Dec 13, 2009

दर्शकों से दूर होता दूरदर्शन

 खबर अंग्रेजी के एक ऐसे अखबार में पढ़ने को मिली जिसका नाम नई पीढ़ी को शायद पता भी न हो लेकिन खबर आईना दिखाने वाली थी। खबर यह थी कि सिल्चर स्थित दूरदर्शन केंद्र बंद होने के मुहाने पर खड़ा है। वजह है कार्यक्रेमों के लगातार घटते स्तर की वजह से दर्शकों में बेहद कमी का रिकार्ड होना। कहा गया है कि यहां पर दूरदर्शन केंद्र की काम करने वाले दिखते ही नहीं। फिलहाल स्थिति यह है कि कार्यक्रम रिपीट होते जाते हैं, उनमें विविधता की कमी साफ दिखने लगी है और यहां तक कि हफ्ते में एक बार प्रसारित होने वाला बंग्ला बुलेटिन भी बासी खबरों का फटा गुलदस्ता बनने लगा है। यही वजह है कि अब तक दूरदर्शन पर निर्भर रहने वाले सुदूर इलाकों के लोगों ने भी दूरदर्शन को देखना तकरीबन बंद कर दिया है। ऐसे में सरकार को शायद आसान यही लग रहा होगा कि इस सफेद हाथी को अब चिड़ियाघर का अतीत बनाने में ही भलाई है।

 

लेकिन सरकारें सोचती नहीं। वे मंथन नहीं करतीं। फाइलों के सरकारी कवि सम्मेलन में फैसले देर से लिए जाते हैं,राजनीति से प्रेरित होते हैं और जन-हित के नाम पर तमाम तरह की कबड्डी करने में माहिर होते हैं। सरकारें जिम्मेदार लोगों की जिम्मेदारी तय नहीं करतीं। जनता के पैसे को हवा में उड़ाने वालों पर सख्त कारर्वाई नहीं होती। फीडबैक नहीं लिए जाते, सलामशाही और हाइरारकी में सब कुछ ऐसा गुत्मगुत्था रहता है कि असल में काम करने वाले जरूरी बैठकों में साहब लोगों की चाय का इंतजाम करने में ही समेट कर रख दिए जाते हैं।

 

इसमें कभी कोई शक हो ही नहीं सकता कि दूरदर्शन जैसा जनहित सेवक वाकई पूरी दुनिया में नहीं। जनता के वे तमाम जमीनी मुद्दे जो ईलीट क्लास के निजी चैनलों को समझ भी नहीं आते, दूरदर्शन उन्हें मजे से निभाता है। लेकिन किस कीमत पर, किस गुणवत्ता पर। असल में अपने वर्चस्व की शंहशाही के दौर में ही उसे जिस चोटी पर पहुंचना चाहिए था, उसमें वह चूक गया। उस दौर में भले ही उसने हम लोग,रामायण, महाभारत दिखाकर इतिहास रचा लेकिन इन्हें बनाया खुद नहीं। ये निजी हाथों से बन कर आए। बाद में नए चैनल आए तो उन्होंने रोज दूरदर्शन को पटखनी दी और दूरदर्शन की ही मलाई खाकर कइयों ने अपने चैनल खो लिए। ये वे लोग हैं जो आज दूरदर्शन के नाम पर बैंगन सा मुंह बना लेते हैं और इस गाने को गुनगुनाते हैं कि हम दूरदर्शन जैसे नहीं हैं, हम स्मार्ट, तेज, खास और आधुनिक हैं।

 

यह ठीक है कि दूरदर्शन की खबरों में आज भी विश्वसनीयता है लेकिन उसकी गति और दुर्गति देखिए। राजीव गांधी ने अपनी मां की हत्या की खबर तो बीबीसी से ही पुख्ता की थी।

 

मौजूदा समय में डीडी न्यूज ने मेकओवर की कोशिश की लेकिन सफेद हाथी को कमाऊ हाथी बनाना कोई आसान काम नहीं। यहां की नियुक्तियां मंत्रालय के बड़े दरवाजे की मेहरबानी पर काफी हद तक टिकी होती हैं। बाहर के टूर पर जाने का वरदान किसे मिलना है, यह भी आम तौर पर मेरिट नहीं, मंत्रालय का आशीर्वाद या उनका नियुक्त सिपाही तय करता है। खबरों का चुनाव आज भी पूरी तरह से मेरिट पर नहीं होता। अपने सरकारी ड्रामे के चलते जिस दूरदर्शन ने जेपी की महा सफल रैली को ही पूरी तरह फ्लाप बता दिया था, उस पर न्यूज के मामले में इतनी जल्दी विश्वास की पटरी बिछाई भी नहीं जा सकती।

 

खैर,बात सिल्चर की हो रही थी। सूचना के मुताबिक असम प्रदेश कांग्रेस कमेटी(मीडिया सैल)के सदस्य प्रदीप दत्ता राय इस बारे में सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सीनी को एक मेमोरेंडम भेज चुके हैं। इसके अलावा पूर्व केंद्री मंत्री संतोष मोहन देव और केबिनेट मंत्री गौतम राय भी इस बारे में चिंता जता चुके हैं लेकिन अभी तक कुछ ठोस होने की कोई खबर नहीं मालूम हुई है।

 

इस साल अगस्त में ही संसद में अंबिका सोनी ने खुद स्वीकार किया था कि पिछले तीन साल के दौरान दूरदर्शन की सालाना आय इसके सालाना व्यय की तुलना में कम रही है। दूरदर्शन फ्री टू एयर डीटीएच सेवा के अलावा 31 टीवी चैनलों को प्रचालित कर रहा है। 2008-09 में दूरदर्शन की आय 737.05 करोड़ रूपए और उसका व्यय 1356.86 करोड़ रूपए रहा। मतलब यह कि आमदनी अठन्नी, खर्चा रूपया। इसमें अकेले सिल्चर दूरदर्शन का भला क्या दोष। किसी को तो पहला शिकार बनना ही था। सिल्चर बन गया है,बाकी का नंबर इसके बाद आएगा। इसे लेकर बड़ी-बड़ीआवाजें भीउठेंगीं। ज्ञापन, आंदोलन, धरने, प्रदर्शन का दौर भी चल सकता है लेकिन दर्शक पर ज्यादा असरपड़ने वाला नहीं है। वे तो पहले ही इससे दूर होते जा रहे हैं।

 

(यह लेख 13 दिसंबर,2009 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ) 

Dec 10, 2009

कोई नतीजा निकलने की उम्मीद नहीं

सीबीआई ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में एक अर्जी डाल कर यह दरख्वास्त की कि जो मामले लंबित हों, उन पर मीडिया अपनी गैर-जिम्मेदाराना टिप्पणियों से बाज आए तो तफ्तीश के लिए बेहतर होगा। इस अर्जी में यह भी कहा गया है कि जांचकर्ताओं को वही खबर या बिखरे सूत्र मीडिया के साथ सांझे करने चाहिए जो कि जनहित में हों।

सीबीआई ने यह याचना भरी अपील खास तौर से आरूषि हत्याकांड में हुई अपनी किरकिरी के मद्देनजर की है। आरूषि तलवार की हत्या 16 मई, 2008 को नोएडा में उसके घर पर हुई थी और डेढ़ साल होने पर भी आज तक इस मामले के सिरे पर नहीं पहुंचा जा सका है। उधर मीडिया के लिए आरूषि किसी हिट फिल्म के फार्मूले से कम कभी नहीं रही। मीडिया ने इस मामले को बार-बार तवे पर सेका और उसके पिता से लेकर नौकर तक सभी को ऐसे जांचा जैसे कि असली जांच एजेंसी वह खुद ही हो।

बहरहाल, लौटते हैं सीबीआई की दलील पर। सीबीआई ने यह भी सलाह दी है कि जिन अधिकारियों ने इस घटना से जुड़े सच (या आधे सच)मीडिया से बांटे हैं, उन सबके खिलाफ सिविल और आपराधिक मामला चलाया जाना चाहिए ताकि बाकी अधिकारियों को भी सबक मिले। सीबीआई ने माना कि बिना सोचे-समझे खबरों को लीक किए जाने की वजह से कई लोगों की छवि पर दाग लगा है और इसके लिए यही अधिकारी दोषी हैं। इस मामले की तफ्तीश कर रहे पुलिस अधीक्षक  नीलाभ किशोर ने दलील दी कि अनाधिकारिक 'लीकेज' से मामले पेचीदा हो जाते हैं। सीबीआई के पास एक सुनियोजित व्यवस्था है जिसके जरिए ही खबर को मीडिया तक पहुंचाया जाता है लेकिन कुछ अधिकारी खबर को पहले और अधकच्चे ढंग से पहुंचाने के लिए कुछ ज्यादा ही लालायित रहते हैं।

यानी मामला पुलिसिया पत्रकारों का है। ऐसे पुलिस वाले जिनकी वर्दी के पीछे सीना पत्रकार का है और वे मामलों को सुलझाने से पहले मीडिया की छांव में जाकर बतियाना ज्यादा पसंद करते हैं।

सीबीआई ने अपील तो कर दी लेकिन वह भूल गई कि मीडिया को जनहित के बारे में समझाना ठीक वैसे ही है जैसे कि भैंस के आगे बीन बजाना। मीडियावाले तो फिर भी इस दलील को समझ लेगें और दबे जुबान इस पर हामी भी भरने लगें लेकिन वे हैं तो मुलाजिम ही। मालिक को समझाने-ऐंठने की हिम्मत सीबीआई में है नहीं। इसलिए ढाक के तीन पात ही रहे हैं, रहेंगें।

यहां एक मामले का जिक्र जरूरी लगता है। घटना जून, 2007 की है। चार साल की मैडेलिन मैक्कन नामक एक ब्रितानी लड़की अपने माता-पिता के साथ घूमने पुर्तगाल जाती है और वहीं से वह गुम जाती है। मैडेलिन के अभिभावक उसकी तलाश के लिए मीडिया से मदद मांगते हैं लेकिन मैडेलिन का कोई सुराग नहीं मिलता। कुछ दिनों बाद स्टोरी के लिए भूखा मीडिया यह खबर चलाने लगता है कि मैडेलिन की हत्या में उसके मां-बाप का भी हाथ हो सकता है। यह खबर हफ्तों ब्रिटिश मीडिया में हेडलाइन बनी रही। ज्यादातर रिपोर्टिंग गॉसिप और तुक्कों पर आधारित ही दिखी। बड़े पैमाने पर यह लिखा गया कि हो सकता है कि मैडेलिन के मां-बाप की गलती से ही मैडेलिन की 'मौत' हो गई हो और उसके बाद उन्होंने ही मौडलिन के अगवा होने की कहानी 'पकाई' हो। रिपोर्टिंग के इस अंदाज पर कुछ दिनों बाद खुद मैडेलिन के पिता ने कहा कि अपने अखबारों की बिक्री बढ़ाने के लिए प्रिंट मीडिया ने उनका इस्तेमाल एक 'कोमोडिटी' के रूप में किया। बेशक उन्हें खबरों की थोड़ी गिट्टियां थमाने का काम कुछ पुलिसवालों ने भी किया होगा।

घटना के करीब एक साल बाद, मार्च 2008 में मैक्केन दंपत्ति ने पुर्तगाल के एक अखबार के खिलाफ मानहानि का केस चलाया और वे इसे जीते भी। इसके तुरंत बाद ब्रिटेन की 4 अखबारों ने मुख पृष्ठ पर अमर्यादित रिपोर्टिंग के लिए माफीनामा छापा।

रिपोर्ट के मुताबिक इस घटना की रिपोर्टिंग विवादास्पद होने के साथ ही बेहद आपत्तिजनक भी थी। इस घटना का असर इतना गहरा रहा कि 2008 में ब्रिटेन की एक स्वायत्त संस्था, मीडिया स्टैंडरर्ड्स ट्रस्ट ने जारी अपनी एक रिपोर्ट में खुलकर कहा कि ब्रिटेन में पत्रकारिता का स्तर गिरावट पर है और यहां अखबारों की विश्वसनीयता दिनोंदिन घटती जा रही है। फाइनेंशियल टाइम्स ग्रुप के चेयरमैन सर डेविड बैल इसके चेयरमैन हैं।

इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाते हुए मीडिया स्टैंडरर्ड्स ट्रस्ट ने कहा कि रिपोर्टरों ने इस तरह की गैर-जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग इसलिए की क्योंकि वे खुद 'संपादकों के दबाव में थे।' वेस्टमिनस्टर यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर ऑफ कम्यूनिकेशंस प्रोफेसर स्टीवन बारनेट भी इस शोध का हिस्सा थे। उन्होंने समूचे प्रकरण के अध्ययन के बाद टिप्पणी की कि जो पत्रकार इस घटना की रिपोर्टिंग के लिए पुर्तगाल भेजे गए थे, उन्हें संपादकों की तरफ से साफ निर्देश दिए गए थे कि उन्हें हर रोज एक एक्सक्लूजिव स्टोरी फाइल करनी होगी 'चाहे जो भी हो जाए।'

कहना न होगा कि ज्यादातर पत्रकारों ने कड़वे सच को दिखाती इस रिपोर्ट का स्वागत किया। इसी आधार पर नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट ने अपनी बरसों पुरानी मांग को दोहराया कि पत्रकार को किसी स्टोरी को इंकार करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। एनयूजे का कहना है कि हर पत्रकार के कांट्रेक्ट में 'कान्शियस क्लाज' जरूर शामिल किया जाना चाहिए जो कि उन्हें किसी भी ऐसी स्टोरी को करने से इंकार करने का अधिकार दे जिसे उनकी आत्मा स्वीकार नहीं करती। इसके मायने यह भी लगाए जा सकते हैं कि पत्रकार को अपनी आत्मा की अभिव्यक्ति का अधिकार देने का समय अब आ गया है। स्वाभाविक है कि मीडिया जगत, खास तौर से प्रिंट मीडिया, इस रिपोर्ट से न तो खुश हुआ और न ही सहमत।

लेकिन इस बार भी सीबीआई ने जो आह भरी है, उससे कोई नतीजा निकलने की उम्मीद नहीं क्योंकि सीबीआई ने न तो किसी पर सीधे टिप्पणी की है और न ही ठोस सबूत दिए हैं। खबर को महाखबर या फिर एकदम चूहाखबर बना देने के कई किस्से हो चुके है। उनके बाद पुलिस और जांच एजेंसियों का खिसियानी बिल्ली की तरह खंभा नोचना भी पुराना खेल हो चुका। असल में ये तमाम बातें सिर्फ हवा में कही जाती  हैं और अगर इस बार भी हवा में कही बात को अगर हवा में ही उछाल दिया जाता है तो कोई हैरानी नहीं होगी। लगता यही है कि सीबीआई की मंशा कागज पर रिकार्ड भर देने की ही थी, असली घोड़े को दौड़ाने की नहीं।

(यह लेख 10 दिसंबर, 2009 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)