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LANGUAGE AND PRINCIPLES OF ONLINE NEWS WRITING

Jun 10, 2008

एक मामूली औरत

आंखों के छोर से
पता भी नहीं चलता
कब आंसू टपक आता है और तुम कहते हो
मैं सपने देखूं।

तुम देख आए तारे ज़मी पे
तो तुम्हें लगा कि सपने
यूं ही संगीत की थिरकनों के साथ उग आते हैं।

नहीं, ऐसे नहीं उगते सपने।

मैं औरत हूं
अकेली हूं
पत्रकार हूं।

मैं दुनिया भर के सामने फौलादी हो सकती हूं
पर अपने कमरे के शीशे के सामने
मेरा जो सच है,
वह सिर्फ मुझे ही दिखता है
और उसी सच में, सच कहूं,
सपने कहीं नहीं होते।

तुमसे बरसों मैनें यही मांगा था
मुझे औरत बनाना, आंसू नहीं
तब मैं कहां जानती थी
दोनों एक ही हैं।

बस, अब मुझे मत कहो
कि मैं देखूं सपने
मैं अकेली ही ठीक हूं
अधूरी, हवा सी भटकती।

पर तुम यह सब नहीं समझोगे
समझ भी नहीं सकते
क्योंकि तुम औरत नहीं हो
तुमने औरत के गर्म आंसू की छलक
अपनी हथेली पर रखी ही कहां?

अब रहने दो
रहने दो कुछ भी कहना
बस मुझे खुद में छलकने दो
और अधूरा ही रहने दो।

5 comments:

कुश said...

औरत मामूली नही होती..

Puja Upadhyay said...

i was in adpr when you taught at iimc, it is great to see your blog. aur ye kavita bahut acchi lagi, laga nahin tha ki aap itni acchi kavita bhi karti hongi.
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regards
puja upadhyay

सुशील छौक्कर said...

तुमसे बरसो मैने यही माँगा था
मुझे औरत बनाना, आंसू नहीं
वाह कितना सुन्दर लिखा।

Anonymous said...

vartika
i read your blog
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Udan Tashtari said...

बड़े गहरे भाव हैं...