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LANGUAGE AND PRINCIPLES OF ONLINE NEWS WRITING

May 26, 2008

टीवी की दुनिया सिर्फ़ दिलक़श चेहरा ही नहीं मांगती

मनोरंजन परोसते तमाम न्‍यूज चैनलों में ख़बर सबसे पहले और सबसे तेज देने का दबाव रहता है, यह सभी जानते हैं लेकिन इस दबाव से परे एक और दबाव जोरों से काम करता है और वह है उसका दमदार मेकओवर। टीवी चैनलों की दुनिया दरअसल जिस तरह ख़बरों को चुनने-बीनने, सबसे पहले, सबसे आगे दिखने और विज्ञापन बटोरने के संघर्ष में लीन रहती है, वहीं रंग और प्रस्तुतीकरण भी बाजार में टिकाये रखने की एक बड़ी शर्त तो हैं ही।

जरा गौर कीजिए। आज की तारीख़ में ऐसा कोई भी चैनल नहीं है, जिसमें रंगों का चयन सावधानी से न किया गया हो- दोनों ही तरह के रंग- वे चाहे भावनाओं के हों या फिर बिखरे हुए प्राकृतिक या रचे हुए रंग। चाहा शायद सबने था लेकिन सोचा किसी ने नहीं था कि 10 साल के अंदर ही इतने अद्-भुत प्रयोग होंगे कि रंग मीडिया और खास तौर से न्‍यूज मीडिया पर अपनी पकड़ और मौजूदगी को इस जबरदस्त तरीके से मजबूत बना लेंगे। मीडिया रंगों के लिए अब किसी होली का मोहताज नहीं। वह समझ गया है कि बाजार में टिके रहना है तो रंगों को बांहें फैला कर अपनाना होगा, क्‍योंकि होली भी यहां है और दीवाली भी। बस, ज़रूरत है उन्‍हें हकीकत का अमली जामा पहनाने की।

दरअसल टीवी की दुनिया सिर्फ़ एक दिलक़श चेहरा ही नहीं मांगती, वह मांगती है तल्लीनता, तस्वीरें, तकनीक और बहुत से रंग। लाइट, कैमरा, एक्‍शन की दुनिया के साथ जैसे-जैसे क़रीबी बढ़ी, रंगों की समझ भी कई करवटें लेती गयी। न्‍यूज की भागमभाग के बीच हर मंजा हुआ पत्रकार/कैमरामैन रंगों के तालमेल के घोल को पी कर रखता है। रंग क‍हीं न छूटें, कोशिश रहती है। इंटरव्यू रिकॉर्ड हो तो बैकग्राउंड भरा-भरा लगे। लाइटें इस तरह से लगायी जाएं कि लगे कि स्टूडियो अभी-अभी रोशनी और रंगों से नहाया है। आउटडोर हो तो पेड़-पौधे, रंगीन छवियां दिखें, इनडोर हो तो भी स्टूडियो या फिर कमरा जीवंत दिखे, उसमें रंग छिटके हों, चाहे कुर्सी हो या टेबल या फिर टेबल पर पड़े गिलास-सब में कुछ अलग रंगीनियत हो, रिपोर्टर टीवी पर दिखे तो जरा सा चमके। एंकर परदे पर आये, तो उसकी झुर्रियां खुद उसे भी न दिखें। पत्रकारिता की समझ और सीरत के अलावा अब दर्शक को कोई चीज खास तौर से भा सकती है, तो वह भी होता है रंग और ताज़गी ही। यह उत्‍सवी महक टेलीविजन की नयी ज़रूरत बन गयी है।

इतना ही नहीं, आम इंसान टेलीविजन स्टूडियो में लगे सेट से लेकर चैनल से माइके के रंग तक से चैनल के स्‍वभाव का अंदाजा लगाता है। चैनलों पर चल रही सूचनाओं की रंगीन पट्टी हो या फिर बड़ा सेट- रंगों का चयन इस बारीकी से किया जाता है कि सबका दर्शक पर कुछ अलग ही प्रभाव दिखे। न्‍यूज मीडिया में रंगों और रोशनी से लबालब स्टूडियो इससे पहले कभी नहीं देखे गये। सनसनीनुमा कार्यक्रमों में अगर आमतौर पर लाल रंग हावी दिखता है तो युवा मन को खींचते खबरी कार्यक्रमों में कई बार कुछ नीला या नारंगी-सा।

लेकिन मजे की बात यह भी कि टीवी की दुनिया में हर रंग मान्‍य नहीं है। कुछ रंग ऐसे हैं जिनके इस्तेमाल से परहेज किया जाता है। जैसे कि एकदम सफ़ेद या एकदम काला। दोनों ही रंग कैमरे की आंख से आकर्षण पैदा नहीं करते। यही वजह है कि टीवी में रंगों का चुनाव अक्‍सर बहुत सोच-विचार कर किया जाता है। यहां तक कि एकता कपूर ब्रिगेड भी अपने तमाम नाटकों में रंगों के तालमेल का ध्‍यान रखती है। यहां पर्दे से लेकर तकिए के गिलाफ़ के रंग का चुनाव तक बड़ी तल्लीनता से किया जाता है। यही वजह है कि कई बार एक सेट की क़ीमत ही लाखों का आंकड़ा कर जाती है। यही हाल विज्ञापनों का है। महज 10-15 सेकेंड में अपने सामान की गुहार लगाने वाले विज्ञापनदाता कोशिश करते हैं कि कम शब्‍दों में स्क्रीन पर ऐसा जादू दिखा दिया जाए कि दर्शक उसे ख़रीदने को उतावला हो उठे। यही वजह है कि एक-एक शॉट पर महीन सोच का निवेश होता है और फिर स्टोरी बोर्ड पर अमल किया जाता है।

मीडिया ने रंगों को आत्‍मसात कर लिया है। टीवी चैनलों में जाने वाले भी इस शोध को करके जाते हैं। वे जानते हैं कि एनडीटीवी में होने वाली स्टूडियो रिकॉर्डिंग के लिए कौन-सा रंग नहीं पहनना चाहिए और स्टार न्‍यूज के लिए कौन सा। यहां तक कि कई सितारों के सहायक भी सितारे को वहां ले जाने से पहले गेस्ट डेस्‍क से रंग के बारे में पड़ताल कर लेते हैं ताकि टीवी पर सब कुछ पूरे तालमेल में दिखे। कई सितारे ऐसे भी हैं, जो अपनी कार में अतिरिक्‍त कपड़े लटकाए रहते हैं ताकि चैनल की ज़रूरत के मुताबिक कपड़े तुरंत बदले जा सकें। चुनावी दिनों या फिर कुछ और ख़ास अवसरों पर जो नेता हर पल एक-दूसरे चैनलों में फुदकते रहते हैं, वे भी ऐसी तैयारी बखूबी किये रहते हैं, लेकिन यह तस्वीर का एक पहलू है।

टीवी मीडिया 20 प्रतिशत की वार्षिक दर से हिलोरें भर रहा है। हिंदुस्तान में इस समय जितने चैनलों की भरमार है, उतनी पूरी दुनिया में कहीं नहीं। इस लिहाज से टेलीविजन कुछ नया करने की प्रयोगशाला बन चला है। लेकिन परेशानी तब होती है, जब किसी एक रंग में बेवजह दूसरे रंग घोल दिये जाते हैं। वाकई दर्द होता है जब दंगे की कवरेज को और सुर्ख कर दिया जाता है ताकि वो और बिके, आंसुओं को और मटमैला कर दिया जाता है ताकि दर्शक बस किसी एक चैनल को बंध कर देखता रहे। जब शरीर के गेहुंए रंग को कपड़ों की परत से हटाकर जरा और पारदर्शी कर दिया जाता है ताकि टीवी मसाला आइटम भी बने। तब लगता है कि रंगों के चयन में हम जरा चूक गये। अच्‍छा हो कि जिंदगी के कैनवास को मदहोशी से भरने की कूव्वत रखने वाले रंगों के साथ व्यापारी राजनीति न हो। वैसे भी रंग और बेरंग के बीच का फ़ासला पार होने में ज़्यादा देर नहीं लगती।

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