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LANGUAGE AND PRINCIPLES OF ONLINE NEWS WRITING

Sep 19, 2011

ब्रोकरिंग न्यूज़

दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनशल सेंटर में पिछले हफ्ते एक फिल्म दिखाई गई ब्रोकरिंग न्यूज। उमेश अग्रवाल की इस फिल्म को देखने के लिए पूरी हाल खचाखच भरा हुआ था और मजे की बात यह कि मीडिया की चिंदी-चिंदी करती इस फिल्म को देखने के लिए मौजूद लोगों में शायद तकरीबन सभी मीडियाकर्मी थे और बाकी थे मीडिया के कुछेक जिज्ञासु छात्र।
फिल्म पेड न्यूज से जूझती हुई आगे बढ़ती है। रूपर्टे मर्डोक के न्यूज ऑफ दी वल्ड प्रकरण से लेकर अशोक चव्हाण और बाद में राडिया तक तमाम तरह की पेड न्यूज को लेकर फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती जाती है, वहां मौजूद दर्शकों की प्रतिक्रिया भी एक नए तरह से खींचती है। यह दिल्ली की मीडिया साक्षर प्रबुद्ध जनता है। यह मीडिया को उस लैंस से देखने की आदी है जिस लैंस से सिर्फ वही देख सकते हैं, आम आदमी अब भी उससे काफी हद तक अछूता या शायद अबोध है। इसलिए बरखा दत्त या राजदीप सरदेसाई या प्रभु चावला के शॉट्स या बाइट्स आने पर यह दर्शक जोर की सीटी नहीं बजाता बल्कि एक तीखी हंसी हंसता है और यह इस फिल्म की दर्शनीयता को और भी अलग पुट देती है।
फिल्म में कुरूक्षेत्र के राकेश नाम के एक पत्रकार का जिक्र भी है जो कि पिछले चुनाव के दौरान हिंदी के एक प्रमुख अखबार का पत्रकार था। उनके पास तमाम सुबूत हैं कि कैसे उन सभी से मजबूरन पेड न्यूज करवाई जाती थी- बिना यह जिक्र छापे कि वो पूरी तरह से पेड है। नकारात्मक स्टोरीज को चुना जाता था और उन्हें नए सिरे से गढ़ कर और धारदार बनाया जाता था ताकि आहत लोग और भी पैसा दें। आखिरकार राकेश इस प्रकाशन समूह से इस्तीफा दे देते हैं और प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया से सारे मामले की पड़ताल की गुहार लगाते हैं।
फिल्म बिजनेस रिपोर्टिंग के दबे झूठों की परतें भी खोलती है। मलाईदार होती बिजनेस रिपोर्टिंग और जनता को पूरी तरह से गुमराह करती कहानियों की बात उस तबके के लिए नई नहीं जो रोज उससे रूबरू होता है।
खैर,मीडिया के मौजूदा बदरंग पड़ते चेहरे को उखाड़ कर जब फिल्म खत्म होती है तो उसका कथ्य बहुत देर तक हॉल में घूमता हुआ महसूस होता है। इस बात पर बहस करने का भी मन होता है कि क्या अब मीडिया में कंटेंट इज दी किंग की जगह विशुद्ध रूप से पैसे ने ले ली है। क्या 19 महीने की जिस इमरजेंसी की बात हम आज भी चिल्लाते हुए करते हैं, वह सिर्फ अतीत है या अब एक नए तरह के जाल की बुनाई हो चुकी है जो मीडिया के गले की घुटन बनने लगा है। क्या राजनीति, अपराध और बिजनेस की रिपोर्टिंग के आस-पास ही मीडिया का दायरा सिमट जाएगा। गांव, गली, कूचे, टूटी सड़कें, कच्ची चरमराती व्यवस्थाएं किसी और और कभी और के लिए रोक कर रख ली जाएंगीं। इन सबके बीच अब जो झूठ के लबादे के बीच छुप कर रिपोर्टिंग आ रही है, उसका भविष्य क्या है। इनमें इस बात पर भी एक आंदोलन सा छेड़ने का मन करता है कि अगर रिपोर्टिंग यही है तो फिर इसकी जरूरत है ही क्या और इसे पत्रकारिता क्यों और कैसे कहा जाए। देश की सरकारें हमेशा ही ऊंचा सुनती रही हैं लेकिन जब भी बात मीडिया की हुई है तो उसके कान दीवार के उस पार तक भी सुन पाए हैं। सरकारें जान गईं हैं कि मीडिया को कदमताल (और अब तो खैर उड़ान के लिए) रोज भरपूर पैसों की जरूरत होती ही है। तिजोरी की इस मजबूरी और सत्ता सुख से मिलने वाले अपार वैभव ने मीडिया मालिकों के पांव में सोने के पायल पहना दिए हैं। यह बात अलग है कि एक आम पत्रकार के हाथ में अब भी एक मामूली पेन और कांपती हुई कच्ची नौकरी ही है।
बहरहाल मजबूर होते पत्रकार और बेदम पड़ती पत्रकारिता पर बहुत दिनों बाद एक सार्थक बहस होती दिखी। यह जरूरत भी उभरती दिखी कि मीडिया की पिटी-पिटाई परिभाषा को अब नए सिरे से गढ़ा जाना ही चाहिए। यह कहना अब झूठ ही होगा कि किसी भी पत्रिका या समाचार की रीढ़ है उसमें परोसी जाने वाली सामग्री, फिर उसकी साज-सज्जा और आखिर में कुछ और। नए जमाने में नए सच पैदा हुए हैं। इस नए सच को उगलना भी मुश्किल है और निगलना भी।

2 comments:

PB Pariwar said...

अपेक्षित, एक गम्भीर विचार
इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में गंभीर चर्चा, फिर दिमाग में तनाव, और फिर इंटरनेट् पर क्षोभ और उल्झन उंडेल कर कुछ तो ठंडक पा सकता है कलेजा ।...??
कितनों तक पहुचती है ये आवाज
मिडिल क्लास जो कभी कभी मेल फार्वर्ड कर अपनी रिस्पोंसिबिलिटि पूरी कर देता है या फैशन या कौतुहल वश मजमे या न्यूज चैनलें देखता, बदलता रहता है।
परेशान मत होइये वर्तिका जी, ये गर्मा गरम टीवी बहस देखने वाले थोडे ही हैं और अधिकांश न......। हमारी अन्नदाता काम करने वाली बाई, गरीब किसान, कुली, सारे तथाकथित गरीब , नंगे, मूर्ख, बदबूदार, गंदे, ... जो जैसे हैं वैसे हैं.., सच्चे...85% लोग| वो जानते भी नहीं इन कागजी शेरों को । सो करते रहें ये जो करना है।
इमानदारी से कहूँ, रोज परेशान होता रहता हूँ मैं भी । काश बेकार ही परेशान होने की अपनी आदत बदल सकूँ। बैठ सकूं अपने इन भाइयों के पास, उनकी ही तरह, रो सकूं, हँस सकूं, बोल सकूं, तोड कर बाहर निकल सकूँ इस मद्यम वर्गीय इंटर्नेट दुनिया से .. जो सोने भी नहीं देती रोने भी नहीं देती हँसने भी नही देती, खुलकर,
साधुवाद और शुभकामनाऐं
आशीष भटनागर

harmeet said...

vartika cheezan nu theek sandarbh ch rakh vekhan di tenu jaach hai........bahut khoob......
practical ...........well teri samajh shayed sb ton vadh khushi meinu hundi hai