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Jail Radio: Ambala

May 13, 2023

2023: 13 मई :जेल में एक तिनका उम्मीद अब भी बाकी : वर्तिका नन्दा

 ( 13 मई, 2023 के राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में पूरे पन्ने पर एक जरूरी आलेख)



जेल फिर से खबर में है। इस बार भी जेल तब तक खबर में रहेगी ,जब तक कोई अगली बुरी खबर ना आ जाए। जेल जैसे बाजार हो। कोई नुक्कड़ नाटक। रोमांच से भऱती मारधाड़ वाली कोई फिल्म। टीआरपी देता कोई मसाला। कुल मिलाकर कोई बेवजह की जगह, जहां बेकार लोगों का बसेरा है। यही पहचान जेल का नसीब है। तिहाड़ की घटना और इससे पहले भी हुई कई घटनाओं का पहला नतीजा यह होता है कि जिनका जेल से कोई सरोकार नहीं है, वो भी जेलों पर बोलने, लिखने और टिप्पणी करने लगते है। जेल सबका सार्वजनिक सामान बन जाती है। जेल पर सबका हक बन जाता है। लेकिन जेल इससे सहम जाती है। जेल का वजूद हिलता है और सबसे हाशिए पर सरक आता है- एक आम बंदी और ईमानदार जेल अधिकारी। इन दोनों की परवाह किसी को नहीं होती क्योंकि इनसे खबर की रोटियां सिक नहीं पातीं। 

इस समय जब तिहाड़ को लेकर खबर का बाजार गर्म है, यह याद दिलाना मुझे जरूरी लगता है कि इसी तिहाड़ ने ठीक 10 साल पहले, 2013 में, कई कीर्तिमान स्थापित किए थे। इसका नाम था- तिनका तिनका तिहाड़। पर मेरी यह यात्रा 1993 में शुरु हुई थी। तब मेंने तिहाड़ को पहली बार देखा था। इसके बाद के सालों में टेलीविजन रिपोर्टिंग, इलेक्ट्रानिक मीडिया की पहली महिला पत्रकार कै तौर पर क्राइम बीट की प्रमुखता, बलात्कार की रिपोर्टिंग पर पीएचडी- ऐसे बहुत-से कारकों के बीच तिनका तिनका का जन्म हुआ और जेल का काम हमेशा के लिए मेरी जिंदगी बन गया। मैं जेलों को करीब से देखती गई। जिंदगी बेहतर तरीके से समझ में आने लगी। तिनका तिनका की वजह से जेल से नाता जुड़ा। समाज से छूटा। जेल पर काम करने की कीमत चुकानी थी। जेल का काम चुप्पी और एकांतवास मांगता है। अपनाने में हर्ज न था।

2013 में देश के गृहमंत्री ने विज्ञान भवन में भारत की तरफ से पहली बार आयोजित की जा रही एशिया प्रशांत क्षेत्रों की अंतर्राष्ट्रीय कांफ्रेस में सम्मालन की शुरुआत तिनका तिनका तिहाड़ शीर्षक की किताब और उसी पर लिखे गाने की सीडी के विमोचन से की। इस किताब का संपादन मैंने और विमला मेहरा (तब दिल्ली जेल की महानिदेशक) ने किया था। किताब के केंद्र में जेल नंबर 6 में बंद 4 महिला बंदिनियां थीं। उस सुबह उस विस्तृत मंच पर किताब और सीडी थामे सोचा भी नहीं था कि ठीक 10 साल बाद 2023 में जब इसकी कहानी को लिखने बैठूंगी, तब तक देश भर के कई तिनके इससे जुड़ चुके होंगे। हिंदी और अंग्रेजी के अलावा इस किताब का अनुवाद चार भारतीय भाषाओं में हुआ और इतालियन में भी। 2018 में इस किताब के मराठी संस्करण का विमोचन महाराष्ट्र की यरावदा जेल मे किया गया। किताब 2015 में लिम्का बुक आफ रिकार्ड्स में शामिल हुई। जेल की चारदीवारी पर एक लंबी म्यूरल पेंटिंग बनी जो देश की सबसे लंबी म्यूरल पेंटिंग थी। इसका उद्घाटन दिल्ली के उपराज्यपाल ने किया। रंगों से भरी दीवार पर किताब से ली गई सीमा की कविता- चारदीवारी की यह पंक्तियां उकेरी गईं-  सुबह लिखती हूं, शाम लिखती हूं, इस चारदीवारी में बैठी बस, तेरा नाम लिखती हूं। दीवार आज भी उसी अंदाज से सजी है। 

इसके बाद मेरा लिखा गाना- तिनका तिनका तिहाड़- इसी जेल में शूट हुआ। गाना यूट्यूब पर है। इसे बंदियों ने गाया था। इसे गाने वाला प्रमुख बंदी जेल से रिहा होने के बाद लंबा जी न सका लेकिन यह गाना आज उसके काम को जिंदा रखे है।

तिनका तिनका तिहाड़ है/तिनके का इतिहास है/तिनके का अहसास है/तिनके में भी आस है

लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने संसद भवन के अपने कक्ष में इस गाने का विमोचन किया। आज भी, तिनका तिनका तिहाड़ किसी ने किसी रूप में जिंदा है। 

इस पृष्ठभूमि में तिहाड़ में हुई हालिया घटनाओं को लेकर अपनी टिप्पणी देते हुए कई बार सोचना पड़ा। यह लिखना लाजिमी लगा कि किसी एक घटना या घटनाओं की वजह से पूरी जेल व्यवस्था को दोषी ठहरा देना ठीक न होगा। जेल राज्य का विषय है। दुरुह है। बाकी अन्य विभागों की तरह जेल की भी अपनी चुनौतियां हैं। बेशक जेल में किसी बंदी को इस तरह से मार दिया जाना अक्षम्य और अमानवीय है लेकिन इसकी वजह से सभी को एक ही चश्मे से देखना और सभी पर एक ही नीति को लागू कर देना भी उतना ही अमानवीय होगा।  

जेलों का नुकसान तीन तरह के लोगो ने किया है। मीडिया, बाहर के  टिप्पणीकार और तीसरा खुद जेल का स्टाफ। एक टापू की तरह संचालित होनी वाली जेलें मीडिया और जनता के लिए हमेशा रोमांच और कौतुहल का विषय रही हैंं लेकिन मीडिया और फिल्मों के लिए जेल तिजोरी भरने का साधन भर ही है। उनके लिए जेल सरोकार नहीं है। मनोरंजन है। अपनी जगह भरने का सुंदर टिकाना। बाहर के टिप्पणीकार और कई बार शिक्षाविद भी जेल को जाने बिना ही जेल को लेकर बड़ी टिप्पणियां करते हैं, हिदायतें और धमकियां भी देती हैं। यह जाने बिना कि जेल को जाने बिना सारी जेल को सुविधापरक वीआईपी धरातल कह देना अनुचित है। अनुभव के बिना लिखने और चिल्लाने से जेल का कोई भला नहीं होता। इसी तरह जेल का स्टाफ अगर वाचाल है या यह नहीं जानता कि उसकी क्या सीमाएं हैं तो वह जेल का सबसे बड़ा दुश्मन हो सकता है। तिहाड़ की घटना पर जेल के कई अधिकारियों ने तिहाड़ के पूरे स्टाफ पर टिप्पणी करनी शुरू कर दी, यह सोचे बिना कि इस तरह की घटना उनकी जेल में भी हो सकती है। इस वाचाल कबड्डी में कई रिटायर्ड अधिकारी भी कहीं पीछे नहीं हैं। कुछ को ऐसी घटनाओं में अपने लिए सुअवसर दिखने लगता है। इसमें यह बात भी गौर करने लायक है कि तिहाड़ की इतनी बड़ी घटना खुद तिहाड़ के ही स्टाफ की मिलीभगत के बिना होनी असंभव थी। जेल के अंदर की कमजोर कड़ियों के बिना इतनी बड़ी घटना हो ही नहीं सकती। चार्लस शोभराज से लेकर टिल्लू तेजपुरिया तक जेल स्टाफ का एक हिस्सा ऐसे अपराधों का साझीदार होता ही है। दायरे में रहते हुए यह भी लिखा जाना जरूरी है कि भारत में न्याय व्यवआपराधिक मामलों को जल्दी निपटाने में असफल रही है। इसमें जजों की संख्या में कमी ने भी जेलों को भीड़ से भर दिया है। 

जेल में हुई घटनाओं का खामियाजा एक आम बंदी को ही उठाना पड़ता है। मध्य प्रदेश की सेंट्रल जेल भोपाल में 2016 में दीवाली की रात सिमी के आठ बंदी फरार हो गए थे लेकिन इस घटना का नतीजा आम बंदी को उठाना पड़ा। बाद में इंदौर की जेल में मैं जब महिला बंदियों से मिली तो उन्होंने बताया कि भीषण सर्दी में भी उन्हें अपने घर से तेल मंगवाने की इज़ाजत नहीं थी। पथरीली जमीन पर महिलाएं शुष्क शरीर के साथ सोने के लिए मजबूर थीं। वो कहीं भागने वाली नहीं थीं। वो सिमी की आतंकवादी भी नहीं थी लेकिन चूंकि अपराधी उनके राज्य की एक जेल से भागे थे, इसका परिणाम इन महिलाओं को उठाना पड़ा और साथ ही उनके बच्चों को भी।

जेलों में हत्या, मार-पीट और अनुशासनहीनता जैसी तमाम घटनाओं के बाद बंदियों की मुलाकातों पर असर पड़ता हैं। उनके लिए आने वाले सामान पर भी बंदिशें लगने लगती है। मीडिया को इसकी  कोई परवाह नहीं। कई जेलों में मुलाकातियों द्वारा लाई जाने वाली भोजन सामग्री में कटौती कर दी जाती है। इन मुलाकातों का टकटकी लगाकर इंतजार करते बंदी पर जब किसी और की वजह से बंदिशों का दवाब बढ़ता है तो वो अंदर से हार जाता है। तिहाड़ की घटना शर्मनाक है लेकिन उससे कम शर्मनाक मीडिया का रवैया भी नहीं है। मानवाधिकार के बेतहाशा दबाव और मीडिया की नकारात्मकता की वजह से कई जेलें डर से भर गईं हैं। 

जेलों का एक मानवीय चेहरा भी है। कोरोना के समय जब पूरी दुनिया अपने घरों में सिमटे रहना चाहती थी, तब इन बंदियों ने बाहर के लोगों की परवाह किए बिना मास्क और सैनिटाइजर बनाए। कुछ जेलों ने बाहर की दुनिया के लिए रोटियां तक बनवाकर भेजीं। बाहर की दुनिया ने पलटकर इनकी तरफ देखा तक नहीं। इसी तरह  जेल का एक बड़ा स्टाफ बंदियों की हिफ़ाज़त में जुटा रहा। महाराष्ट्र में तो कुछ जेल अधिकारी जेल में ही रहने लगे ताकि उनकी बार-बार आवाजाही से जेल में कोरोना न हो। 

भारत की राष्ट्रपति ने कुछ महीने पहले कहा था कि क्या जेलें बंद नहीं की जा सकतीं। उनकी चिंता थी कि जेलों में बड़ी तादाद में ऐसे लोग हैं जो छोटे अपराधों की वजह से जेल में बंद हैं। विचाराधीन हैं। बेल के पैसे नहीं दे सकते। तब रातोंरात जेल पर खबरें चलीं। फिर मामला ठप्प।

जेलें बंद नहीं हो सकतीं। जब तक समाज रहेगा, जेलें भी रहेंगी। हां, उन्हें मानवीय और सुधारात्मक जरूर बनाया जा सकता है लेकिन जिन जेलों में भ्रष्टाचार की निगरानी का मजबूत तंत्र न हो, समयसीमा के भीतर कड़ी कार्रवाई न हो, काडर व्यवस्था दुरुस्त न हो, आइपीएस और जेल काडर के अधिकारियों में अनवरत तनातनी हो, प्रमोशन समय पर न होते हों, स्टाफ के रहने और छुट्टी की नियत सुविधाएं न हों, बदहाल घर हों, बेहतरीन काम पर भी कोई प्रोत्साहन न हो और काम न जानने वाले बाहर से आकर साम्राज्य चलाने के लिए लाए गए नौसिखिए अधिकारी हों, वहां जेल को सुधारने की बात सोचना किसी मजाक से कम नहीं। भारत के गृह मंत्रालय को सबसे पहले इस काडर सिस्टम पर गौर करते हुए जरूरी बदलाव करने चाहिए, जेलों की सुरक्षा पर होने वाले खर्च की जांच करनी चाहिए, जेल अधिकारियों की नियमित ट्रेनिंग और उनके मानसिक स्वास्थ्य का आकलन होना चाहिए, अयोग्य, अक्षम या बाहर से लाए गए जेल के काम से अनभिज्ञ अधिकारियों को जेल का जिम्मा देने की बजाय व्यावसायिक रूप से कुशल लोगों को जेल की बागडोर दी जाए और हां, जब यह प्रक्रिया चल रही हो तो बाहरी तत्वों को टिप्पणी करने की बजाय मंत्रालय और जेल को अपना काम करते रहने की आजादी देनी चाहिए। मीडिया को भी इतनी कृपा करनी चाहिए कि वह

जेलों के उजले पक्षों पर भी कभी-कभार बात करे और जेल को कुछ हद तक जेल की तरह रहने दे। हाल के दिनों में एक जेल में मैंने एक पत्रकार को जेल के एक स्टाफ से इस बात पर बहस करते देखा कि जब पूरी जेल के हर बंदी के पास मोबाइल है तो वह अपना मोबाइल क्यों जेल के अंदर नहीं ले जा सकता। जेल के किसी एक बंदी के पास अवैध रूप से मोबाइल होने का मतलब यह नहीं कि जेल के हर बंदी के पास फोन है। जेल अधिकारी पलट कर जवाब न दे पाए तो इसका मतलब यह नहीं कि पूरी जेल को अनुसासनविहीन मानकर उस पर मनमाना लेबल चिपका दिया जाए। इसी तरह जेल अधिकारियों को भी मीडिया के साथ अपना संवाद सधा और सटीक रखना होगा। दोनों अपनी सीमाओं और मर्यादाओं को समझें। यह ध्यान रहे कि आम बंदी और ईमानदार स्टाफ का मनोबल न टूटे। 

हरियाणा की जेलों में रेडियो लाने का काम तिनका तिनका फाउंडेशन ने ही किया था। 2021 में जिला जेल, पानीपत में राज्य का पहला जेल रेडियो आया था। 28 साल के बंदी कशिश ने तिनका जेल रेडियो के लिए जो गाना गाया था, उसका मुखड़ा जेल की मौजूदा स्थिति पर सही उतरता है-

दे दे तू मौका जिंदगी

इस बार जीने का

भारत भर की जेलों को एक मौका दिया जाना चाहिए, इस हिदायत के साथ कि अगर इस मौके का सही दिशा में और यथाशीघ्र इस्तेमाल नहीं हुआ तो जेलों के अंदर बचे भरोसे के खंडहर भी ढह जाएंगे।

(डॉ. वर्तिका नन्दा जेल सुधारक और मीडिया विशेलेषक हैं। उनकी स्थापित तिनका तिनका फाउंडेशन ने 2019 में जिला जेल, आगरा औऱ हरियाणा की जेलों में रेडियो स्थापित किया। भारत के राष्ट्रपति से सम्मानित। तिनका तिनका तिहाड़ दो बार लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में शामिल। वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्रीराम कॉलेज में पत्रकारिता विभाग की प्रमुख )

Email: tinkatinkaorg@gmail.com 

 








3 comments:

Prisha Kapoor said...


"दे दे तू मौका जिंदगी एक बार जीने का " सुन्दर और सच्चाई से सरोबार पंक्ति। बंदी भी जीना चाहते है और यह मौका देने की कोशिश तिनका तिनका फाउंडेशन कर रही है। फाउंडेशन ने काफी सराहनीये कदम उठायें है जेल रेडियो की स्थापना , बंदियों की रचनाओं का प्रकाशन , उनके लिए तिनका अवार्ड्स केलिन्डर, गाना, लाइब्रेरी। छोटे छोटे पर काफी सारे कदम। जरूरत है सरकार के प्रोत्साहन की उनमे भी समाज मैं वापिस एक नयी पहचान के साथ जाने की इच्छा होगी। #tinkatinka #prisonreform

Unknown said...

The clipping is not clear. Please re post new one

Vaanya Shukla said...

Beautifully written! As #Gangwar in #Tihar makes the headlines, we must remember our prisoners are much more than that. As @tinkatinkaorg1 advocates, we must not let such incidents tamper our belief in the humans inside - they're still people with flaws, humans capable of change and reformation. We CAN NOT let this one incident define the intentions of honest jail staff, authorities and the entire system which has already began it's journey towards reform. Reformation takes time, change is ALWAYS gradual.