित साना, राहुल वैद्या और प्रजाक्ता शुकरे की हार में जैसे पूरा भारत ही शामिल हो जाता है। इनमें अभिजीत मुंबई के एक साधारण मध्यमवर्गीय परिवार से आए हैं जबकि बाकी तीनों बचे हुए प्रतिभागी भिलाई, नागपुर और जबलपुर से आए थे।

यहां तक कहानी सुखद लगती है लेकिन इसके बाद के सालों में इंडियन आइडल एक फार्मूले की तलाश करने लगा जिसमें रोमांच, संगीत, हताशा, ख्वाब और बाद में अपमान का पूरा छौंक लगा दिया गया। कई चैनल सुरों की महफिल जमाने लगे। यहां जज प्रतियोगियों के गाने के स्तर के अलावा उनके कपड़ों और उनके कथित स्टाइल पर भी कमेंट करने लगे। यहां मेकओवर की बात होने लगी (मजे की बात यह कि यहां पर पढ़ाई की बात होती कभी सुनाई नहीं दी और न ही पढ़ने पर कोई तवज्जो भी देता सुनाई दिया)  

खैर यहां कुछ सवाल कुनबुनाते हैं। पहला यह कि मीडिया का काम तो सूचना देना, शिक्षित करना और मनोरंजन परोसना था। उसमें आम जनता का मजाक उड़ाना कब शामिल हो गया। दूसरा यह कि क्या  बेसुरा होना पाप है। क्या सुरवाला होना जिंदगी की अंतिम जरूरत है? वैसे जो सुरवाले दूसरों पर हंस रहे थे, उन्हें शायद ही यह ख्याल आया हो कि बहुत से मामलों में वे एक कथित बेसुरे से भी ज्यादा फिसड्डी हो सकते हैं और तीसरे ये कि अगर टीवी पर सुरों की ये जमातें न चलें तो कई दिग्गजों की दुकानों पर खतरे के बादल मंडराने लगें। वैसे तो एक दबा सच यह भी है कि कई डूबते सितारे ऐसे कार्यक्रमों में जज बनने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाए रहते हैं ताकि किसी तरह सर्कुलेशन में बने रहें।

खैर, आम जन को टीवी के चमकीले परदे पर खींच लाने की जो कबड्डी कुछ साल पहले शुरू हुई थी, वो अब छिछोरेपन पर उतर आई है। इंडियन आइडल का वह कथित बेसुरा जब मलिक से कहता है कि वे भी कभी मामूली आदमी थे तो लगा जैसे बाबा नागार्जुन, अज्ञेय और प्रेमचंद होते तो गदगद हो उठते।

खैर, उनके गदगद होने का तो मालूम नहीं लेकिन यह जरूर लगता है कि जिस सूचना और प्रसारण मंत्रालय को चैनलों की गुणवत्ता और दशा और दिशा पर गौर फरमाना चाहिए, उसका ध्यान अब भी शायद कहीं और है। चैनलों पर आम जन के हास और फिर परिहास के तबले बजने शुरू हो गए हैं और स्थिति यह है कि मंत्रालय का मौन व्रत टूटने का नाम ही नहीं ले रहा।

(यह लेख 5 सितंबर, 2010 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)

Sep 1, 2010

‘दो मिनट’ का मीडिया शिक्षण

इंटरनेट पर भारत के मीडिया संस्थानों की लिस्ट तलाश करने पर 18 लाख से ज्यादा नतीजे दिखाई देते हैं। इनमें सरकारी संस्थान कम और निजी ज्यादा दिखाई देते हैं। यह भीड़ कुछ ऐसी है कि लगता है जैसे पत्रकार बनाने वाली फैक्ट्रियों की भीड़ ही जमा हो गई हो। वहीं एमबीए इंस्टीट्यूट की तलाश करने पर 6 लाख के करीब नतीजे दिखते हैं।

कुल जमा मतलब ये कि मीडिया संस्थानों की पहुंच, पूछ और पहचान बढ़ रही है। इसी साल देश के सर्वोच्चतम माने जाने वाले मीडिया इंस्टीट्यूट भारतीय जन संचार संस्थान को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा दे दिया गया। 1965 में इंदिरा गांधी के स्थापित इस संस्थान ने साउथ एक्सटेंशन की एक छोटी सी इमारत से निकल कर अरूणा आसिफ अली मार्ग तक आने में एक लंबा सफर तय किया है और पत्रकार बनने के ख्वाहिश लिए हुए हजारों युवाओं को बड़ा पत्रकार बनाया है। 

इसी तरह दिल्ली के 5 कालेजों लेडी श्री राम, कमला नेहरू, अग्रसेन, दिल्ली कालेज फार आर्ट्स एंड कामर्स, कालिंदी कालेज में अंग्रेजी में पत्रकारिता को स्नातक स्तर पर पढ़ाया जा रहा है और हिंदी में 4 कालेजों अदिति महाविद्यालय, भीम राव अंबेडकर कालेज, राम लाल आनंद , गुरू नानक देव खालसा कालेज में पत्रकारिता के स्नातक स्तर की पढ़ाई हो रही है।

यानी दिल्ली में मीडिया के अध्ययन का भरपूर माहौल तैयार हो चुका है और सरकारी कोशिशें भी काफी हद तक संतोषजनक ही रही हैं। लेकिन इसके बावजूद दिल्ली में निजी संस्थानों भी एक के बाद एक खुलते गए हैं। दिल्ली से सटे एनसीआर रीजन में पत्रकारिता की कई दुकानें खुली हैं और मजे की बात यह है कि उनमें से ज्यादातर ने कहीं न कहीं दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्रकारिता के पाठ्यक्रम से ही बड़े सबक उठाए हैं। सरकारी कालेजों की तुलना में इनमें से कुछ भले ही दर्शनीय और आकर्षक ज्यादा हों लेकिन गुणवत्ता के मामले में ये अभी भी खुद को साबित नहीं कर पाए हैं।

दरअसल भारत में मीडिया शिक्षा मोटे तौर पर छ स्तरों पर होती है – सरकारी विश्वविद्यालयों या कालेजों में (जैसे दिल्ली यूनिवर्सिटी, पंजाब यूनिवर्सिटी), दूसरे, विश्वविद्यालयों से संबंद्ध संस्थानों (जगन्नाथ इंस्टीट्यूट वैगरह), तीसरे, भारत सरकार के स्वायत्तता प्राप्त संस्थानों (जैसे भारतीय जन संचार संस्थान) चौथे, पूरी तरह से प्राइवेट संस्थान, पांचवे डीम्ड विश्वविद्यालय(जैसे एमिटी) और छठे, किसी निजी चैनल या समाचार पत्र के खोले गए अपने मीडिया संस्थान। इनमें सबसे कम दावे सरकारी संस्थान करते हैं और दावों की रेस में जीतते हैं – निजी संस्थान। लेकिन विश्वसनीयता के मामले में बात एकदम उल्टी है। यहां यह बात भी गौरतलब है कि अब भारत में 125 डीम्ड विश्वविद्यालय खुल गए हैं। इनमें से 102 निजी स्वामित्व वाले संस्थान हैं। यहां भी शिक्षण संबंधी मूलभूत नियमों की अनदेखी की शिकायतें आती रही हैं। यही वजह है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय का कार्यभार संभालते ही कपिल सिब्बल ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा हासिल कर चुके सभी शिक्षण संस्थानों के कामकाज की समीक्षा के आदेश दे दिए। इसी तरह विश्वविद्यालयों का लेखा-जोखा लें तो पता चलता है कि इस समय अकेले दिल्ली में ही ज्यादातर कालेजों में पत्रकारिता पढाने वालों की सीटें खाली पड़ी हैं। शेक्सपीयर या सूरदास पढ़ानेवाले ही पत्रकारिता पढ़ाने को मजबूर हैं।

उधर निजी चैनलों के कुछ संस्थान पहले तो चयन ही ऐसे छात्रों का करते हैं जो उनके चैनल के लिए पूरी तरह से उपयुक्त दिखते हैं। इनमें ऊंची पहुंच वालों के योग्य बच्चों को तरजीह मिलती है। कुछ छात्र गधेनुमा वर्ग (यानी जो चौबीसों घंटे काम करने को बेशर्त तैयार रहते हैं) के भी होते हैं। इऩमें से कई संस्थान जो सर्टिफिकेट देते हैं, वह चैनल में तो चलता है लेकिन कहीं और नहीं। यहां किसी विश्वविद्यालय से संबंद्ध डिग्री देने का प्रावधान नहीं बन पाया है।

अब मसला यह भी है कि इन संस्थानों में पढ़ाता कौन है (क्या पढ़ाया जाता है, यह एक लंबा मसला है)। सरकारी संस्थानों में इस साल से यूजीसी के निर्देशों का पालन अनिवार्य कर दिया गया है यानी इन संस्थानों में अब वही शिक्षक नौकरी पा सकेंगें जो गुणवत्ता के स्तर पर कहीं भी कम नहीं होंगें क्योंकि नेट की परीक्षा को पार करना आसान नहीं। ऐसे में अक्सर गैस्ट फैकल्टी को बुलाने की कोशिश होती है। आप इस बात पर भी मुस्कुरा सकते हैं कि ज्यादातर सरकारी कालेजों में आज भी गैस्ट को 1 घंटे के लैक्चर के लिए 500 से 750 रूपए ही दिए जाते हैं। ऐसे में या तो लोग आते नहीं और अगर आ भी जाते हैं तो शिक्षण की अनुभवहीनता और अरूचि के चलते अपनी सफलता के किस्से सुनाकर चलते बनते हैं।

लेकिन निजी संस्थानों में अब भी नेट अनिवार्य नहीं दिखती। नतीजा यह होता है कि या तो उनके पास वही टीचर रह जाते हैं जिनका ज्ञान 1980 में अटका पड़ा है या फिर उन्हें वे मिलते हैं जो मीडिया में हैं तो लेकिन पढ़ाने की कला और ताजा ज्ञान से कोसों दूर हैं। ऐसे लोग क्लासों में आत्म-प्रशंसात्मक किस्सागोई तो कर लेते हैं लेकिन छात्र के ज्ञान को विस्तार नहीं दे पाते। नतीजा यह होता है कि अल्पविधि में चलने वाले कोर्स गुणवत्ता के मामले में सरक कर और भी नीचे पहुंच जाते हैं।

ऐसे में मीडिया शिक्षा सिर खुजलाती दिखती है। युवा पत्रकार बनना चाहते हैं, वह भी जल्दी में। यहां पत्रकारिता मैगी नूडल्स बनने के कगार पर पहंचने लगी है। यह बाद में पता चलता है कि जल्दी में जिस फसल को रातोंरात बड़ा किया गया था, वह सही कीटनाशकों के अभाव में कैसी पिलपिली निकली। अब सवाल यह उठता है कि क्या कुछ समय के लिए फोकस मीडिया के बढ़ते बाजार की बजाय योग्य शिक्षकों की खोज, उनकी ट्रेनिंग और सही पैकेज पर किया जा सकता है? वैसे मजे की बात यह भी है कि गूगल पर मीडिया टीचर्स की तलाश करने पर 9 करोड़ से ज्यादा एंट्री मिलती है।

(यह लेख 1 सितंबर, 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

Aug 29, 2010

पीपली के बहाने....

पीपली लाइव देखने जाना ही था। वजह फिल्म की चर्चा से कहीं ज्यादा यह थी कि महमूद और अनुषा के साथ मुझे एक लंबे समय तक एनडीटीवी में काम करने का अवसर मिला था। महमूद ने उन दिनों एक स्टोरी में पीटूसी करते हुए शेक्सपीयर के एक बहुत लंबे पद्य को जब मुंहजबानी बोल डाला था, तब मुझमें यह उत्कंठा जाग उठी थी कि यह अलग-सा शख्स है कौन। बाद में पता चला कि आक्सफोर्ड और कैंब्रिज में पढ़े महमूद के पास इतिहास की जानकारी का जैसे खजाना ही है और वह दास्तानगोई में माहिर है। उर्दू, अंग्रेजी और हिंदी तीनों भाषाओं में समान अधिकार वाला महमूद हमेशा हैरत में ही डालता था।

अनुषा की पहचान एक खुली सोच की थी। वह प्रोडक्शन में माहिर थी और हमेशा मुस्कुराती हुई मिलती थी। एनडीटीवी की कॉफी मशीन के पास जब वो दिखती, तब उसकी मुस्कुराह़ में सोच घुली हुई दिखती।

खैर, तो इस हफ्ते पीपली लाइव देखी। स्क्रीन में जो दिख रहा था, उससे ज्यादा मजेदार पीछे की सीटों पर घट रहा था। इलेक्ट्रानिक मीडिया का मजाक उड़ाते हर अंश पर पीछे की सीटों पर बैठे युवा खूब खुश होकर मजा लेते, चिल्लाते, हंसते, तालियां बजा कर देखते। उनकी प्रतिक्रिया से बहुत साफ था कि हो न हो, ये लोग मीडिया के ही हैं। खैर पीछे मुड़ कर देखा तो कई पहचाने चेहरे देखे। उनमें से कुछ युवा प्रोडक्शन वाले भी थे लेकिन मजे की बात यह कि वे सब स्क्रीन पर उभरते तमाशाई सच को देखकर भरपूर खुश थे।

फिल्म को देखते हुए, बकरी उठाए नत्था और उसके भाई बुधिया के चेहरे पर बेचारगी का जो भाव उभरता है, वह मीडिया के उस चेहरे को छील कर सामने लाता है जो आत्म केंद्रित, आत्म मुग्धा, आत्म प्रशंसक है। उसके कैमरे का लैंस अपने स्वार्थ से परे कुछ नहीं देखता। नत्था की पत्नी का एक आम भारतीय पत्नी की तरह गरियाना, नत्था का यह कहना कि भाई तुम ही कर लो आत्महत्या और बड़े भाई का छटपटाना कि जाने नत्था कब देगा अपनी जान फिल्म को असल जिंदगी से जोड़ता है। यह छोटा-सा कुनबा समाज के उस हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है जो जीता घिसट-घसट कर है और जिसके लिए मरना भी आसान नहीं।

लेकिन इस फिल्म का सबसे दमदार कैरेक्टर राकेश नामक पत्रकार इनमें कुछ अलग है। उसकी खबर की समझ दिल्ली वालों से ज्यादा है, उसकी छठी इंद्री ज्यादा विकसित है और वो तत्पर है लेकिन आखिर तक चाहने पर भी उसे बड़े चैनल में नौकरी तो नसीब नहीं होती, गुमनाम मौत जरूर मिल जाती है।  

फिल्म कहती चलती है लेकिन साथ ही साथ सवालों के काफिले भी छोड़ती जाती है। पहली ही फिल्म से महमूद और अनुषा का चर्चा में आना काबिलेतारीफ है लेकिन साथ ही यह बात बड़ी गुदगुदाती है कि जो मीडिया कभी अपनी सहनशक्ति खोने लगा था, वो अब बड़े परदे पर अपना बाजा बजता देख कर भी खुश हो रहा है।

असल में यह एक बहुत बड़े बदलाव का सुखद संकेत है। बहुत दिनों के बाद पीपली लाइव के बहाने ही सही, मीडिया के सामने एक बड़ा आईना रखने की हिम्मत की गई है।

लेकिन यह सफर यहां थमना नहीं चाहिए.....