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LANGUAGE AND PRINCIPLES OF ONLINE NEWS WRITING

Jun 18, 2011

राजकमल प्रकाशन से छपकर आ गई है मरजानी


पंजाब का एक छोटा-सा शहर – फिरोजपुर। 22 साल पहले यहीं से मेरा पहला कविता संग्रह आया था- मामूली सा। तब स्कूल में थी।

फिर यात्रा टीवी चैनलों से गुजरती हुई अब अध्यापन पर आ गई है। अभी लंबा सफर बाकी है। इस सफर की समूची गाथा अंदर जमतीं रहीं कविताओं ने देखी-सुनी। इन कविताओं ने असंख्य चेहरों को गौर से देखा, फिर खुद से संवाद करती रहीं, उनकी कहानी का अंदर वाचन करती रहीं।

मरजानी इसी गाथा का सार है। जो आस-पास देखा, अपनों-परायों को उधड़तो तारों में कसाव लाने के असफल प्रयासों में जो देखा, वो मरजानीहो गया। यही मरजानी आज छप कर आई है राजकमल प्रकाशन से।

इस संग्रह के लिए मरजानी से बेहतर कुछ सूझा नहीं क्योंकि मरजानियां मरने या मारे जाने का जबाव आने पर ज़्यादा जीवंत हो उठती हैं कई बार। सरकारी आंकड़े मरजानियों की कहानियां नहीं समझ सकते। मरजानी को समझने के लिए जरूरी है किसी के दिल में, किसी के आस-पास कोई मरजानी हो और उसका अहसास कहीं छूता हो।

इसलिए हो सके तो मरजानी के सफर में शरीक हो जाइए।

Jun 12, 2011

शायद यही हो वो

आकाश के फाहे निस्पंद

ऊनी स्वेटर बुनती चोटियों के बीच में से गुजरते हुए

कभी रोक पाए इनकी उड़ान क्या।

 

समय मौन था

सोचता

सृष्टि क्यो, कैसे, किस पार जाने के लिए रची ब्रह्मा ने

 

आत्माएं चोगा बदलतीं

आसमान की तरफ भगभगातीं प्रतिपल

शरीरों के दाह संस्कार

पानी में तैरते बचे आंसुओं के बीच

इतना बड़ा अंतर

 

निर्माण, विनाश, फिर निर्माण की तमाम प्रक्रियाओं में

समय की बांसुरी बजती रही सतत

वो सूक्ष्म-सा दो पैरों का जीव

इतनी क्षणभंगुर जमीन पर भी

गर्वित हो चलता कितना अज्ञानी

 

ज्ञान-अज्ञान, वैराग-अनुराग की सीमाओं से उठ पाना ही है

शायद

जीवन का सार

 

इस मरूस्थल में

 

उन दिनों बेवजह भी बहुत हंसी आती थी

आंसू पलकों के एक कोने में डेरा डालते पर

बाहर आना मुमकिन न था

 

मन का मौसम कभी भी रूनझुन हो उठता

उन दिनों बेखौफ चलने की आदत थी

आंधी में अंदर एक पत्ता हिलता तक न था

 

उन दिनों शब्दों की जरूरत पड़ती ही कहां थी

जो शरीर से संवाद  करते थे

 

उन दिनों

सपने, ख्वाहिशें, खुशियां, सुकून

सब अपने थे

उन दिनों जो था

वो इन दिनों किसी तिजोरी में रक्खा है

चाबी मिलती नहीं


ख़बर को मसालेदार बनाने की मजबूरी

एक समय की नामी अभिनेत्री दीप्ति नवल की आवाज टीवी पर बहुत दिनों बाद सुनाई दी, वो भी गुस्से और आक्रोश से भरी हुई। यह गुस्सा एकदम जायज भी था। बात हो रही थी गुजरे जमाने के अभिनेता राज किरण के बारे में जिन्हें हाल ही में अमरीका में खोज लिया गया। उनकी इस तलाश में अभिनेता ऋषि कपूर अरसे से लगे थे और अब जाकर उन्हें राज किरण को ढूंढने में सफलता मिली। वे इस समय अमरीका के एक मानसिक चिकित्सालय में हैं। सालों डिप्रेशन के शिकार होने के यह खबर बा आज हालात यहां तक आ पहुंचे हैं। यह खबर पूरी तरह से झकझोरने वाली थी। राज किरण की अभिनीत फिल्मों की फुटेज एक ऐसे सितारे दुखद कहानी कहती थी जिसे समय की आंधी ने हताशा में डुबो दिया। खबर ने शायद हर दर्शक को उद्वेलित किया होगा।

इस खबर के आने के बाद टीवी चैनलों ने उन तमाम सितारों से संपर्क करना शुरू किया जिन्होंने कभी राज किरण के साथ काम किया था। इसी कड़ी में दीप्ति नवल की बारी भी आई। उन्होंने राज किरण के साथ कई फिल्मों में अभिनय किया था।

तो फोनो लाइव इंडिया पर हो रहा था। एंकर थे सुधीर। दीप्ति से जब सवाल पूछा गया तो जवाब देने से पहले उन्होंने अपना गुस्सा इस बात पर जताया कि आज तक इस खबर को बेहद लापरवाही के साथ दिखा रहा है। वहां कहा जा रहा है कि राज किरण पागलखाने में हैं। दीप्ति नवल जाहिर तौर पर खबर को दिखाए जाने के अंदाज पर काफी आहत थीं। वे बार-बार कह रही थीं कि ऐसे मामलों को संजीदगी से रिपोर्ट करना चाहिए न कि गैर-जिम्मेदाराना तरीके से।

अब बारी सुधीर के सकपकाने की थी क्योंकि आलोचना सबसे तेज चैनल और साथ ही प्रतिद्वंदी चैनल की हो रही थी। यह शाब्दिक धुनाई अंदर से मजा भले ही दे रही हो लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर तो उस पर खुशी दिखाई जा नहीं सकती थी। यहां सुधीर यही कह कर रह गए कि उनका चैनल इस खबर को पूरी गंभीरता के साथ दिखाएगा भी और राज किरण के लिए कुछ करने की कोशिश भी करेगा। इससे ज्यादा कहना शायद संभव भी नहीं था।

लेकिन इतना जरूर है कि अगर राज किरण को लेकर बरसों पुरानी जमी धूल को अगर मीडिया ने साफ कर सामने रखा तो साथ ही यह भी सच है कि उसकी खबर को मसालेदार बनाने की भी पूरी कोशिश की गई।

दरअसल हर खबर एक अलग तरह का ट्रीटमेंट मांगती है लेकिन जब खबर खास तौर पर संवेदना के धरातल से उपज कर बाहर आती हो तो उस पर ज्यादा चौकन्ना होना भी जरूरी हो जाता है। टीवी वैसे भी एक सामाजिक-सांस्कृतिक फैक्टरी है। यहां न तो विशुद्ध मनोरंजन मिल सकता है, न खालिस खबर। यह दोनों का झालमेल है। न्यूज मीडिया इस गड़बड़झाले की मजेदार मिसाल है। दूसरी तरफ सरकार की बनाई तमाम संस्थाएं इन मामलों में मुंह में उंगली दबाए और कान पर रूई लगाए बैठी दिखती हैं। जिस प्रैस काउंसिल को इन मामलों में सक्रिय होना चाहिए, वह भी बेचारगी की स्थिति में दिखती है। 2009-10 में 950 और 2008-2009 में 726 शिकायतें पाने वाली प्रेस काउंसिल की तरफ से शायद ही कभी कोई बयान मुस्तैदी से आता है। मतलब यह नहीं कि काउंसिल को प्रेस के साथ किसी दुश्मन की भूमिका का निर्वाह करना चाहिए। मतलब सिर्फ यह है कि यह संबंध आपसी समझ को बढ़ाने और बेहतरी की तरफ जाने का भी तो हो सकता है।

इसके अलावा लगता यह भी है कि चैनलों को खुद अपने अंदर एक गंभीरता लाने के लिए खुद लामबंद होना शुरू कर देना चाहिए। धूल-मिट्टी फांक कर खबर लाता पत्रकार, डैस्क पर मजदूर की तरह घंटों गुजारता इनपुट या आटपुट एडिटर या फिर वीडियो एडिटिंग या कैमरा करके भी चैनल के हाशिए पर खुद को महसूस करता पत्रकार दूसरे की टीआरपी से सहम कर अक्सर ऐसी उछलकूद कर ही बैठता है। मामला सामंजस्य को बिठाने और कुछ मूलभूत लक्ष्मण रेखाओं को खींच देने का है। बस!

खैर, बाबा रामदेव की योग-राजनीति माया में व्यस्त मीडिया ने फिर भी किसी तरह से राज किरण के लिए समय निकाला। खबर के बहाने दर्शक का ध्यान मायानगरी के झूठे तिलस्मी समाज तक गया। बधाई। क्या इस कहानी को हम किसी अंजाम तक पहुंचते हुए देख पाएंगें या यह भी बाकी कई कहानियों की तरह बिना किसी फालो अप को कहीं दब जाएगी।

(यह लेख 9 जून, 2011 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

Jun 7, 2011

चौरासी हजार योनियों के बीच

सहम-सहम कर जीते-जीते
अब जाने का समय आ गया।

डर रहा हमेशा

समय पर कामों के बोझ को निपटा न पाने का
या किसी रिश्ते के उधड़
या बिखर जाने का।

उम्र की सुरंग हमेशा लंबी लगी – डरों के बीच।

थके शरीर पर
यौवन कभी आया ही नहीं
पैदाइश बुढ़ापे के पालने में ही हुई थी जैसे।

डर में निकली सांसें बर्फ थीं

मन निष्क्रिय
पर ताज्जुब
मौत ने जैसे सोख लिया सारा ही डर।

सुरंग के आखिरी हिस्से से
छन कर आती है रौशनी यह
शरीर छूटेगा यहां
आत्मा उगेगी फिर कभी

तब तक
कम-से-कम, तब तक
डर तो नहीं होगा न!

Jun 6, 2011

विमोचन के बहाने

एक परिचय तो यह है कि ज्ञानेश्वर मुले भारतीय विदेश सेवा के 1984 बैच के अधिकारी हैं और इस समय मालदीव में भारत के उच्चायुक्त हैं। लेकिन यह एक सरकारी परिचय हुआ। इस परिचय में जो ताजा अध्याय जुड़ा है, वह इस परिचय को मानवीय बनाने में मदद करता है। इसी महीने ज्ञानेशवर मुले की आत्मकथा माटी, पंख और आकाश राजकमल प्रकाशन से छप कर आई है। 350 रूपए की सुंदर कवर डिजाइन से आई यह किताब अपनी पहली झलक में ही अपना ध्यान खींचने में सफल होती है।

मुले की किताब का हाल में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की एनेक्सी में विमोचन हुआ तो कई तत्व  देखने को मिले। हमेशा धीर-गंभीर चेहरा बनाकर रखने वाली निरूपमा राव का भाषण खुद अपनी यादों से सराबोर दिखा। मुले की बेहद प्रतिभावान पत्नी, लेखिका और एक सफल आईएएस अधिकारी साधना शंकर और किताब पर अध्यक्षीय टिप्पणी देते नामवर सिंह ने किताब के गांभीर्य को और बढ़ा दिया। लेकिन इसमें खास रही किताब में की गई अनगिनत सच्ची टिप्पणियां। जैसे कि लेखक कई जगह यह बात खुलकर बताते हैं कि कैसे महाराष्ट्र के एक गरीब परिवार से बाहर आकर देश की सबसे सम्मानित सेवा में आना उनके लिए बेहद दुरूह था। 1984 में चयन के बाद जब उनके बैच को राष्ट्रपति भवन ले जाना तय होता है तो कस्तूरबा गांधी मार्ग से लेकर राष्ट्रपति भवन तक का वह रास्ता उन्हें उनके कठिन दिनों की स्मृतियों से रूबरू कराता हुआ चलता है। वहां तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह सबसे पूछते हैं कि किसके पिता क्या करते हैं। सबके पिता बड़े लोग हैं, सिवाय ज्ञानेश्वर मुले के। वे फख्र से बताते हैं कि उनके पिता किसान हैं और सिलाई का काम करते हैं। इस पर जैल सिंह सबसे बात करते हुए कहते हैं

इस लड़के की सफलता आप सबकी सफलता से अलग तो है ही, महत्वपूर्ण भी है। यह ग्रामीण इलाके से आया है, मराठी में इसकी पढ़ाई हुई, इसके पिताजी साधारण किसान हैं, फिर भी यह लड़का यहां तक पहुंचा।

दरअसल बहुत दिनों बाद ऐसी किसी किताब का जिक्र होता सुनाई दिया है जहां किसी वरिष्ठ अधिकारी ने अपने संघर्ष की गाथा को ईमानदारी से कहने की कोशिश की है। मुले जब यह लिखते हैं कि उनके पास न तो कायदे का कोई जूता था और न ही टाई पहनने का सरूर तो एक छोटे भारत का विशालकाय सच जैसे उछल कर सामने खड़ा हो जाता है। वे अपनी ग्रामीण पृष्टभूमि पर शर्मिंदा नहीं हैं बल्कि गर्वित हैं। हालांकि किताब सिर्फ एक-दो पक्षों के आगे-पीछे घमूने तक ही सिमटी दिखती है लेकिन ऐसी किताबें निसंदेह उन लोगों के सपनों में उजास भरने का काम तो कर ही देती हैं जिनके रास्तों में भी कुछ इसी तरह के पठार हैं। फाइलों में लिखने और नीतियों का निर्धारण करने वाले जब अपनी यात्रा की कथा कहते हैं तो उनके मील के पत्थर युवामन के अंतर्द्वदों को साफ करने में मददगार साबित होते हैं।

भारत में किताबों की दुनिया मजे की उड़ान भरती दिखने लगी है। इंडिया हैबिटाट सेंटर हो या इंडिया इंटरनेशनल सेंटर , दिल्ली में कुछ ठिकाने जैसे रोजमर्रा की गतिविधि की तरह किताबों का विमोचन होते देखते हैं। अब विमोचनों से पहले कायदे की चाय का इंतजाम भी होने लगा है। विमोचन एसी कमरों में होते हैं, उनका बाकायदा आमंत्रण पत्र छपते हैं और प्रेस विज्ञप्ति भेजी जाती है। बैकड्राप बनाया जाता है और उसे कारपोरेट लुक देने के लिए आपसी जुगलबंदी भी की जाती है। लेकिन यहां एक बात बड़ी मजे की है। इन विमोचनों में कौन आएगा और कौन कतई नहीं आएगा, यह फेहरिस्त कोई भी याद कर सकता है, महज कुछ ही समारोहों को देखकर। लेखकों का एक बड़ा वर्ग अपनी किताब के विमोचन में भारी भीड़ को देखने के लिए तो आतुर रहता है लेकिन दूसरे के विमोचन में(अन्यथा कि भाषण देने की कोई संभावना हो) जाने में यथोचित परहेज करता है। किताबों के विमोचन कई बार राजनीति का मैदान बने हुए भी दिखते हैं। छोटे-छोटे विमोचन कई बार जाने-अनजाने बड़ी नाराजगियों की वजह भी बन जाते हैं। इसके अलावा यह भी सच है कि कई बार बड़े पदों पर आसीन लोगों की किताब के छपने में आम तौर पर आसानी हो जाती है क्योंकि वे एक ही धक्के में कई पुस्तकालयों में किताब के खरीदे जाने को सुनिश्चित कर देते हैं।

लेकिन तब भी किताबों को पंख लगाता यह नया मौसम एक मीठी आहट तो है ही।