वो 21 दिन: कोरोना, जिंदगी और कुछ प्रार्थनाएं
कोरोना वायरस ने जो किया है, वह दुनिया में किसी ने कभी सोचा तक न था।
सन्नाटा। सब कुछ रुका हुआ। सड़कों पर गाड़ियां नहीं, आसमान पर जहाज नहीं। पास से गुजरते लोग नहीं। एक घर है। उसमें जो हैं, बस, फिलहाल वही संसार है। बाहर जा नहीं सकते। बाहर से अंदर कुछ ला नहीं सकते। 21 दिन का समय। तब तक समय ठहरा रहेगा। कोरोना वायरस ने जो किया है, वह दुनिया में किसी ने कभी सोचा तक न था। अपनी और समाज की सलामती चाहने वालों को अब 21 दिन इस यज्ञ का हिस्स बनना है।
पंजाब का समय याद आ गया। आंतकवाद के दिनों में कर्फ्यू का लगना जिदंगी का हिस्सा बन गया था। सड़कें वीरान हो जातीं और घरों में डर पसरा रहता। मीडिया के नाम पर उन दिनों महज दूरदर्शन था जो शाम सात बजे पंजाबी में और रात 9 बजे राष्ट्रीय समाचार देता। खबरें छन कर आतीं। जितनी आतीं, उतने में संतोष किया जाता, यह जानकर भी कि स्थितियां बहुत अच्छी नहीं हैं।
कोरोना ने उस कर्फ्यू की भयावहता को जिंदा कर दिया है। लेकिन कोरोना एक दूसरी तरह की भयावहता है। एकदम अविस्मरणीय। अविश्वसनीय। पिछले कई दिनों से कोरोना को लेकर अखबारें और मीडिया सना है। दुनिया में पहला ऐसा मौका है जब दुनिया के कई बड़े देश एकसाथ थम गए हैं।
कोराना आया है तो जाएगा भी। लेकिन यह कोरोना सिर्फ एक वायरस नहीं है। यह चेतावनी है। यह स्मरण है। पहले प्रदूषण और फिर अब इस खतरनाक तरीके से कोरोना के भय के बीच प्रकृति ने बहुत कुछ जतलाने की कोशिश की है। तिनके की तरह। कोरोना का वायरस दिखता नहीं। वह रहता है। कहीं हवा में, कहीं स्पर्श में। यह जतलाते हुए कि जो नहीं दिखता, उसकी भी एक ताकत होती है। कई बार दिखने वाले से कहीं ज्यादा। अब तक तो रुतबे वाले तकनीक को शहंशाह समझते रहे। जमीन और आसमान उन दुखों के साक्षी बनते रहे। सच की चाबी कहीं और थी। तलाश कहीं और हुई। झूठ और प्रचार की इतनी गठरियां भरीं कि अंतरिक्ष भी सहम गया।
कोरोना के आते ही सोशल मीडिया में कोरोना को लेकर पोस्ट्स का बहाव आ गया। प्रकृति के संदेश को बहुत से लोगों ने अब तक समझा ही नहीं है। प्रकृति शायद कम कहने, कम दिखने, जरूरतों सीमित करने, यात्राएं सीमित करने और भीड़ का हिस्सा बन प्रचार और आर्थिक भूख से खुद को रोकने की बात कह रही है। यह 21 दिन देश के लिए भारी हैं। यह संकट का समय है, मजाक का नहीं। ऐसे मजाक का तो कतई नहीं जिसमें समय काटने के लिए लोग अंताक्षरी खेलने का दावा करने लगें। घर के कई हिस्सों में बरसों से जाले थे। यह जाले ख्वाहिशों और बेइंतहा खरीदे सामानों के भी हैं। यह जाले घर के कालीन के नीचे रख दिए गए उन मसलों पर भी लग गए थे जिन पर बात करने का समय नहीं था। ऐसे 21 दिन पहले कभी नहीं आए। संकट ने इन 21 दिनों को उस इम्तहान के तौर पर दिया है जिसके नंबर हमें खुद देने हैं।
किसी दूसरे के हिस्से के सुखों को बटोर कर रखने वाले कई बार यह जान नहीं पाते कि कायनात में कई आहें भी होती हैं जो अपने तरीके से लौटती हैं। क्यों न इन 21 दिनों में अब तक की जिंदगी का लेखा-जोखा ले लिया जाए। अब समय खुद से मिलने का है। समय के पास आहों का वजन है। वजन कैसे पिघले। इसलिए आइए पहले भूल-चूक के बहीखाते को ठीक कर दिया जाए और फिर आसमान की तरफ कुछ प्रार्थनाएं उछाल दी जाएं।
(डॉ. वर्तिका नन्दा देश की स्थापित जेल सुधारक हैं। तिनका तिनका देश की जेल के लिए उनकी एक मुहिम है। देश की जेलों की अमानवीय परिस्थितियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई का हिस्सा भी बन चुकी हैं। )
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Courtesy:
https://www.amarujala.com/columns/blog/coronavirus-21-days-lockdown-in-india-and-society?pageId=1
1 comment:
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