अपराधी पकड़ में आए कि नहीं। आए तो जेल कब जाएंगे। जेल गए तो सजा कब होगी। सजा हुई तो फांसी कब होगी। बैरक कौन-सी है। क्या वीआईपी इंतजाम मिल रहा है। उनको कैसा लग रहा है वगैरह वगैरह।
2012 में निर्भया के बलात्कार और उसकी मौत के बाद से फांसी चर्चा में रही है। पांच आरोपियों में से एक आरोपी की आत्महत्या से जहां तिहाड़ पर आरोपों का बोझ आया,
वहीं बाकी बचे
4 आरोपियों की सुरक्षा को लेकर चर्चाओं का बाजार गरम रहा। नाबालिग आरोपी पहले छूट गया और जो बचे,
उनकी फांसी खबर के केंद्र में रहीं। जेल और फांसी पर कहानियां गढ़ी जाने लगीं। उनकी पुष्टि के साधन कम थे। इसलिए जो परोसा गया,
वो माना भी जाने लगा। पर असल चिंता इस बात पर कम हुई कि क्या फांसी सभी समस्याओं का अंतिम जवाब है और क्या हम अपनी कानूनी और सामाजिक व्यवस्था को दुरुस्त कर पाए हैं। फांसी की गंभीरता सरस गाथाओं के जाल में उलझी दिखने लगी।
मैंने तीन फांसी घर देखे हैं। किसी भी जेल में,
जहां भी फांसी घर मौजूद हैं,
आमतौर पर बंदी वहां नहीं जा सकता। फांसी एक नियमित घटना न होने के बावजूद इनका रख-रखाव होता है और वे उस समय की याद दिलाते हैं जब इनका इस्तेमाल होता था। तकरीबन सभी जेलों ने फांसी घरों के वजूद बचा कर रखा है और बंदी इस बात से अक्सर सहमते भी हैं कि उनकी जेल में एक फांसी घर है।
हर जेल में बंदियों की कुछ श्रेणियां तय हैं। विचाराधीन कैदी या फिर सज़ायाफ्ता कैदी। कुछ जेलें केवल पुरुष बंदियों की हैं और कुछ में महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं। इनमें ट्रांसजेंडर रखे जाने का भी प्रावधान है। इन सबके अलावा जेल का स्टाफ भी है जो जेल के संचालन की देख-रेख करता है। इन सभी श्रेणियों में सभी लोग मिलकर जिस जेल को बनाते हैं,
उसमें सभी अपनी-अपनी तरह से सजा को भुगतते हैं। ऐसे में जेल भेजा जाना अपने आप के एक सजा है जिसकी गिनती करना हम भूल जाते हैं।
असल में पॉपुलर कल्चर के जमाने में जिस जेल को दिखाया गया,
वो फिल्मों और टेलीविजन न्यूज के जरिए लोगों तक पहुंचीं और दोनों की अपनी सीमाएं रहीं। सिनेमा ने या तो जेल के एकदम विद्रूप पक्ष को दिखाया या फिर भ्रष्टाचारी पक्ष को और खबरों ने जेल के उस पक्ष को दिखाया जो सुर्खियां बटोर सकता था लेकिन जेल असल में क्या है,
इसे समझने,
दिखाने और बताने की फुरसत और तसल्ली कम लोगों के पास रही। हम जेल को पर्यटन या आरामगाह जैसा कुछ मानने लगे हैं क्योंकि हमें यही दिखाया गया है लेकिन जेल कड़वी सच्चाइयों का भंडार है। यह बात आमतौर पर वे लोग नहीं समझ पाते जिन्होंने जेल को महसूस न किया हो।
खबरों की दुनिया ने जेल को रोचक,रसीला और बिकाऊ बनाने की कोशिश की ताकि पॉपुलर कल्चर उसे हाथों हाथ ले। जेल जाए बिना जेल को रंगों से भर दिया और जेल के बारे में वे लोग ज़्यादा बातें करने लगे जो कभी जेल गए ही नहीं। कभी उनसे पूछिए जिन्होंने जेल में कुछ घंटे गुजरे हों। वो बताएंगे कि दिखाई गई और भोगी जेल के बीच कितना बड़ा फर्क होता है।
न्यायपालिका अब जेल को अपराधी के सुधार गृह के तौर पर तो मानने लगी है लेकिन उसे आश्रम के तौर पर पूरी तरह से स्थापित करने में ज़ल्दबाज़ी देखी नहीं गई है। जस्टिस मदन बी लोकुर ने जेलों में अमानवीय परस्थितियों को लेकर सुनवाई का दौर चलाया,
तब भी बड़ी तादाद में जेलों ने ज्यादातर सवालों पर जवाब देना भी उचित नहीं समझा।
इस सारी बहस में यब बात छूट गई कि जिन लोगों को फांसी होनी है,
अब उनकी मानसिक स्थिति क्या है। वे अब क्या सोचते हैं। क्या पश्चाताप का कोई भाव है। परिवार से मुलाकात के समय यह लोग अपनी किस चिंता को साझा करते हैं। क्या जाते-
जाते उनके पास ऐसा कोई सबक है जो समाज को लेना चाहिए।
ऐसा लगता है जैसे फांसी की खबर विज्ञापन लाने का काम तो कर रही है और सनसनीखेज भी बना रही है लेकिन फांसी की गंभीरता हांफ गई है। फांसी देने वाला जल्लाद पवन मेरठ से आकर कहां रुका?
जेल के किस फ्लैट के किस कमरे में उसे रखा जायगा?
वो फांसी देने को लेकर कितना बेसब्र है और उसे कैसे फांसी देने के लिए एक लाख रुपए मिलेंगे। वह खबरनवीसों का चहेता बन गया। लगने लगा कि जैसे फांसी ना होकर मीडिया का कोई इवेंट होने वाला हो जिसका लाइव टेलीकास्ट देखने के लिए पूरी दुनिया बेचैन है और जैसे ऐसे लाइव टेलीकास्ट भारत जैसे देश में होते ही रहने चाहिए ताकि खबर का बाजार बना रहे।
भारत में फांसी रोजमर्रा की घटना नहीं है। फांसी की चर्चा को हमने जितना उथला बनाया,
मसला उससे ज्यादा गहरा है क्योंकि फांसी का मतलब सिर्फ एक जान का जाना नहीं है। उसके साथ कई सारी जानों का हमेशा के लिए किसी शून्य में चले जाना भी है। फांसी के फंदे पर एक जान के जाने के साथ ही कई उम्मीदें,
कई रोशनियां और आने वाले जीवन के कई सपने खत्म हो जाएंगे। मीडिया ने फांसी की रिपोर्टिंग करते हुए एक बार होने वाली फांसी को बार-बार फांसी दी,
यह विचारे बिना कि फांसी की रिपोर्टिंग संवेदनशील होनी चाहिए ताकि फांसी मजाक न बने।
फांसी के फंदे पर किसी की जान को लेना एक बड़ी प्रक्रिया का हिस्सा है और एक ऐतिहासिक घटना भी जिसे सबक की तरह देखे जाने में ही समझदारी है। वैसे भी फांसी के होने से हम इस अपराध बोध से मुक्त नहीं हो सकते कि जेल या फांसी की सजा पाने के हकदार कई अपराधी अब भी इसी समाज का हिस्सा हैं और गिरफ्त से परे हैं। एक फांसी पूरे समाज के अपराध-मुक्त हो जाने का गारंटी कार्ड हमें नहीं सौंपेगी। काश,
टीवी न्यूजरूम फांसी की रिपोर्टिंग को लेकर ज्यादा सजग और कम वाचाल हो सकें।
7 comments:
Whether a person deserves to be hanged or not is a question that has been a topic of debate for the past few years. There are people who might have committed terrible crimes but keeping these people in mind we can say that everyone should be hanged. There are cases where innocent people are made convicts and there are people who commit crimes due to the situation they are in and they do deserve a chance to be reformed. Hence it is hard to reach a conclusion in the case of hanging as a punishment. #tinkatinka #prisonreforms #vartikananda
It is really difficult to come to a conclusion whether a person needs to be hanged or not in a case. Some people deserve a chance to be reformed. Tinka Tinka helps them to do so. But in case of some dreadful crimes , the criminal deserves to be hanged. But innocent people,or a person who committed the crime due to situation shouldn't be hanged. #vartikananda #tinkatinka
This article seeks to provide the insights on what media ought to focus on and what it actually focuses on. Hanging till death ought not be a subject of media coverage for increased TRPs, it's a sentimental aspect of law, it involves a number of lives, it ought to be a lesson for the society. And the media while reporting this, ought to be a little more considerate. #vartikananda #tinkatinka #prison #jail
every coin has two side good and bad but media shows only bad part never try to understand good side of coin .and really it is difficult to come to conclusion whether person needs to be hanged or not but agree a human needs chance to be reformed
#vartikananda #tinkatinka #prison #jail
It is a never ending debate whether or not a person should be hanged or not. I would like to draw everyone's attention to the treatment these prisoners receive. Yes surely the rapists deserve a very harsh punishment by the law for their crimes but we should also keep in mind that unless proven guilty a person is considered innocent. Hence untill then they should be treated like normal people in custody and not some criminal. Tinka tinka foundation has done a very good research on the same
Punishment should always depend upon the type of crime. The crime of rape should never be condoned at any stage. The rapist deserve harsh punishment of hanged till death. these will be a lesson for others. This way we can control the crime in the country. Judiciary should not take long time to prove the crime. Long years of imprisonment for innocent is a mental torture which should be avoided. #vartikananda#tinkatinka#jails
Dr. Vartika Nanda is doing phenomenal work in prison reforms. Through her activism, she has produced three books, Tinka Tinka Madhya Pradesh, Tinka Tinka Tihar, and Tinka Tinka Dasna. She organizes the annual Tinka Tinka India Awards, which recognizes and rewards inmates, prison staff, and administration, Her newest initiative has been to launch prison radio in Haryana. #tinkatinka #tinkamodelofprisonreforms #prisonreforms
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