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Writing for TV News: Class Assignment: Batch of 2027-28

Jun 24, 2009

ख्याल ही तो है

क्या वो भी कविता ही थी
जो उस दिन कपड़े धोते-धोते
साबुन के साथ घुलकर बह निकली थी
एक ख्याल की तरह आई
ख्याल ही की तरह
धूप की आंच के सामने बिछ गई
पर बनी रही नर्म ही।

बाद मे सिरहाने में आकर सिमट गई
भिगोती रही
बोली नहीं कुछ भी
पर सुनती रही
बेशर्त

रात गहरा गई
वो जागती रही
बिना शिकायत के जो साथ थी
हां, शायद वो कविता ही थी।

5 comments:

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

"दिन
साबुन
ख्याल
धूप।

हमने
सपने धो
डाल दिए
सूखने।

सूनी आँख
साथ रात
जो जगी
वह कविता थी।"

यदि आप अनुमति दें तो उपर की पंक्तियों को अपनी कविता मान लूँ। आप से अनुमति इस लिए कि शब्द तो आप ने ही उधार दिए।

मेरा ख्याल है कि मुझे अब और कुछ न कहना चाहिए।

Udan Tashtari said...

कविता ही होगी!!

Nirmal said...

सुंदर एह्सास है...

M Verma said...

बोली नहीं कुछ भी
पर सुनती रही
बेशर्त
नूतनता और ताजगी सी मिली आपकी इस रचना में.
बधाई

सुशील छौक्कर said...

सुन्दर शब्दों के साथ गहरे भाव लिये हुए एक अच्छी रचना।