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Oct 19, 2022

2022: The Light in the Dark: Tinka Tinka Dasna: तिनका तिनका डासना: जेल में सृजन, सुधार और अकादमिक शोध

Location: Tihar, Delhi

Year: 2022 

The book is the voice of prisoners in Dasna Jail, with their poems printed across the pages of Tinka Tinka Dasna. It includes some infamous cases like the Aarushi Talwar murder and the Nithari case. 

किताब - तिनका तिनका डासना

लेखिका - वर्तिका नंदा

समीक्षक -  डॉ. सम्राट् सुधा

पुस्तकों में जीवन होता है लेकिन कई बार पुस्तक इतनी जीवंत होती है कि लगता है हम सीधे जीवन को ही पढ़ रहे हैं। यह सच भी होता है। जेल के संदर्भ में लिखित पुस्तक का महत्त्व उसकी शोधपरकता से है। जेल किसी की रुचि का विषय बहुत कम है लेकिन सबका नहीं। शोधार्थी, जेल भुगते हुए लोग, उनके परिवार-जन और जीवन के प्रत्येक हिस्से को जानने के जिज्ञासु जेल के जीवन को पढ़ने से दूर ना होंगे। उन्हीं लोगों, जो संख्या में कम नहीं हैं, के लिए जेल पर लिखी पुस्तकें तथ्यपरक स्रोत का कार्य करती हैं। लेकिन अगर कोई किताब शोध के साथ बदलाव भी लाए तो वो ज्यादा उपयोगी और सार्थक हो जाती है।

शोध सारांश: पुस्तक 'तिनका तिनका डासना' में वर्णित डासना जेल और उसके बंदियों-कैदियों के साथ किए जा रहे कार्यों का उनके जीवन पर प्रभाव सम्बद्ध अध्ययन। ऐसी पुस्तक की उपादेयता व समाज पर उसका प्रभाव। एक चेतना और प्रेरणा भी। दीवारों में कैद उपेक्षित मनुष्यों को सहज जीवन की अनुभूति। एक अध्ययन।

किसी भी पुस्तक का महत्त्व उसकी उपादेयता से है। वह यदि अपनी विषयवस्तु से किसी का भला नहीं करती तो विशुद्ध आत्मालाप है। लियो टॉलस्टॉय ने लिखा है - " वे विद्वान् और कलाकार, जो दण्डविधान और नागरिक तथा अंतर्राष्ट्रीय कानून के सिद्धांतो का निर्णय करते हैं, जो नये अस्त्र-शस्त्रों और विस्फोटकों का अन्वेषण करते हैं और अश्लील नाटक अथवा उपन्यास लिखते हैं, वे अपने को चाहे कुछ भी कहें, हमें उनके ऐसे कार्यों को विज्ञान और कला कहने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि उन कार्यों का लक्ष्य समाज अथवा मानव-जाति का कल्याण करना नहीं होता, बल्कि इसके विपरीत वे मानव-जाति को हानि पहुंचाते हैं!"

उक्त आधार पर विचारें तो वर्तिका नन्दा की जेल की जिदगी पर आधारित पुस्तक 'तिनका तिनका डासना' एक जीवंत पुस्तक है जिसे लिखे जाने का उद्देश्य ही कल्याण है। उत्तर-प्रदेश की डासना (जिला जेल, ग़ाज़ियाबाद) जेल पर संकेंद्रित इस पुस्तक को उस जेल में सूख चुकी फुलवारी के फिर से महकाने का या महकाने की सम्भावना का एक सुप्रयास माना जा सकता है। कैदियों के जीवन को जेल से बाहर उनके अपनों के अतिरिक्त कोई सोचता है क्या? वर्तिका नन्दा भारतीय जेलों में सुधारात्मक कार्यों के लिए एक स्थापित नाम हैं। वे इस पुस्तक के समर्पण में लिखती हैं -

"उन तिनकों के नाम

जिन्हें बचाए रखती हैं

कहीं ऊपर से टपकने वाली

उम्मीदें !"

अबोध और अघोषित बाल 'कैदी': पुस्तक 'तिनका तिनका डासना' डासना जेल की जीती-जागती कहानी है, जो सहयोगात्मक रूप में 'तिनका तिनका फाउंडेशन' की प्रमुख वर्तिका नन्दा की ज़ुबानी और उनके संकलन से संजोयी गयी है। पुस्तक नौ हिस्सों में बंटी है, सबके विषय भिन्न हैं। एक हिस्से 'मुलाकात का कमरा-जहाँ लोहा पिघलना चाहता है' के अंतर्गत वे लिखती हैं- "जितने साल उनका अपना यहाँ अंदर होगा, उतने साल सज़ा उनकी भी चलेगी, जो बाहर हैं। सज़ा कभी किसी को अकेले नहीं मिलती।" इसी क्रम में वे बहुत तथ्यपरक रूप से भारतीय जेलों की दशा बताते हुए उनमें महिला कैदियों व उनके बच्चों के लिए नदारद सोच पर टिप्पणी भी करती हैं। बच्चों की स्थिति को बहुत मार्मिक रूप से वे लिखती हैं - " ये बच्चे सिर्फ़ बच्चे हैं। बच्चे के घर-परिवार के कोई सवाल नहीं हैं, यहाँ पर बच्चे के लेकिन कुछ सवाल ज़रूर हैं। वे सवाल अभी शब्द बन रहे हैं। कुछ सालों में वाक्य बन जाएंगे... वे जानते हैं कि माँ रोज़ इस झूठ के साथ जीती है कि वे जल्द ही अपने घर जाएंगे।" पुस्तक में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के माध्यम से बताया गया है कि इस समय (वर्ष 2015 तक) क़रीब 17000 महिलाएं जेलों में बंद हैं, जबकि उस समय तक जेलों की कुल संख्या 1,394 बतायी गयी हैं। साथ ही कई राज्यों में जेलों की कुल संख्या भी बतायी गयी है।

मीडिया ट्रायल और उसका बंदियों पर प्रभाव: पुस्तक के एक अन्य हिस्से 'तिनका तिनका ज़िन्दगी' में लेखिका ने डासना जेल में उस समय (वर्ष 2015- 2016 ) बंद कतिपय कैदियों के तत्कालीन जीवन को भी सचित्र प्रस्तुत किया है। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण हैं -डॉ. राजेश तलवार व डॉ. नूपुर तलवार, अपनी ही बेटी आरुषि तलवार की हत्या के अभियुक्त। दोनों के जीवन को लेखिका ने उसी गरिमा से लिखा है, जिसके वे अधिकारी हैं। जेल में वे दोनों कैसे सेवा करते हुए जीवन व्यतीत कर रहे हैं, यह पढ़ते हुए आंखें नम हो जाती हैं । इस कांड पर उस समय मीडिया और समाज ने जो अपरिपक्वता दिखायी थी, उस पर टिप्पणी करते हुए वर्तिका नन्दा लिखती हैं-"बाहर की दुनिया उन्हें सहराती है, जिसने अपने बूते पर ही अदालतों से पहले अपने कड़े फैसले को सुना दिया। वह मीडिया रात भर की टूटती-कराहती नींद के बीच दिखता है, जिन्होंने अदालत की सुनवाई से पहले ही उन्हें दरिंदा और कातिल करार दे दिया था। वे मानते हैं कि दैविक सुनवाई होनी अभी बाकी है !" डॉ. नूपुर तलवार की चार कविताएं व डॉ. राजेश तलवार की पाँच कविताएं पुस्तक में हैं, जो उनके उनके दर्द का सैलाब हैं। इन दोनों के अतिरिक्त निठारी कांड सुरिन्दर कोली , पाँच बच्चों की हत्या के अभियुक्त रवींद्र कुमार, पत्नी हत्या के अभियुक्त सुशिक्षित अमेरिका रिटर्न राजेश झा के जेल जीवन और उनकी कविताओं को पढ़ना जेल में बंद अभियुक्तों के जीवन को सर्वथा नये रूप में समझने को विवश करता है। इसी क्रम में आजीवन कारावास की सज़ा के कैदी विजय बाबा, बीटेक कर इंजीनियर रहे प्रशांत और विचाराधीन बन्दी विवेक स्वामी पर लेखिका ने मर्मस्पर्शी रूप से लिखा है।

जेल के अधिकारियों का दृष्टिकोण: इस पुस्तक में तत्कालीन कारागार मंत्री, उत्तर प्रदेश बलवंत सिंह रामूवालिया , तत्कालीन महानिरीक्षक कारागार, उत्तर प्रदेश डॉ. देवेंद्र सिंह चौहान, डिप्टी जेलर शिवाजी यादव और फार्मासिस्ट आनन्द पांडे के विचार पढ़ना एक पृथक् अनुभूति देता है। डिप्टी जेलर शिवजी यादव को एक स्थान पर उद्धृत करते हुए लेखिका लिखती हैं- "शिवाजी मानते हैं कि जेलों में हमेशा वो सच भी उघड़ जाते हैं, जो फाइलों को छू भी नहीं पाते। इन लिहाज़ से किसी जेलर के पास अगर वक़्त और नीयत हो,तो वह हर अपराध के सच को बताने वाला सबसे सटीक स्रोत हो सकता है।" इसी प्रकार फार्मासिस्ट आनन्द पांडे की कही एक बात वे उद्धृत करती हैं- " पहली बार जेल में आये बंदियों के साथ उनका गहरा अवसाद चलता है। इस अवसाद के बीच हर रोज़ एक नये पुल को बनाने की कला कोई सरकार नहीं सिखाती, सरोकार सिखाता है !"

सलाखों में सर्जन : साहित्य यह भी : पुस्तक के एक हिस्से में सात पुरुष और दो महिला कैदियों की कुल चौबीस पद्य-रचनाओं को स्थान दिया गया है। ये सभी रचनाएँ कैदियों द्वारा अपने जीवन की समग्र परिस्थितियों का अनुपम और मार्मिक चित्रण हैं। इनमें उनका वह सच है, जो अन्य के लिए अकल्पनीय और सम्भवतः अनावश्यक भी है। एक कैदी राजकुमार गौतम की ग़ज़ल के यह शेर देखिए -

"ऐ हवा इतना शोर ना कर, मैंने तूफानों को बिखरते देखा है

तूने उजाड़ा था जिन घरों को,उन्हें फिर से संवरते देखा है।

क्या हुआ जो बिखर गये मेरे सपने होकर तिनका-तिनका

मैंने तो तिनका-तिनका हुए सपनों को भी संवरते देखा है।"

महिला बंदिनी उपासना शर्मा की अपने भाई को सम्बोधित कविता 'याद' के यह अंश देखिए -

" याद है वो लड़ना झगड़ना...

मेरी नाकामयाबी पर भी

मुझे कामयाब बताना

हमेशा मुझे पिता की तरह समझाना

वो तेरा हर वक़्त मुझे बुलाना

याद है...

नफ़रत से ज़्यादा प्यार में ताक़त होती है

सबसे ज़्यादा

आपनों के विश्वास में ताक़त होती है !"

प्रश्न यह है कि इन कविताओं को साहित्य को कोई अध्याय स्वयं में समेटेगा या ये 'तिनका तिनका डासना' जैसी शोध पुस्तकों के अनुपम उदाहरण बनकर ही रह जाएंगी। सम्भवतः कोई कभी इन पर भी शोध कर सके, परन्तु इससे पहले कौन है, जो इनके सृजकों की आत्मा का भी शोध कर सके, जिसके बिना इनकी रचनाओं का शोध व्यर्थ ही नहीं, असम्भव भी है ! इस दृष्टि से पुस्तक 'तिनका तिनका डासना का मूल्यांकन इसे एक अनुपम, संग्रहणीय और महत्त्वपूर्ण पुस्तक बना देता है।

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने लिखा है - "मुझे नहीं लगता कि अगर मैं व्यक्तिगत रूप से एक कैदी के रूप में नहीं रहा होता तो मैं किसी अपराधी को सहानुभूति की नजर से देख पाता और मुझे इस बात में ज़रा भी संदेह नहीं है कि हमारे कलाकारों और साहित्यकारों की रचनाएँ, आम तौर पर, जेल-जीवन का कुछ नया अनुभव होने पर हर तरह से लाभान्वित होंगी। हम शायद काजी नजरूल इस्लाम की कविता के कर्ज की भयावहता को महसूस नहीं करते हैं, जो उन्होंने जेलों के जीवन के अनुभव के लिए किया था।जब मैं शांति से चिंतन करने के लिए रुकता हूं, तो मुझे लगता है कि हमारे बुखार और कुंठाओं के मूल में कोई बड़ा उद्देश्य काम कर रहा है। यदि यह विश्वास ही हमारे सचेतन जीवन के प्रत्येक क्षण की अध्यक्षता कर सकता है, तो हमारे कष्ट अपनी मार्मिकता खो देंगे और हमें एक कालकोठरी में भी आदर्श आनंद के साथ आमने-सामने लाएंगे? लेकिन आम तौर पर कहा जाए तो यह अभी तक संभव नहीं है। यही कारण है कि यह द्वंद्व आत्मा और शरीर के बीच निरंतर चलते रहना चाहिए।"

रुकी ज़िन्दगी को फिर से गति: पुस्तक 'तिनका तिनका डासना' मूलतः डासना जेल के कैदियों के संग 'तिनका तिनका फाउंडेशन' की संस्थापक वर्तिका नन्दा द्वारा किये गये उन सकारात्मक और सुधारात्मक प्रयासों के प्रतिफलों का दस्तावेज हैं, जिन्हें जेल से बाहर के मनुष्य ही नहीं, प्रायः जेल के ही कैदी और कर्मी, दोनों सोच तक नहीं पाते । सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि जेल एक उपेक्षित स्थान है, विचारक इसके बारे में सोचना नहीं चाहते , कवि कल्पना नहीं करना चाहते, दानी पहुँच नहीं पाते और सुधारक चयन नहीं कर पाते। तिनका तिनका फाउंडेशन की संस्थापक और इस पुस्तक की लेखिका वर्तिका नन्दा ने उस सब 'ना कर पाने' को किया है और कैदियों के नज़रिए से जिया है, उन्हीं का वर्णन 'तिनका तिनका डासना' में है। वे ' साहित्य ,सृजन और पत्रकारिता : जेलों में तिनका तिनका प्रयोग' शीर्षक के अपने लेख में लिखती हैं- " डासना पर काम शुरु हुआ तो आगे बढ़ता गया...उन्हें लगने लगा कि ज़िन्दगी फिर से शुरु की जा सकती है। बस, मैं यही चाहती हूँ ! ज़िन्दगी पर पूर्ण विराम क्यों लगने दिया जाए। इस उम्मीद को बचाए रखने और बदलाव के बीच सर्जन करने के लिए ही तिनका तिनका का बीज रोपा गया था। इसमें अब कोंपल आ रही है। इसे सींचने के लिए मेरे पास कोई बड़ी शक्ति नहीं है,लेकिन साहस और नीयत ज़रूर है !"

कलेवर व सामग्री का महत्त्व: यह पुस्तक तिनका तिनका फाउंडेशन के जेल सुधार कार्यक्रमों का सुंदर और महत्त्वपूर्ण संकलन है। पुस्तक की लेखिका वर्तिका नन्दा ने इसे मस्तिष्क नहीं, आत्मा से लिखा है ,वे ही तिनका तिनका की संस्थापिका और उक्त कार्यक्रमों की विचारक-निर्देशक भी हैं। मूल सामग्री के मध्य लेखिका और अन्य के कवितांशों ने पुस्तक को प्रभावी बनाया है। सम्बद्ध चित्र मोनिका सक्सेना के हैं जिनसे पुस्तक और प्रभावी हुई है। आवरण चित्र विवेक स्वामी का है, जो वर्ष 2015 में डासना जेल में एक विचाराधीन बन्दी थे और बाद में रिहा हो गये थे । एक बन्दी से उसकी प्रतिभा का उपयोग कर उसके चित्र को पुस्तक का आवरण चित्र बनाना भले ही प्रथम दृष्टि में कोई विशेष बात ना लगे,परन्तु उसके लिए यह कितना महत्त्वपूर्ण है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। उसे यह मनोवैज्ञानिक रूप से कितना सुदृढ़ करेगा , जब भी वह सोचेगा कि उसके जीवन के सबसे बुरे और उपेक्षित समय में किसी ने उसे यूँ सम्मान दिया। जेल से छूटने के बाद यही किताब, जेल के अंदर बना कैलेंडर और सजायी गयी एक विशेष दीवार विवेक स्वामी को एक मज़बूत नौकरी दिलवाती है। इस पुस्तक में केंद्रीय कारागार आगरा से लिखी एक कैदी की चिट्ठी बहुत मर्मस्पर्शी है।

पुस्तक का काग़ज़ उत्तम है ।

पुस्तक में लेखिका की सटीक और सूक्तिमय भाषा: इस पुस्तक में लेखिका डॉ. वर्तिका नन्दा की भाषा-शैली सटीक ,सूक्तिमय व मर्मस्पर्शी है, जो विचार-मंथन को विवश करती है । कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं -

1- सदा सच बोलो । जेल के बन्दी को घण्टों यह सुनाना आसान है , लेकिन उन्हें कौन समझाये, जो बाहर रहकर बड़े अपराध करते हैं और इन गलियों से एकदम बचे भी रहते हैं।

2- इस सवाल का ज़वाब तो किसी के पास नहीं है कि जो जब यहाँ से लौटेगा , तो बाहर की ज़िंदगी से कौन- से पन्ने पलट गये होंगे, फट गये होंगे या कहीं उड़ गये होंगे।

3- जितने साल उनका अपना यहाँ अंदर होगा, उतने साल सज़ा उनकी भी चलेगी, जो बाहर हैं !

4- इन सबमें अपनी परछाई से भी छोटा वो हो जाता है, जिसके सिर पर किसी और का इल्ज़ाम लगा था। वो जेल से बाहर आकर भी ख़ुद को किसी जेल में ही पाता है।

स्पष्ट है कि पुस्तक 'तिनका तिनका डासना' एक सामान्य पुस्तक ना होकर ,जेल के बन्दी व कैदियों पर लिखी अनुपम पुस्तक है, जिसे वस्तुतः एक सामाजिक शोध कहा जा सकता है। इस शोध पुस्तक की महत्ता इस लिए भी बढ़ जाती है कि इसमें काग़ज़ी शोध ना होकर पहले उन बंदियों और कैदियों के साथ उनके कल्याणार्थ कार्य किये गये , फिर उनके प्रतिफलों को इस पुस्तक में प्रकाशित किया गया।

किताब 'तिनका तिनका डासना' का एक हिस्सा है। उसका परिणाम दूरगामी रहा। जेल में बनायी गयी एक खास दीवार में जेल की ज़िन्दगी पर 10 खास बिंब बनाये गये। इस दीवार के सामने बंदियों ने वर्तिका नन्दा का लिखा गाना गाया। जब उसे फिल्माया गया, तब जेल में उत्साह देखने लायक था। वह गाना यूट्यूब पर है, लेकिन गाने से बड़ी बात है - वह सम्मान, जो इन बंदियों को मिला। इन बंदियों ने लेखिका से अपने नाम और अपनी पहचान देने की इच्छा जतायी। इच्छा पूरी हुई और बाद के सालों में जेल से छूटने पर भी मिला- जेल में सृजन कर पाने का सुकून। पुस्तक 'तिनका तिनका डासना' उसी सुकून की कथा है, जिसका कोई 'स्पांसर' नहीं था। ऊपरी शक्ति के संबल से लिखी यह कथा जेल को सम्मान और साहस की जगह देती है।  



2 comments:

Anonymous said...

After a few days in prison, prisoners can feel as if they are avoided by society. They may agonize over what others in the outside world would think about them. This arouses feelings of frustration, which are revealed in their behavior with fellow prisoners and their daily activities.But Dr. Vartika Nanda feels the pain of the prisoner and through her Tinka Tinka foundation,she took initiatives to bring radio to jail, which creates crucial in preserving lives in prisons, assumed greater significance during the COVID-19 pandemic.She also took initiative for the the condition of women inmates and their children in Indian Prisons and their communication.
She also done many others reform movement for the betterment of prisoner. Great work Mam...

Mehvish Rashid said...

तिनका तिनका डासना वर्तिका नंदा की उस श्रृंखला का नाम है, जिसने इसके अंदर रहने वाले लोगों के दिलों में जोश- ओ- उमंग को जन्म दिया, उनकी आंखो को नए सपने और उनके जीवन में रोशनी फैलाई । इस किताब के हर पन्ने के जरिए एक ऐसे समाज को देखा जा सकता है जिसे न्याय की जरूरत है। जेल के अंदर सज़ा काटकर बाहर निकलने वाले बंदियों की समाज उतनी आसानी से स्वीकार नहीं कर पाता है। जिसके वह साफ रूप से हकदार हैं।

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