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LANGUAGE AND PRINCIPLES OF ONLINE NEWS WRITING

Jul 5, 2010

यह है इंडिया वालों के लिए मेरा फोन नंबर

यात्रा और अनुभव से बढ़कर जिंदगी का असल शब्दकोष शायद कुछ और हो ही नहीं सकता। इस बार भी यह विश्वास पुख्ता हुआ। अगरतला की हाल की एक संक्षिप्त यात्रा ने समझ की कई खिड़कियों को खोला।

अगरतला से 7 किलोमीटर दूर जब एक अधिकारी ने वहां के अन्नानास की खूबियां गिनाईं तो वो जरा अतिरेक लगीं। दिल्ली वालों के विश्वास के स्तर का अंदाजा लगते ही पास खड़ा माली भाग कर खेत में से दो अन्नानास ले आया। पल भर में उसने उन्हें छील दिया और अन्नानास हमारे हाथ में आने से पहले टपकते हुए रस में भीगा दिखा। उसे खाते ही समझ में आ गया कि जो तारीफ अभी की गई थी, अन्नानास वाकई उससे कहीं ज्यादा काबिल था।

दरअसल विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर एक सेमिनार में बोलने के बहाने पहली बार अगरतला देखने का मौका मिला। छोटी सी यात्रा से समझ में आया कि कैसे और क्यों उत्तर पूर्व अपनी तमाम काबलियत के बावजूद कई बार खुद को छूटा हुआ महसूस करता है। अर्पण नाम की एक संस्था ने ही इस सेमिनार का आयोजन किया था और अपने सामर्थ्य से कहीं बढ़कर इसे सफल बना डाला था। पहले दिन सूचना तकनीक मंत्री की मौजूदगी में लोक मीडिया अच्छी तादाद में जमा हुआ लेकिन दूसरे दिन मंत्री की गैर-मौजूदगी और फिर रविवार का दिन मीडिया के भी लापरवाह होने की काफी बड़ी वजह बना। लेकिन यह साफ दिखा कि दिल्ली के मुकाबले वहां के नेता और लोकल मीडिया अभी भी काफी हद तक जमीनी ही हैं। यह लोकल मीडिया की सार्थक भूमिका का ही कमाल है कि उत्तर-पूर्व में आत्मविश्वास का स्तर काफी बढ़ा है। तमाम अखबारों और टीवी चैनलों के बीच अब भी यहां दूरदर्शन की कुछ साख बाकी है और तमाम तरह के सेमिनारों और उदघाटनों के कथित बोरियत भरे कार्यक्रमों के बीच लोग अब भी सरकारी चैनल की बाट जोहते हैं। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उत्तर पूर्व की जो कवरेज होती है, उससे यहां के लोग और सियासत दोनों ही काफी असंतुष्ट दिखते हैं। कुछ साल पहले जब अगरतला की ही एक लड़की इंडियन आइडल में अपने झंडे गाढ़ती है तो यहां के लोग उसकी जीत के अलावा इस बात की भी खुशी मनाते हैं कि कम से कम इसी बहाने सही, मीडिया में अगरतला की सकारात्मक चर्चा तो होगी।

लौटते समय सिल्चर विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष, प्रोफेसर और जाने-माने शिक्षाविद् के वी नागराज ने अपना विजिटिंग कार्ड देते हुए टिप्पणी की कि यह मेरा ईमेल है और यह है इंडिया वालों के लिए मेरा फोन नंबर। बात दिल को छू गई। उत्तर पूर्व को लेकर खास तौर से उत्तर भारतीयों ने जो उपेक्षा भाव हमेशा रखा है, वह उन्हें वाकई इंडिया शाइनिंग जैसा नकारा ही बनाता है। यह इत्तेफाक ही है कि इन दिनों इंडिया वाले दलित एजेंडा, जाति एजेंडा, धर्म एजेंडा, गोत्र एजेंडा को लेकर बहसों में इतने उलझ गए हैं कि उनके पास उत्तर पूर्व को एक सार्थक एजेंडे में डालने का समय ही नहीं है। वायु और सड़क से पहले के मुकाबले अब कहीं बेहतर संपर्क स्थापित हो जाने के बावजूद उत्तर पूर्व के लोगों में एक उपेक्षित भाव सहज ही दिखता है जो राष्ट्रीय मीडिया और दिल्ली के गोल चबूतरे में बैठने वाले मसखरों की वजह से उपजा है। भौगौलिक दूरियों के सिमटने और केंद्र से मिलने वाले पैकेज के बावजूद अगर आज भी उत्तर पूर्व की यही हास्यास्पद स्थिति कायम है तो इस पर चिंता करना लाजमी बनता है। अब जबकि कालेजों के खुलने का समय आ गया है, कम से कम इतनी कोशिश तो होनी ही चाहिए कि उत्तर पूर्व से आने वाले छात्रों के प्रति थोड़ा अतिरिक्त सम्मान भाव बरता जाए ताकि उनके मन में उत्तर भारतीयों की जो अगंभीर छवि की बर्फ जमी हुई है, वो कुछ तो पिघले।

(यह लेख 2 जुलाई, 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

5 comments:

संगीता पुरी said...

आपकी सोंच सही है !!

Satish Saxena said...

यह तकलीफ गलत नहीं है आज भी उत्तर पूर्व के लोगों को हम भारतीय नहीं मान पाते , उन्हें हम नेपाली कहकर अपनी मूर्खता का परिचय देते हैं ! घुलने मिलने में भी पहाड़ जैसा लगता है ! कैसे यह अपने देश को अपना कहें ...इस कडवाहट को दूर करने के लिए हमें अपने को बदलना पड़ेगा !
अच्छा और दुर्लभ लेख , शुभकामनायें !

पंकज मिश्रा said...

बहु अच्छा यात्रा वृतांत है वर्तिका जी। आपको साधुवाद। एक बात जानना चाहता हूं कि कई लेख भास्कर के सभी संस्करणों में प्रकाशित नहीं होते हैं क्या। मैं ग्वालियर में हूं और यहां यह लेख अखबार में पढऩे को नहीं मिलते ऐसा क्यों है। कारण जानना चाहता हूं।
वैसे शानदार लेख के लिए और जानकारी में वृद्धि के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया।

rajendras said...

वर्तिकाजी सादर अभिवादन स्वीकार करें। आज आपका ब्लॉग पढ़ने को मिला। प‍त्रकारिता जगत की जानकारियाँ एवं आपके अनुभव पढ़ने को मिले।

संजय पाराशर said...

आपकी बात पूरी तरह ठीक है लेकिन मुश्किल है प्रेम उपजना......सबके अपने -अपने स्वार्थ जुड़े हैं ....