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LANGUAGE AND PRINCIPLES OF ONLINE NEWS WRITING

Jun 12, 2011

ख़बर को मसालेदार बनाने की मजबूरी

एक समय की नामी अभिनेत्री दीप्ति नवल की आवाज टीवी पर बहुत दिनों बाद सुनाई दी, वो भी गुस्से और आक्रोश से भरी हुई। यह गुस्सा एकदम जायज भी था। बात हो रही थी गुजरे जमाने के अभिनेता राज किरण के बारे में जिन्हें हाल ही में अमरीका में खोज लिया गया। उनकी इस तलाश में अभिनेता ऋषि कपूर अरसे से लगे थे और अब जाकर उन्हें राज किरण को ढूंढने में सफलता मिली। वे इस समय अमरीका के एक मानसिक चिकित्सालय में हैं। सालों डिप्रेशन के शिकार होने के यह खबर बा आज हालात यहां तक आ पहुंचे हैं। यह खबर पूरी तरह से झकझोरने वाली थी। राज किरण की अभिनीत फिल्मों की फुटेज एक ऐसे सितारे दुखद कहानी कहती थी जिसे समय की आंधी ने हताशा में डुबो दिया। खबर ने शायद हर दर्शक को उद्वेलित किया होगा।

इस खबर के आने के बाद टीवी चैनलों ने उन तमाम सितारों से संपर्क करना शुरू किया जिन्होंने कभी राज किरण के साथ काम किया था। इसी कड़ी में दीप्ति नवल की बारी भी आई। उन्होंने राज किरण के साथ कई फिल्मों में अभिनय किया था।

तो फोनो लाइव इंडिया पर हो रहा था। एंकर थे सुधीर। दीप्ति से जब सवाल पूछा गया तो जवाब देने से पहले उन्होंने अपना गुस्सा इस बात पर जताया कि आज तक इस खबर को बेहद लापरवाही के साथ दिखा रहा है। वहां कहा जा रहा है कि राज किरण पागलखाने में हैं। दीप्ति नवल जाहिर तौर पर खबर को दिखाए जाने के अंदाज पर काफी आहत थीं। वे बार-बार कह रही थीं कि ऐसे मामलों को संजीदगी से रिपोर्ट करना चाहिए न कि गैर-जिम्मेदाराना तरीके से।

अब बारी सुधीर के सकपकाने की थी क्योंकि आलोचना सबसे तेज चैनल और साथ ही प्रतिद्वंदी चैनल की हो रही थी। यह शाब्दिक धुनाई अंदर से मजा भले ही दे रही हो लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर तो उस पर खुशी दिखाई जा नहीं सकती थी। यहां सुधीर यही कह कर रह गए कि उनका चैनल इस खबर को पूरी गंभीरता के साथ दिखाएगा भी और राज किरण के लिए कुछ करने की कोशिश भी करेगा। इससे ज्यादा कहना शायद संभव भी नहीं था।

लेकिन इतना जरूर है कि अगर राज किरण को लेकर बरसों पुरानी जमी धूल को अगर मीडिया ने साफ कर सामने रखा तो साथ ही यह भी सच है कि उसकी खबर को मसालेदार बनाने की भी पूरी कोशिश की गई।

दरअसल हर खबर एक अलग तरह का ट्रीटमेंट मांगती है लेकिन जब खबर खास तौर पर संवेदना के धरातल से उपज कर बाहर आती हो तो उस पर ज्यादा चौकन्ना होना भी जरूरी हो जाता है। टीवी वैसे भी एक सामाजिक-सांस्कृतिक फैक्टरी है। यहां न तो विशुद्ध मनोरंजन मिल सकता है, न खालिस खबर। यह दोनों का झालमेल है। न्यूज मीडिया इस गड़बड़झाले की मजेदार मिसाल है। दूसरी तरफ सरकार की बनाई तमाम संस्थाएं इन मामलों में मुंह में उंगली दबाए और कान पर रूई लगाए बैठी दिखती हैं। जिस प्रैस काउंसिल को इन मामलों में सक्रिय होना चाहिए, वह भी बेचारगी की स्थिति में दिखती है। 2009-10 में 950 और 2008-2009 में 726 शिकायतें पाने वाली प्रेस काउंसिल की तरफ से शायद ही कभी कोई बयान मुस्तैदी से आता है। मतलब यह नहीं कि काउंसिल को प्रेस के साथ किसी दुश्मन की भूमिका का निर्वाह करना चाहिए। मतलब सिर्फ यह है कि यह संबंध आपसी समझ को बढ़ाने और बेहतरी की तरफ जाने का भी तो हो सकता है।

इसके अलावा लगता यह भी है कि चैनलों को खुद अपने अंदर एक गंभीरता लाने के लिए खुद लामबंद होना शुरू कर देना चाहिए। धूल-मिट्टी फांक कर खबर लाता पत्रकार, डैस्क पर मजदूर की तरह घंटों गुजारता इनपुट या आटपुट एडिटर या फिर वीडियो एडिटिंग या कैमरा करके भी चैनल के हाशिए पर खुद को महसूस करता पत्रकार दूसरे की टीआरपी से सहम कर अक्सर ऐसी उछलकूद कर ही बैठता है। मामला सामंजस्य को बिठाने और कुछ मूलभूत लक्ष्मण रेखाओं को खींच देने का है। बस!

खैर, बाबा रामदेव की योग-राजनीति माया में व्यस्त मीडिया ने फिर भी किसी तरह से राज किरण के लिए समय निकाला। खबर के बहाने दर्शक का ध्यान मायानगरी के झूठे तिलस्मी समाज तक गया। बधाई। क्या इस कहानी को हम किसी अंजाम तक पहुंचते हुए देख पाएंगें या यह भी बाकी कई कहानियों की तरह बिना किसी फालो अप को कहीं दब जाएगी।

(यह लेख 9 जून, 2011 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

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