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2022: सुकून का पिटारा बनता वैकल्पिक मीडिया

 1 अक्तूबर, 2022

सुकून का पिटारा बनता वैकल्पिक मीडिया

डॉ. वर्तिका नन्दा 

(मीडिया शिक्षक, विश्लेषक और जेल सुघारक)

नई सदी आने तक पत्रकारिता पढ़ने आने वाले छात्रों की आंखों में कुछ चमकते हुए चेहरे बसा करते थे। वे गर्व के साथ अपने प्रिय एंकरों को अपना रोल मॉडल बताते। धीरे-धीरे सब बदलने लगा। पत्रकारिता पढ़ने वाले बच्चे अब किसी भी नाम को लेने से पहले सकुचाते हैं। वे एंकर बनना चाहते हैं लेकिन किसी एक एंकर जैसा बनना नहीं। टीवी पर चिल्लाने वाले नाखुश चेहरे उनके रोल मॉडल नहीं हैं। कोई एंकर कभी कहीं दिख-मिल जाता है, तो उसके साथ सेल्फी लेना चाहते हैं लेकिन साथ में यह जोड़ना नहीं भूलते कि सब बस एक जैसे ही हैं। यह वो बदलाव है जिसे मीडिया न उगल सकता है, न निगल सकता है। इन छात्रों को पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करने तक भी मीडिया में कोई रोल मॉडल दिखाई नही देता। वे इस नतीजे पर जल्दी पहुंच जाते हैं कि स्क्रिप्ट को लिखने, उसे पढ़ने वाला और इन्हें नौकरी पर रखने वाला- सभी पूंजी से संचालित हैं। यह ऐसी नाटकीय टीवी पत्रकारिता है  जो जल्दबाजी में गढ़ी गई और आगे बढ़ती चली गई। 

ऐसे में दुविधा दो तरफ से आई। पत्रकारिता के छात्र फैसला नहीं कर पाते कि आखिरकार किस तरह की पत्रकारिता उन्हें करनी है। उनके सामने कोई खास मॉडल है ही नहीं। हमाम में सब नंगे दिखते हैं और लगता है कि वे पत्रकारिता के सिवा सब करते हैं। 

दूसरी दुविधा ऑडियंस की है। टीवी के दर्शक को अब किसी पर यकीन नहीं। उसे न तो एंकर भरोसे लायक लगते हैं, न रिपोर्टर। वो हर चैनल पर कुछ  सेकंड के लिए रुकता है और तुरंत दूसरे चैनल पर चला जाता हैं। खबर के सही होने का आकलन करता है। दर्शक यह नहीं जतलाना चाहता कि वो किसी एक चैनल को बेहद पसंद करता है। जिस तरह एंकर को अपने फॉलोअर के हमेशा बने रहने का भरोसा नहीं, वैसे ही दर्शक को भी उसके सत्यवाचक होने का भरोसा नहीं। इस पूरी भागमभाग में यकीन का कद बहुत छोटा हुआ है।

इस सब के बीच टीआरपी अपना काम बदस्तूर कर रही है पर यहां भी एक बदलाव आया है। जनता किसी के सामने खुलकर यह नहीं कहती कि जो चैनल नंबर एक या नंबर दो पर है, वो हमेशा उसी को देखता है। अदल-बदल की राजनीति की तरह जनता भी अदल-बदल की भाषा बोलने और बतियाने लगी है।

अब एंकर जब किसी चैनल की नौकरी छोड़कर दूसरे चैनल पर जाता है तो जनता पर उसका भी कोई असर नहीं पड़ता। जनता जानती है कि यह पत्रकारिता वो नहीं है जिसे गांधी और भगत सिंह ने इज्जत और पहचान बख्शी थी। कमीज से लेकर जूते तक सब प्रायोजित है। उसी तरह से एंकर की स्क्रिप्ट भी। टीवी पर चिल्लाता हुआ एंकर एंटरटेनमेंट करता है। न्यूज को मनोरंजक बनाता है। उसकी भूमिका मनोरंजन से शुरु होती है और सिरदर्दी पर अंत। खबर के सिरे तक जाने से उसका ताल्लुक नहीं।  दर्शक भी टीवी न्यूज को उतनी देर ही देखता है जिससे मनोरंजन मिल जाए, सतही जानकारी भी। 

दूसरे देशों में आज भी ज्यादातर चैनल एंकर को चिल्लाने का काम नहीं देते। लेकिन हमारे यहां एंकर अपनेआप में नाटक का एक पूरा पैकेज है। उसका चिल्लाना, हिलना-डुलना, आंखों की भाषा, बॉडीलैंग्वेज, हाथों को आड़े-तिरछे घुमाना या फिर टेबल पर जोर-जोर से हाथ मारने लगना, अपने पैर पटकना,बात-बात पर रूठ-सा जाना या फिर तुनकते रहना- यह सब पत्रकारिता का हिस्सा कभी नहीं था। कई बार वे स्क्रीन पर पहलवान लगने लगते हैं और चैनल पर आए गैस्ट को जोर-जोर से डांटने लगते हैं। अतिथियों को डांटा-दुत्कारा जा सकता है, इस परंपरा के जनक भी न्यूज एंकर ही हैं।  न्यूज देखते हुए कई बार सर्कस के जोकर याद आते हैं लेकिन वे भी अपनी मर्यादा में रहते थे। यहां मर्यादा का कोई काम नहीं। यहां चिल्लाने वाला सिकंदर है। हां, एक काम बराबरी का हुआ। चिल्लाने का जितना काम एकंर करते हैं, उतना ही एंकरनियां भी। 

अब जब सुप्रीम कोर्ट यह कहता है कि चिल्लाने वाले एंकरों को अपनी सीमा में रहना चाहिए तो उसे कहने में बड़ी देर हो गई। टीवी का न्यूजरूम स्क्रिप्ट को तैयार ही इस तरह से करता है कि उसमें पूरी तरह से नाटकबाजी हो सके। अब यह उसकी आदत में शुमार है जिसका छूटना मुश्किल है। 

युवा पीढ़ी को दूरदर्शन के शांत एंकर नहीं भाते। स्वाद और मसाला निजी चैनलों में है। दूरदर्शन की खबर सही हो सकती है लेकिन रोज खिचड़ी कौन खाए। हां, चैनलों से बदहजमी होती है तो कुछ देर दूरदर्शन के दर्शन कर लिए जाते हैं। 

इसका असर दो तबकों पर सबसे ज्यादा पड़ा है। एक पत्रकारिता का छात्र और दूसरा अपराधी। जेलों पर काम करते तिनका तिनका फाउंडेशन बीते कई सालों से जेल बंदियों से संवाद कर रहा है। कई बंदी खुलकर बताते हैं कि उन्हें अपराध को करने की कथित प्रेरणा टीवी के किसी एंकर से मिली जिसने अपराध की कहानियां उत्साह से बताईं।उकसाया। अब कुछ एंकर अपराधी जैसे भी देखने लगे हैं। अपराध शो करता एंकर कुछ ऐसा जतलाता है मानो वो खुद उस अपराध का चश्मदीद गवाह हो या खुद ही अपराध करके सीधे स्टूडियो चले आया हो। एंकर अपराध तो बताता रहा लेकिन इस बात पर जोर देना जानबूझकर टालता गया कि अपराध करने का अंतिम पड़ाव जेल ही होती है। अपराधियों ने तो यह माना कि अपराध करने वाला एक सुखद, चमकीली ज़िंदगी को हासिल करता है। असलियत जेल आकर पता चली।

हाल ही दिनों में दिल्ली पुलिस ने अपने पॉडकास्ट- " किस्सा खाकी का" की शुरूआत की। अब तक हुए 40 अंकों का सार यह भी रहा कि पुलिस जब अपराधी को पकड़ कर पूछताछ करती है तो कई अपराधी मानते हैं कि अपराध करने के मोह के पीछे टीवी की भाषा और छवियों का भी असर होता है। यहां पुलिस और अदालतें मौन हैं और मजबूर भी। खुद उन्हें टीवी लुभाता है। वे क्या कहें। टीवी पर दिख जाने के लोभ से उनका छुटकारा नहीं। इसलिए टीवी न्यूज की इस चॉकलेट के जरिए जो जहर पूरे हिंदुस्तान और फिर दुनियाभर में फैला है, उसे ठीक करने का समय बहुत पहले गुजर चुका। न तो दूरदर्शन अपने को बदलेगा, न निजी चैनल। ऐसे में वैकल्पिक मीडिया ही इकलौता रास्ता बचता है।

यहां जोड़ दूं जेल का रेडियो। कोरोना आया तो जिला जेल आगरा और फिर हरियाणा की जेलों में शुरु किया गया तिनका तिनका जेल रेडियो बंदियों की जिंदगी में सुकून लेकर आया। जेल में टीवी देखने की बजाय वे जेल के रेडियो को सुनने लगे। यह उनके अपने बनाए कंटेट पर आधारित है। वे खुद उसके निर्माता हैं, खुद उपभोक्ता। बिना किसी आर्थिक सहयोग के खालिस तरीके से चलने वाला जेल का यह रेडियो सूचना, खबर, ज्ञान, संगीत और मनोरंजन- सब देता है। यहां रेडियो जॉकी चिल्लाता नहीं। वो इत्मीनान और भरोसा बांटता है। जेल के अंदर की दुनिया ने जेल के बाहरवालों से बेहतर अपने लिए जादुई पिटारा खोज लिया है। इसने साबित किया है कि बिना विज्ञापन, चिल्लाहट और प्रायोजकों के चलने वाले ऐसे यज्ञ किसी भी मीडिया हाउस के आकार और प्रचार से कहीं आगे हैं। आने वाले सालों में जो समुदाय अपने लिए खुद एक वैकल्पिक मीडिया गढ़ लेंगे, वे ही रहेंगे- शोर के बीच सुखी।


(1 अक्टूबर को राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित )


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