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Pornography and Its Negative Affect on Women

Apr 21, 2009

खबर और आत्मा की आवाज

ब्रिटेन में पत्रकारिता का स्तर गिरावट पर है। यहां अखबारों की विश्वसनीयता दिनोंदिन घट रही है। यह बात उस रिपोर्ट का मूल सार है जिसे ब्रिटेन की एक स्वायत्त संस्था, मीडिया स्टैंडरर्ड्स ट्रस्ट ने जारी किया है। फाइनेंशियल टाइम्स ग्रुप के चेयरमैन सर डेविड बैल इसके चेयरमैन हैं। इस रिपोर्ट ने खास तौर से उस घटना को आधार बनाया है जिसमें दो साल पहले एक ब्रिटिश लड़की खो गई थी। चार साल की मैजेलिन मैक्कन नामक एक लड़की अपने माता-पिता के साथ घूमने पुर्तगाल जाती है और वहीं से वह गुम जाती है। रिपोर्ट के मुताबिक इस घटना की रिपोर्टिंग विवादास्पद होने के साथ ही बेहद आपत्तिजनक भी थी। यह खबर हफ्तों ब्रिटिश मीडिया में हेडलाइन बनी रही लेकिन ज्यादातर रिपोर्टिंग गॉसिप और तुक्कों पर आधारित ही दिखी। मिसाल के तौर पर बड़े पैमाने पर यह लिखा गया कि हो सकता है कि मैडेलिन के मां-बाप की गलती से ही मैडेलिन की ‘मौत’ हो गई हो और उसके बाद उन्होंने ही मौडलिन के अगवा होने की कहानी ‘पकाई’ हो। रिपोर्टिंग के इस अंदाज पर कुछ दिनों बाद खुद मैडेलिन के पिता ने कहा कि अपने अखबारों की बिक्री बढ़ाने के लिए प्रिंट मीडिया ने उनका इस्तेमाल एक ‘कोमोडिटी’ के रूप में किया। इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाते हुए मीडिया स्टैंडरर्ड्स ट्रस्ट ने यह बात भी कही है कि रिपोर्टरों ने इस तरह की गैर-जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग इसलिए की क्योंकि वे खुद ‘संपादकों के दबाव में थे।’ वेस्टमिनस्टर यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर ऑफ कम्यूनिकेशंस प्रोफेसर स्टीवन बारनेट भी इस शोध का हिस्सा थे। उन्होंने समूचे प्रकरण के अध्ययन के बाद टिप्पणी की कि जो पत्रकार इस घटना की रिपोर्टिंग के लिए पुर्तगाल भेजे गए थे, उन्हें संपादकों की तरफ से साफ निर्देश दिए गए थे कि उन्हें हर रोज एक एक्सक्लूजिव स्टोरी फाइल करनी होगी ‘चाहे जो भी हो जाए।’ कहना न होगा कि ज्यादातर पत्रकारों ने कड़वे सच को दिखाती इस रिपोर्ट का स्वागत किया है। इसी आधार पर नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट ने अपनी बरसों पुरानी मांग को दोहराया है कि पत्रकार को किसी स्टोरी को इंकार करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। एनयूजे का कहना है कि हर पत्रकार के कांट्रेक्ट में ‘कान्शियस क्लाज’ जरूर शामिल किया जाना चाहिए जो कि उन्हें किसी भी ऐसी स्टोरी को करने से इंकार करने का अधिकार दे जिसे उनकी आत्मा स्वीकार नहीं करती। स्वाभाविक है कि मीडिया जगत, खास तौर से प्रिंट मीडिया, इस रिपोर्ट से न तो खुश है और न ही सहमत। खुद प्रेस कंप्लेट्स कमिशन के चेयरमैन सर क्रिस्टोफर मेयर ने इस रिपोर्ट को संदेहास्पद, लापरवाह और बिना सबूतों के बुनियाद पर बनाया बताया है। लेकिन यह एक विरला मौका है जब प्रेस की विश्वसनीयता को इतना खुल कर कटघरे में खड़ा किया गया है। शोध में इस बात का खुलासा है कि 75 प्रतिशत लोग यह मानते हैं कि ‘अखबारें आमतौर पर ऐसी खबरें छापते रहते हैं जिनके बारे में वे जानते हैं कि वे पूरी तरह से सच्ची नहीं हैं।’ अखबारों पर लोगों का विश्वास इतना गिरा है कि सिर्फ 7 प्रतिशत लोग यह उम्मीद करते हैं कि अखबारों को अपना काम जिम्मेदारी से निभाना चाहिए। विश्वास का यह स्तर बैंकों पर लोगों के मौजूदा विश्वास से भी काफी कम है। शोध के लिए जिन लोगों से संपर्क किया गया, उन में से 60 फीसदी लोगों ने माना कि निजता की रक्षा के लिए अब सरकार का दखल जरूरी हो गया है जबकि 73 फीसदी ने इस बात पर जोर दिया कि मीडिया की गलत रिपोर्टिंग को रोकने के लिए सराकर को अब कड़े कदम उठाने ही चाहिए। इसी तरह सामाजिक चिंतक ईयान हारगीव्स ने अपनी विख्यात किताब ‘जर्नलिज्म’ में साफ तौर पर यह लिखा कि सर्वेक्षण कहते हैं कि पत्रकारों का रूतबा और उन पर जनता का विश्वास पहले जैसा नहीं रहा। आलम यह है कि वे राजनेताओं की ही तरह विश्वसनीय नहीं माने जाते। उनका मानना है कि हाईपर जर्नलिज्म और जंक जर्नलिज्म ने पत्रकारों को बरसों पुराने अपने इज्जतदार रूतबे से ठीक विपरीत ध्रुव पर लाकर पटक दिया है। लब्बोलुबाब यह कि अकेले भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के और भी कई देशों में चल रही पत्रकारिता ने अब विश्लेषकों को खुलकर आलोचना करने के लिए विवश कर दिया है। यह उस समय हो रहा है जब मीडिया अपने चरम पर है लेकिन तकनीकी प्रगति का यह चरम अपने साथ मीडियाई उद्दंडता भी लेकर चला आया है। ब्रिटेन से भी रिपोर्ट ऐसे समय में आई है जब भारत में गैर-जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग पर चीख-चीख कर बहसें हो रही हैं। करगिल से लेकर मुंबई हमले तक भारत में रिपोर्टिंग का मनमानापन सबने देखा है। मैजेलिन मैक्कन की तरह हमारे यहां आरूषि की कहानी को तमाम मसालों के साथ भूना गया था। नैना साहनी की हत्या से लेकर जिगिषा कांड तक मीडिया ने अक्सर टिप्पणियां करते हुए मर्यादा को भूल जाने की गलती की है। इसीलिए कई बार मीडिया पर अंकुश लगाने की सही या गलत जो भी, लेकिन मांगें उठी जरूर। पर इस बार मीडिया स्टैंडरर्ड्स ट्रस्ट ने मीडिया के सरासर बदमाशी पर उतर आने पर जो तीखा वार किया है, वह इस ख्याल को जन्म जरूर देता है कि भारत में भी पत्रकारों की विश्वसनीयता के स्तर को आंकने के लिए जन-सर्वेक्षण करने का समय आ गया है ताकि नीति-निर्धारक बन बैठे मीडिया मालिकों को कुछ सबक मिले। बेशक इस मामले में सीधा और कड़ा मुकाबला राजनेताओं और पत्रकारों के बीच ही होगा और इसलिए इसे देखना बेहद दिलचस्प होगा।

(यह लेख 19 अप्रैल, 2009 को दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित हुआ)

5 comments:

अजय कुमार झा said...

vartikaa jee,
bahut saargarbhit aalekh likhaa hai aapne, mere vichaar se iskee shuraat to tabhee ho gayee thee jab bbc vishwa sewa ke pramukh ko inheee kaarno se isteefaa dena pada tha, achhaa lekh hai.

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

यह बात तो भारत में भी है. अखबार ही क्यों, पूरी की पूरी मीडिया पर भरोसा करना लोगों ने छोड़ दिया है. जहां तक यहां अखबारों के बिकने या टीवी चैनल देखे जाने के आंकड़ों की बात है, तो उस मामले में यहां का तंत्र कितना भरोसेमन्द है, इस पर कुछ कहना हास्यास्पद होगा.

हें प्रभु यह तेरापंथ said...

पत्रकारिता का वर्तमान स्तर खोजी ना रहकर गॉसीप रह गया। यह चिन्ता का विषय है।

विजय तिवारी " किसलय " said...

पत्रकारिता पर आपके द्बारा उठाया गया मुद्दा एक सार्थक पहल है
- विजय

Dileepraaj Nagpal said...

शमशीर नहीं है हाथ में तो क्या हुआ,
हम कलम से करेंगे कातिलों के सर कलम...

काश, सभी के मन में ये जज्बा होता...