Mar 31, 2009

जूतों के पीछे क्या है?

जूते के दिन वाकई फिर गए हैं। पहले बुश, फिर चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ और अब अरूंधति राय। ताजा मामला तो अरूंधति राय का ही है। हुआ यूं कि हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय की आर्ट्स फैकल्टी में एक संगोष्ठी ‘हमारे समय में प्रेम’ का आयोजन किया गया था। कहा जा रहा है कि संगोष्ठी के दौरान ही शायद यूथ यूनिटी फॉर बाइब्रेंट एक्शन नामक एक संगठन के कुछ छात्र वहां अरूंधति राय के खिलाफ नारे लगाने लगे। इन युवकों का मानना था कि अरूंधति राय देशद्रोही हैं क्योंकि वे देश में रहते हुए भी कश्मीर की आजादी की बात करती हैं, संसद पर हुए हमले के आरोपित गिलानी का समर्थन करती हैं और बाटला हाउस एनकाउंटर पर सवाल खड़े करती हैं। ऐसी सोच को डीयू में स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसलिए राय पर जूता फेंका गया, यह बात अलग है कि पहली दोनों घटनाओं की तरह ही यहां भी वह जूता अपना निशाना चूक गया।
वैसे सोचने की बात यह भी है कि पिछले तीन महीने में जूते फेंकना सबसे आसान उपाय क्यों लगने लगा है और यह भी कि फेंके जाने वाले जूते-चप्पल असल निशाने से इतनी दूर जाकर ही क्यों गिरते हैं और जिन लोगों ने इस कारनामे को अंजाम दिया, उन्हें अंतत क्या हासिल हुआ?
दरअसल यह तमाम घटनाएं आक्रोश के बढ़ने और सीमा से पार करने की तो हैं ही लेकिन साथ ही लोकप्रियता हासिल करने और एकाएक चर्चा में आने के एक हथकंडे की भी हैं। मिसाल के तौर पर बुश पर जूते का निशाना साधने वाले पत्रकार मुंतेजर अल जैदी ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि टीवी चैनल की रात-दिन की नौकरी नहीं, बल्कि उसके पांव का घिसा हुआ जूता उसकी अंतर्राष्ट्रीय ख्याति की वजह बनेगा। यह किस्मत की बात है और समय की भी। बुश पर यही जूता अगर 26 नवंबर को (जब मुंबई आतंकियों से त्रस्त था और तमाम भारतीय चैनल उसकी लाइव कवरेज में व्यस्त थे) निशाना साधता तो वह इतनी कवरेज हासिल कर ही नहीं पाता क्योंकि तब चैनलों के पास खबर के केंद्र में था - बंदूक और आतंक। दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के पूर्व राष्ट्रपति पर जूते की यह घटना न्यूज के लिहाज से एक ठंडे दिन में घटती है और घटते ही वह खबर से महाखबर के करीब पहुंच जाती है। घटना के कुछ ही घंटों के अंदर इंटरनेट पर ऐसी गेम्स का कब्जा हो जाता है जो बुश पर निशाना साधते हुए स्कोरिंग पांय्ट्स बनाते हैं। न्यूज चैनल इस मुद्दे को झट लपकते हैं। बार-बार दोहराई जाती हैं वहीं तस्वीरें और बनते हैं आधे घंटे के विशेष कार्यक्रम। इनमें भी गंभीरता कम, मसखरी का टोन ज्यादा दिखाई देता है। इसकी कवरेज को जिस अंदाज में किया गया था, उसी से इस बात की संभावनाएं(या आशंकाएं) पनपने लगी थीं कि अब जूता फेंको प्रतियोगिता के दिन करीब है और ऐसा ही हुआ भी।

दरअसल सोचा तो तभी जाना चाहिए था कि यह जूता किसी आम इंसान पर नहीं बल्कि किसी देश के पूर्व राष्ट्रपति पर फेंका गया था। यहां यह बात परे हटा दी जानी चाहिए कि वे बुश थे। किसी भी देश के सर्वोच्च पद पर आसीन रह चुके राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के साथ इस घटना के होने के कई संदेश जाते हैं। जूते का मारा जाना किसी देश को अपमानित करने जैसा ही है। यह व्यक्ति विशेष से ज्यादा देश का मामला है। यहां यह बहस हो सकती है कि बुश की नीतियों से तंग आकर यह काम किया गया लेकिन यह भी भूला नहीं जाना चाहिए कि आम अमरीकी नागरिकों ने बुश की नीतियों को पिछले राष्ट्रपति के चुनाव में ही नकारा और ओबामा को चुना। लेकिन जूता फेंकने जैसे कृत्य उन्हीं नागरिकों की राष्ट्रीय भावना को सुलगा भी सकती थी। ऐसा होने पर बुश के न होते हुए भी अमरीकी विदेश नीतियां पुन: बुशनुमा बन सकती हैं। यह मामला एक विशिष्ट मेहमान का भी था। मेहमान चाहे कोई भी हो और किसी भी देश मे जाए, मेजबान को उसका स्वागत जूते से नहीं करना चाहिए, ऐसा तो माना ही जाता है।
इसी तरह चीन के प्रधानमंत्री और अब अरूंधति राय पर निशाना साधने का मामला भी यही कहता है। अरूंधति राय से खैर एक लंबे समय से छात्र नाराज ही रहे हैं क्योंकि यह माना जाता रहा है कि वे लगातार चर्चा में बने रहने के लिए ऐसे बयान देनी की आदी बन गईं हैं जो किसी भी लिहाज से देशहित में नहीं हैं। चूंकि अंग्रेजी तबका यह समझता है कि वह अंग्रेजी में जो भी बुदबुदाएगा(और अगर कुछ छेड़ने वाली बात कहेगा) तो खबर बनेगी ही। इसलिए नाराज छात्रों ने इस बार उन्हें निशाना बनाया।
लेकिन दो बातें समझनी चाहिए। जूता फेंकना किसी मकसद का हल नहीं और जूते फेंकने की घटना को मीडिया में बार-बार दोहराना तो और भी कोई समाधान नहीं बल्कि यह तो प्रेरणा देने जैसा है। दूसरे देश प्रेम की भावना। तर्क देने वाले आजकल यह कह रहे हैं कि यह घटनाएं इस बात की ‘सुखद’ प्रतीक हैं कि यह युग उन लोगों के लिए अब असंवेदनशील होने लगा है जिन्हें देश हित की परवाह नहीं। लेकिन इसे जायज माना जाना कितना सही है?
गौर करने लायक विदेशी मीडिया का नजरिया भी है। मिसाल के तौर पर चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ पर कैंब्रिज विश्वविद्यालय में जूता फेंकने की घटना के बावजूद चीन ने उनके ब्रिटेन दौरे को पूरी तरह से सफल माना और चीनी मीडिया में इस घटना को काफी कम तवज्जो दी गई। यहां तक कि चीनी वेबसाइट्स में भी इस घटना का जिक्र तकरीबन नदारद ही है। लेकिन भारत में ऐसा नहीं होता। हमारे यहां यह घटनाएं खुशी की लहर लाती हैं। किसे यह सोचने की परवाह है कि ऐसी घटनाओं के बाद उस शॉट–सीक्वेंस को बार-बार टीवी पर दिखाया जाना क्या कहता है? बुश की घटना को तो मीडिया ने मसखरीपन के शिखर पर ही पहुंचा दिया। उनकी जो कवरेज इस घटना की वजह से हुई, उतनी शायद अमरीका के राष्ट्रपति रहते हुए किसी भी घटना की वजह से न हुई हो। अमरीका की 9/11 की घटना याद कीजिए। वो हमला अमरीका के समृद्धि के केंद्र पर था लेकिन तब भी उन तस्वीरों को क्या अमरीकी चैनलों पर हजारों बार दिखाया गया ? दूसरी तरफ जब हमारे यहां मुंबई की घटनाएं होती हैं तो हम आतंक के उस महाभारत का लाइव तमाशा पूरी दुनिया के लिए खोल देते हैं। दृश्यों की यह पुनरावृत्ति कभी भी किसी घटना को सुलझा तो नहीं पाती बल्कि उसे याद्दाश्त पर हमेशा की तरह चिपकाने का काम जरूर कर देती है। अब पूछा यह जाना चाहिए कि अगर जूते की यही घटना हमारे देश के किसी गणमान्य के साथ हुई होती और कोई दूसरा देश उसे बार-बार चटखारे लेकर दिखाता तो हमें कैसा लगता? सवाल कड़वा है।

दूसरे ऐसी घटनाओं की कवरेज सस्ते बाजारवाद की मिसाल बनती हैं। तीसरे यह कि इनसे लगता है कि क्या खबरों की दुनिया और यह ब्रह्मांड इतना बेमानी हो गया है कि ऐसी बचकानी खबरों के बहाने ही न्यूज चैनलों की नैया खेनी पढ़ रही है? तीसरी बात यह कि कहा जाता है कि टीवी का एयरटाइम कोकेन की तरह होता है। बहुत कीमती। तो अगर यह बेशकीमती है तो क्या इसका इस्तेमाल कुछ बेहतर चीजों के लिए नहीं किया जा सकता ?

वैसे इस जूतम किस्से के बीच समाचार प्रसारण मानक विवाद निस्तारण प्राधिकरण ने आत्मनियंत्रण के संभवत: पहले कदम के तौर पर टीवी समाचार प्रसारकों के लिए दिशा-निर्देश जारी कर दिए हैं। इसमें आपात स्थितियों के सीधे प्रसारण पर पाबंदी लगाने और अफवाहों को खबर की तरह पेश करने से बचने की सलाह दी गई है। जाहिर है कि मसाले के आदी कई टीवी चैनलों के मालिक अब माथे पर पसीने की बूंदें लिए घूमने लगे हैं।

तो असल में मामला हाईपर रिएलिटी का है और साथ ही गुस्से को दैत्याकार में दिखाने का भी। वैसे गुस्सा दिखाने का अधिकार तो सबको है। अंदाज जरूर अलग हो सकता है। भूटान में गुस्सा दिखाने के लिए रंगीन टिशू पेपर को उस व्यक्ति पर फेंका जाता है जो कि नापसंद होता है। पेपर का नीचे गिरना इस बात का सूचक होता है कि वह व्यक्ति सम्मान के योग्य नहीं है। इसके बाद पेपर को फेंकने वाला खुद उसे उठाता है और फाड़ देता है। बहरहाल बुश पर फेंका जूता सुरक्षाकर्मियों ने नष्ट कर दिया है। बुश, जियाबाओ और अरूंधति राय –तीनों पर जूते का निशाना साधने वालों को पकड़ भी लिया गया है लेकिन इस बहाने कई सोये हुए सवाल जाग गए हैं। बुश की घटना ने इस संभावाना (या फिर आशंका) के दरवाजे खोल दिए थे कि अब भारत में भी वे दिन दूर नहीं जब यहां भी सरेआम जूते चलेगें। शुरूआत तो हो गई है लेकिन जिस देश में गंगा बहती है, वहां जूते चलेंगें तो बात बहुत दूर तक जाएगी।

Mar 7, 2009

कौन सा मीडिया, किसका मीडिया?

समर 2007। यह नाम उस फिल्म का है जो शहर और गांव के बीच की बढ़ती दूरी को पाटने की एक कोशिश है। निर्देशक सुहैल तातरी और निर्माता अतुल पांडे की यह फिल्म स्लमडाग मिलिनेयर जैसा कोई हंगामा तो खड़ा नहीं कर सकी है लेकिन इसने एक पत्रकार की खोज और पसीने की मेहनत को आधार बनाकर इस मिथ को तोड़ने की कोशिश जरूर की है कि इंडिया इज नॉट शाइनिंग(भारत चमक नहीं रहा है)। यह फिल्म पी साईंनाथ की गांवों की हकीकी खोज पर आधारित है। 2007 में मैगसेसे पुरस्कार से नवाजे जा चुके प्रख्यात पत्रकार पी साईंनाथ एक अरसे से किसानों की आत्महत्या के मामले पर खोज, लेखन और चिंतन करते रहे हैं। पिछले 14 साल से हर साल वह भारत के अलग-अलग गांवों में करीब 300 दिन बिताते रहे हैं। जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय से पढ़ाई और सूखे से पीड़ित भारत के 10 राज्यों के दौरे ने उनकी सोच में गांभीर्य भरा। उन्होंने भारत सरकार के घोषित कई पुरस्कारों को यह कहकर लेने से इंकार कर दिया कि उन्हें इन्हें लेने में शर्म महसूस होती है। लेकिन मजे की बात यह कि गांवों के इस देश में पी साईंनाथ की खींची गांव की तस्वीर को मीडिया ने कभी गंभीरता से नहीं लिया। हां, मैगसेसे पुरस्कार के मिलने के बाद थोड़ी सोच जरूर बदली लेकिन बहुत संतोषजनक नहीं। इसका सीधा सबूत यह है कि आज भी न्यूज मीडिया से गांव गायब हैं। इसलिए पी साईंनाथ के लेखों को आधार बनाकर ब्रेजश जयराजन ने इस फिल्म को लिखकर किसानों के दर्द को उभारा है। शोध कहते हैं कि 2003 में जब देश के कई राज्यों में किसान आत्महत्या कर रहे थे तो सिर्फ 6 पत्रकारों ने ऐसे गांवों में एक हफ्ते का समय बिताया जबकि लैक्मे फैशन वीक को कवर करने के लिए 412 पत्रकारों की फौज जमा हुई। इसी तरह भारत में सिर्फ 0.2 प्रतिशत लोग डिजानरों के डिजाइन किए हुए कपड़े पहनते हैं जबकि फैशन को कवर करने वाले पत्रकारों की तादाद करीब 300 है। और तो और शेयरों में भारत की महज 1.15 प्रतिशत आबादी ही पैसे लगाती है लेकिन तब भी भारतीय न्यूज मीडिया शेयरों के उतार- चढ़ाव की कहानी रात-दिन सुनाते हैं। भारत में आज भी किसानों को कवर करने वाला कोई पत्रकार नहीं है जबकि किसान ही हैं जिनकी 70 प्रतिशत आबादी आने वाली सरकार की किस्मत तय करती है। तो यह है फास्ट फूड संस्कृति का भारत। इस भारत में किसान कब के हाशिए में जाकर सिमट गए हैं और उनके मुद्दे फैशन के बाहर की चीज बन गए हैं। ऐसे में मॉलों को देख कर झूमने, फील गुड के राग गाने और क्रिकेट को सब कुछ मान कर चलने वाले परिवेश में किसान कहीं नहीं दिखते लेकिन न्यूज मीडिया की अनदेखी के बीच बॉलीवुड में एक पहल हो गई है। यहां गरीबी को बेचने की नहीं बल्कि किसान के पसीने की बूंदों को हथेली में लाकर दिखाने की एक छोटी कोशिश हुई है। यह कहानी विदर्भ के संकट को बड़ी खबर की तरह लेती है और इसलिए मेडिकल छात्रों को अनिवार्य तौर से गांवों में भेजने की बात चलती है। यहां पांच युवा पात्र चुने गए हैं जो कि चांदी के चम्मच मुंह में लिए पलने वाले अमीर परिवेश की सटीक तस्वीर हैं। फिल्म मेडिकल की पढ़ाई कर रहे इन्हीं पांचों छात्रों के आस-पास घूमती है। यह एक बेपरवाह टोली है लेकिन इस टोली को मजबूरन गांव जाना पड़ता है। यह गांव की तरफ निकलते भी हैं तो कुछ इस अंदाज में कि जैसे मूड बदलने के लिए सैर पर निकले हों। यहां ये एक गांव के प्राइमरी हेल्थ सेंटर में पहुंचते हैं। यहीं से बदलाव की कहानी शुरू होती है। इनका सामना पहली बार किसान की गरीबी और भूख से होता है और सामंती ताकतों के पैने दांत दिखते हैं। ‘इंडिया’ देखने वाले इन युवाओं को पहली बार ‘भारत’ दिखाई देता है। जिस साल यह फिल्म बन रही थी, उस साल 784 किसानों ने आत्महत्या की थी। लेकिन सोचने की बात यह है कि जो काम न्यूज मीडिया को बहुत पहले से करना शुरू कर देना चाहिए था, वह बालीवुड क्यों कर रहा है? क्या मीडिया के पास समय और संसाधनों की कमी है या फिर नीयत की? जाहिर है मामला नीयत का ही है। अब जबकि चुनाव करीब हैं, यह मौका 2004 के इंडिया शाइनिंग अभियान से सबक लेने का है। यह सबक सिर्फ राजनेताओं को ही नहीं लेना है बल्कि मीडिया को भी लेना है। फैशन, लाइफस्टाइल, राजनीति, क्रिकेट और अपराध – इन धुरियों के आस-पास घूमते मीडिया में गांव कहीं नहीं हैं जबकि मीडिया में आए ज्यादातर पुराने पत्रकार गांवों की पृष्ठभूमि से ही यहां आए हैं। न्यूज मीडिया में आते ही इन पत्रकारों के लिए भी गांव एक अनूठा ग्रह बन गए। मीडिया कोर्सों में भी ग्रामीण पत्रकारिता का कोई जिक्र नहीं होता। अब जबकि मेडिकल छात्रों को गांव में जाकर कुछ समय के लिए प्रेक्टिस करना अनिवार्य करने की बात हो रही है, क्या ऐसा नहीं लगता कि यह अनिवार्यता पत्रकारिता के गुर सीख रही नई पौध पर भी लागू होनी चाहिए? (यह कॉलम 7 मार्च, 2009 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

Mar 2, 2009

संतरी

संतरी बाक्स से झांकते संतरी ने
पांच साल में देख लिया है पूरा जीवन
सत्ता में आने के बाद की ढोलक की थाप
दीवालियों, होलियों, ईदों पर तोहफों की बारात
नए साल पर दूर तक फैली गुलाबों की खुशबुएं
हवा में नहाई आती वो युवतियां
रेशम-रेशम हुए जाते अफसरान
और भी पता नहीं क्या कुछ।

इस बार चुनाव में हार गए मंत्रीजी
उस पसरे सन्नाटे में
संतरी के चौबीसों घंटे खड़े रहने वाले पांव
भीगी रूई से हो गए
न कारों का काफिला
न वो फलों के टोकरे
न बच्चों की गूंज
न मैडम की हंसी

उस शाम पहली बार संतरी और मंत्री की नजरें मिलीं
मंत्री ने देखा
खाली मैदान में
आज एक वही था
जो अब भी था खड़ा
वैसा ही
मंत्री ने पूछा उसका नाम
उसके गांव की ली सुध
आज मंत्री को संतरी का चेहरा बड़ा भला लगा
उसकी खिड़की में आज एक सहज शाम
खुद चली आई थी
संतरी के लिए इतना ही काफी था।