Sep 22, 2020

प्रिंस से रिया तक मीडिया से एक तिनका उम्मीद


 

प्रिंस से रिया तक मीडिया से एक तिनका उम्मीद

डॉ. वर्तिका नन्दा

1994 से लेकर अब तक अपराध पत्रकारिता से ताल्लुक रहा। 1994 में जब जी टीवी  की शुरुत हुई, यही वह समय था जब सुशील शर्मा का तंदूर कांड हुआ। सुशील शर्मा कई दिनों तक फरार रहा। आखिरकार वह पुलिस की गिरफ्त में आया और तिहाड़ में आजीवन कारावास पर रहने के बाद हाल में रिहा हुआ। अपराध की रिपोर्टिंग के असर की यह पहली मिसाल थी जिसकी मैं साक्षी बनी। जे 27 साउथ एक्स पार्ट 1, नई दिल्ली के रिहाइशी इलाके में बने फ्लैटनुमा दफ्तर में इस खबर के पहले प्रसारण के बाद सुशील शर्मा के पकड़े जाने तक दफ्तर में फोन की कई घंटियां बजीं। दर्शक चाहते थे कि अपनी पत्नी नैना को गोली मार कर टुकड़ों में काट कर तंदूर में डाल कर जला देने वाले सुशील को कड़ी सजा जरूर मिले। मिली भी।

बाद में एनडीटीवी के क्राइम बीट की प्रमुख के तौर पर अपराध के अलग- अलग रंगों को करीब से देखा। फिर उसके बाद तिनका तिनका की शुरुआत हुई जिसके जरिए जेल की जिंदगी से अपराध को समझने की कोशिश की।  इस लिहाज से अपराध की कई परतों को पत्रकार और अकादमिक के तौर पर नजदीकी से देखा और महसूस किया। पुलिस की तफ्तीश और जेल सुधार के तौर पर जेल के अंदर किस तरह से अपराधी या फिर आरोपी एक दूसरी यात्रा तरह करते हैं, उसे देखा। 

इस बीच टीवी रिपोर्टिंग को भी गौर से समझने की कोशिश की। हाल में रिया और कंगना की रिपोर्टिंग ने इस बात पर ध्यान दिलाया कि शायद अब इस मुद्दे पर लिखना ज़रूरी है और इसलिए यह आलेख

बात टीवी की उस खबर से शुरू करनी चाहिए जहां एक टेलीविजन चैनल ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी के साथ यह बताता है कि रिया जेल में आने के बाद 11 बजे तक चहलकदमी करती रही और 2:30 बजे तक बिस्तर पर बैठी रही। उसे दाल, रोटी और एक सब्जी दी गई। सुबह उसने मुंह धोया और फिर वो अपने बिस्तर पर बैठ गई। टीवी चैनलों ने यह भी बताया कि रिया के बैरक में पंखा नहीं है, एक चटाई है, सराहना नहीं है वगैरह तो लगा जैसे यह सब किसी जेल में पहली बार होने जा रहा हो जिन्होंने जेल को कभी नहीं देखा, उनके लिए य बात एक खबर हो सकती है और इसलिए भी कि ऐसी बताई बातों की पुष्टि करने वाला कभी कोई नहीं होता

अपराध पत्रकारिता की रिपोर्टिंग में इसे पत्रकारिता तो नहीं कहा जा सकता है। रिया के मामले से पहले भी और अब भी दर्शकों को अक्सर जो परोसा जाता है, वह रिपोर्टिंग कम और मनोहर कहानियों का टीवी संस्करण ज्यादा दिखता है। यह कहानी भी उसी की एक कड़ी है।

एक ज़रूरी बात यह है कि जेल की कहानियां बताते समय कल्पनाओं का सहारा लेना भारतीय टीवी पत्रकारों की एक पुरानी आदत रही है। वे इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि जेलें आमतौर पर सामने आकर न तो ऐसी बेतुकी कहानियों पर कोई हामी भरेंगी और ही इनकार करेंगी क्योंकि जेलों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि पत्रकार जेल के बाहर क्या कह रहा है। जेल अधिकारी बखूबी जानते हैं कि जिन पत्रकारों ने जेल को कभी देखा तक नहीं, उनके पास कल्पना ही इकलौता सहारा है औऱ दर्शकों के पास अधकचरी खबर देने वाले पत्रकारों का सहारा। दूसरी बात यह भी है कि कुछ बातें स्वाभाविक हैं जिन्हें लिखने या बोलने का कोई औचित्य है ही नहीं। जो जेल में गया है, उसे स्वाभाविक तौर पर शुरुती दिनों में नींद नहीं आएगी, वह खाना नहीं खाएगा और बेचैन रहेगा। इसमें ब्रेकिंग न्यूज जैसी कोई बात है ही नहीं।

इसलिए रिया का भी जेल में रात में चहलकदमी करना या 2:30 बजे तक बैठे रहना कोई बड़ी बात नहीं है। इसका खंडन करने कोई सामने आएगा नहीं और इसलिए इस तरह की खबर को बार-बार बताते रहने से टीवी चैनल का फायदा यह होता है कि वो उत्सुक जनता को कुछ ऐसा सौंपने में कामयाब होता है जो उसके लिए रोचक या दिलचस्प हो सकता है, यह समझे बिना कि टीवी न्यूज मनोरंजन की श्रेणी में जरूर आने लगा है लेकिन जेलें मनोरंजन का सामान कतई नहीं हैं। जेल एक गंभीर जगह है और उसकी अपनी अंतहीन पेचीदगियां हैं। उन पर हंसा नहीं जा सकता।

अपराध  रिपोर्टिंग की अपनी एक प़ृष्ठभूमि के बाद यह बात कह सकती हूं कि अपराध की रिपोर्टिंग के जिस नये चहरे को अब देख रही हूं, उसे अपराध पत्रकारिता मानना असान नही लगता दूसरी छवि उस पोस्टमैन की है जो कंगना के घर पर डाक लेक आया था । वो बार-बार जोर देकर कह रहा था कि वह महज़ एक पोस्टमैन है। उसका इस दफ्तर को तोड़ने से कोई ताल्लुक नहीं है ,लेकिन पत्रकार अपने रटे-रटाये सवाल को पूछ- पूछ कर शोर मचाते रहे और उस शोर के ज़रिए पत्रकारिता की छवियों का मज़ाक उठाते रहे

अंदाजे की यह पत्रकारिता को ऐसे मौके किसी अवसर से कम नहीं लगते अब सवाल य उठता है कि क्या पत्रकारिता की य स्थिति अचानक आई है। ऐसा नहीं है। प्रिंस के गढ़्ढे में गिरने से लेकर 2007 में स्कूल टीचर उमा खुराना पर हुए गलत स्टिंग तक मीडिया ने कई बार अपनी ताकत का नाजायज फायदा उठाया है और फिर न तो पलट कर देखा और न ही कभी माफी मांगी। बाद में भी कई प्रिंस गढ्ढे में गिरते रहे और उमा खुराना अपने पर हुए उस मानसिक और शारीरिक हमले से आज भी उबर नहीं पाई हैं। मीडिया ने इस बात की परवाह नहीं की कि एक गलत खबर कैसे किसी परिवार की आने वाले कई नस्लों को तबाह कर सकती है। परवाह टीआरपी की हुई और उसके जरिए बरसने वाले रुपए की। लेकिन ज्यादातर लोग कसमें खाते हैं कि वे इन चैनलोकं को देखते ही नहीं। और अगर इस पत्रकारिता को लोग नकारते है तो फिर इन चैनलों को देखता कोंन है। जाहिर है कि या तो इन्हें देखने वाले झू कहते हैं या फिर टीआरपी जारी करने वाले या शायद यह कि झू बराबरी का है और सच कहीं बीच में सर पर हाथ रखे खड़ा हुआ है।

सुशांत मामले का सच जब सामने आएगा, तब आएगा लेकिन यह बात तो है कि अब तक परोसी गई सभी थियोरीज तो सच साबित होंगी नहीं। कुछ अधूरा और कुछ गलत भी साबित होगा। तब रिया और कंगना- दोनों में से ही जिसके साथ भी सच होगा, दूसरे की इज्जत के साथ जो खिलवाड़ हुआ, उसका खामियाजा कौन भरेगा। जल्दबाजी में की जाने वाली खऱगोशी अपराध रिपोर्टिंग का सबसे कड़वा सच यही है कि न्यूज रूम की अवैध अदालतें खुद ही जज बनती हैं लेकिन जब उनके फैसले गलत साबित होते हैं तो न तो उन्हें कोई सजा होती है, न कोई धारा लगती है। इस पूरे तमाशे में ताली पीटती जनता और आंखे मूंदे बैठी एनबीए की स्थिति देखकर यह समझना मुश्किल लगता है कि मीडिया के पाठ्यक्रम में अब किस पत्रकारिता को पढ़ाया जाए-वह जो बिकती है या वह जो टिकती है। पढ़ने वाले बिकने वाली पत्रकारिता पढ़ने को आतुर होने लगे है और इंडस्ट्री भी वैसा ही अधपका पैकेज पाने को। मीडिया की पढ़ाई और न्यूजरूम के इस फासले के बीच पत्रकारिता की एक धुंधली रेखा कहीं मौजूद है। बस, उसे ढूंढना टेढ़ी खीर है।


( डॉ. वर्तिका नन्दा मीडिया विश्लेषक और जेल सुधारक हैं। देश की जेलों पर तिनका तिनका की संस्थापक। उन्हें देश के राष्ट्रपति से स्त्री शक्ति सम्मान मिला है। )

(19 सितंबर को राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में प्रकाशित )

email: tinkatinkaorg@gmail.com

1 comment:

Ananya said...

It is devastating to see how the media is exploiting the death of a man. Instead of having talks and discussions around mental health, a media trial for a woman is going on ridiculous grounds. I hope the media shows sensitivity and guidelines are made so that people are not persecuted by media on unfounded grounds. #media #vartikananda #mediatrial