Mar 7, 2009

कौन सा मीडिया, किसका मीडिया?

समर 2007। यह नाम उस फिल्म का है जो शहर और गांव के बीच की बढ़ती दूरी को पाटने की एक कोशिश है। निर्देशक सुहैल तातरी और निर्माता अतुल पांडे की यह फिल्म स्लमडाग मिलिनेयर जैसा कोई हंगामा तो खड़ा नहीं कर सकी है लेकिन इसने एक पत्रकार की खोज और पसीने की मेहनत को आधार बनाकर इस मिथ को तोड़ने की कोशिश जरूर की है कि इंडिया इज नॉट शाइनिंग(भारत चमक नहीं रहा है)। यह फिल्म पी साईंनाथ की गांवों की हकीकी खोज पर आधारित है। 2007 में मैगसेसे पुरस्कार से नवाजे जा चुके प्रख्यात पत्रकार पी साईंनाथ एक अरसे से किसानों की आत्महत्या के मामले पर खोज, लेखन और चिंतन करते रहे हैं। पिछले 14 साल से हर साल वह भारत के अलग-अलग गांवों में करीब 300 दिन बिताते रहे हैं। जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय से पढ़ाई और सूखे से पीड़ित भारत के 10 राज्यों के दौरे ने उनकी सोच में गांभीर्य भरा। उन्होंने भारत सरकार के घोषित कई पुरस्कारों को यह कहकर लेने से इंकार कर दिया कि उन्हें इन्हें लेने में शर्म महसूस होती है। लेकिन मजे की बात यह कि गांवों के इस देश में पी साईंनाथ की खींची गांव की तस्वीर को मीडिया ने कभी गंभीरता से नहीं लिया। हां, मैगसेसे पुरस्कार के मिलने के बाद थोड़ी सोच जरूर बदली लेकिन बहुत संतोषजनक नहीं। इसका सीधा सबूत यह है कि आज भी न्यूज मीडिया से गांव गायब हैं। इसलिए पी साईंनाथ के लेखों को आधार बनाकर ब्रेजश जयराजन ने इस फिल्म को लिखकर किसानों के दर्द को उभारा है। शोध कहते हैं कि 2003 में जब देश के कई राज्यों में किसान आत्महत्या कर रहे थे तो सिर्फ 6 पत्रकारों ने ऐसे गांवों में एक हफ्ते का समय बिताया जबकि लैक्मे फैशन वीक को कवर करने के लिए 412 पत्रकारों की फौज जमा हुई। इसी तरह भारत में सिर्फ 0.2 प्रतिशत लोग डिजानरों के डिजाइन किए हुए कपड़े पहनते हैं जबकि फैशन को कवर करने वाले पत्रकारों की तादाद करीब 300 है। और तो और शेयरों में भारत की महज 1.15 प्रतिशत आबादी ही पैसे लगाती है लेकिन तब भी भारतीय न्यूज मीडिया शेयरों के उतार- चढ़ाव की कहानी रात-दिन सुनाते हैं। भारत में आज भी किसानों को कवर करने वाला कोई पत्रकार नहीं है जबकि किसान ही हैं जिनकी 70 प्रतिशत आबादी आने वाली सरकार की किस्मत तय करती है। तो यह है फास्ट फूड संस्कृति का भारत। इस भारत में किसान कब के हाशिए में जाकर सिमट गए हैं और उनके मुद्दे फैशन के बाहर की चीज बन गए हैं। ऐसे में मॉलों को देख कर झूमने, फील गुड के राग गाने और क्रिकेट को सब कुछ मान कर चलने वाले परिवेश में किसान कहीं नहीं दिखते लेकिन न्यूज मीडिया की अनदेखी के बीच बॉलीवुड में एक पहल हो गई है। यहां गरीबी को बेचने की नहीं बल्कि किसान के पसीने की बूंदों को हथेली में लाकर दिखाने की एक छोटी कोशिश हुई है। यह कहानी विदर्भ के संकट को बड़ी खबर की तरह लेती है और इसलिए मेडिकल छात्रों को अनिवार्य तौर से गांवों में भेजने की बात चलती है। यहां पांच युवा पात्र चुने गए हैं जो कि चांदी के चम्मच मुंह में लिए पलने वाले अमीर परिवेश की सटीक तस्वीर हैं। फिल्म मेडिकल की पढ़ाई कर रहे इन्हीं पांचों छात्रों के आस-पास घूमती है। यह एक बेपरवाह टोली है लेकिन इस टोली को मजबूरन गांव जाना पड़ता है। यह गांव की तरफ निकलते भी हैं तो कुछ इस अंदाज में कि जैसे मूड बदलने के लिए सैर पर निकले हों। यहां ये एक गांव के प्राइमरी हेल्थ सेंटर में पहुंचते हैं। यहीं से बदलाव की कहानी शुरू होती है। इनका सामना पहली बार किसान की गरीबी और भूख से होता है और सामंती ताकतों के पैने दांत दिखते हैं। ‘इंडिया’ देखने वाले इन युवाओं को पहली बार ‘भारत’ दिखाई देता है। जिस साल यह फिल्म बन रही थी, उस साल 784 किसानों ने आत्महत्या की थी। लेकिन सोचने की बात यह है कि जो काम न्यूज मीडिया को बहुत पहले से करना शुरू कर देना चाहिए था, वह बालीवुड क्यों कर रहा है? क्या मीडिया के पास समय और संसाधनों की कमी है या फिर नीयत की? जाहिर है मामला नीयत का ही है। अब जबकि चुनाव करीब हैं, यह मौका 2004 के इंडिया शाइनिंग अभियान से सबक लेने का है। यह सबक सिर्फ राजनेताओं को ही नहीं लेना है बल्कि मीडिया को भी लेना है। फैशन, लाइफस्टाइल, राजनीति, क्रिकेट और अपराध – इन धुरियों के आस-पास घूमते मीडिया में गांव कहीं नहीं हैं जबकि मीडिया में आए ज्यादातर पुराने पत्रकार गांवों की पृष्ठभूमि से ही यहां आए हैं। न्यूज मीडिया में आते ही इन पत्रकारों के लिए भी गांव एक अनूठा ग्रह बन गए। मीडिया कोर्सों में भी ग्रामीण पत्रकारिता का कोई जिक्र नहीं होता। अब जबकि मेडिकल छात्रों को गांव में जाकर कुछ समय के लिए प्रेक्टिस करना अनिवार्य करने की बात हो रही है, क्या ऐसा नहीं लगता कि यह अनिवार्यता पत्रकारिता के गुर सीख रही नई पौध पर भी लागू होनी चाहिए? (यह कॉलम 7 मार्च, 2009 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

13 comments:

डॉ .अनुराग said...

मुआफ कीजिये वर्तिका जी जितना सवेदनशील विषय था ....ओर स्टोरी थी .इसे बेहतर निर्देशक की आवश्यकता थी ..ऐसा नहीं की पहली फिल्म में हर निर्देशक असफल रहता है .इस रात की सुबह नहीं से लेकर आमिर अन्य कई फिल्म है .मुझे बतोर एक डॉ खुद इस फिल्म से उम्मीदे थी पर लगा फिल्म में पकड़ नहीं है...केवल किसी गंभीर विषय को उठाने मात्र से फिल्म अच्छी नहीं होती ,उसका प्रस्तुतीकरण ,उसका विसन बहुत जरूरी है...विषय गंभीर है ओर इसे सही treatment की जरुरत है

Unknown said...

पुनः प्रकाशित करने के लिये आभार…

VOICE OF MAINPURI said...

एकदम सही कहा मेम २००४-०५ मैं मैंने जब आई आई ऍम सी से पर्त्र्कारिता की डिग्री ली तो मैंने दिल्ली या अन्य महानगर मैं पत्रकारिता करने की वजाए मैनपुरी मै पत्रकारिता करने की ठानी,मैनपुरी की कुल आबादी २२ लाख है जहाँ ८० फीसदी से भी जियादा लोग गावों मैं रहते हैं.संसथान मैं पड़ते समय मुझे ये लगा की भारत मैं विकास पत्रकारिता को लेकर गंभीरता नही है कारण नई पीडी को इसमें स्कोप नज़र नही आता.ये भारत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा की जिस देश के विकास का रास्ता ही गावों से होकर जाता है उन रास्तों को के गड्ढे भरना भला कोई नही है.आप ने इस और ध्यान दिया इसके लिए सुक्रिया....मोका लगे तो फ़िर लिखियेगा......

VOICE OF MAINPURI said...

सही कहा मेम.जब मैं आई .आई .एम् .सी.से डिप्लोमा के रहा था तो मुझे इस बात का एहसास हुआ की विकास पत्रकारिता को लेकर गम्भीरता कम है.नई पीडी को इसमें स्कोप नज़र नही आता.ये देश के लिए दुर्भाग्य पूर्ण बात है.कोर्स करने के बाद मैंने दिल्ली या महानगर मैं पत्रकारिता करने वजाए अपने जिले मैं पत्रकारिता शुरू की मैनपुरी देश के बेहद पिछडे जिलों मैं एक है.भारत जिसके विकास का रास्ता गावों से होकर जाता है.आब उनमें कई गहरे गद्दे हो गए हैं जिन्हें भरना बेहद जरूरी है.आप ने इस दिशा मैं ध्यान इसके लिए आप बधाई की पात्र हैं.ये सफर जारी रखें.....

VOICE OF MAINPURI said...

सही कहा मेम.जब मैं आई .आई .एम् .सी.से डिप्लोमा के रहा था तो मुझे इस बात का एहसास हुआ की विकास पत्रकारिता को लेकर गम्भीरता कम है.नई पीडी को इसमें स्कोप नज़र नही आता.ये देश के लिए दुर्भाग्य पूर्ण बात है.कोर्स करने के बाद मैंने दिल्ली या महानगर मैं पत्रकारिता करने वजाए अपने जिले मैं पत्रकारिता शुरू की मैनपुरी देश के बेहद पिछडे जिलों मैं एक है.भारत जिसके विकास का रास्ता गावों से होकर जाता है.आब उनमें कई गहरे गद्दे हो गए हैं जिन्हें भरना बेहद जरूरी है.आप ने इस दिशा मैं ध्यान इसके लिए आप बधाई की पात्र हैं.ये सफर जारी रखें.....

VOICE OF MAINPURI said...

bilkul thik kha.

रचना गौड़ ’भारती’ said...

लगातार लिखते रहने के लि‌ए शुभकामना‌एं
भावों की अभिव्यक्ति मन को सुकुन पहुंचाती है।
लिखते रहि‌ए लिखने वालों की मंज़िल यही है ।
कविता,गज़ल और शेर के लि‌ए मेरे ब्लोग पर स्वागत है ।
http://www.rachanabharti.blogspot.com
कहानी,लघुकथा एंव लेखों के लि‌ए मेरे दूसरे ब्लोग् पर स्वागत है
http://www.swapnil98.blogspot.com
रेखा चित्र एंव आर्ट के लि‌ए देखें
http://chitrasansar.blogspot.com

VOICE OF MAINPURI said...

मेम एकदम सही कहा.गावं खेत और किसान अब पत्रकारिता से दूर होते जा रहे हैं.नई पीडी को इसमें स्कोप नजर नही आता.विकास पत्रकारिता की बात अगर करें तो ये भी बस आई आई एम् सी के स्लेबस की एक चीज़ बन कर रह गई है.लेकिन वहां आप जैसे टीचर मोजूद हैं तो एक उम्मीद की किरन नजर आती है.वरना आज कल के पत्रकारों को मंदी और मुद्रा स्फीति की गिरती दर तो नजर आती है लेकिन किसान का पसीना और आंसू नही दीखता.लीड की बजाये उसे बोटम पर भी दो कोलम नसीब होते.दुःख होता जब ये लाइन पड़ता हूँ..''भारत देश की तरक्की का रास्ता गावों से होकर गुजरता है''

VOICE OF MAINPURI said...

मेम एकदम सही कहा.गावं खेत और किसान अब पत्रकारिता से दूर होते जा रहे हैं.नई पीडी को इसमें स्कोप नजर नही आता.विकास पत्रकारिता की बात अगर करें तो ये भी बस आई आई एम् सी के स्लेबस की एक चीज़ बन कर रह गई है.लेकिन वहां आप जैसे टीचर मोजूद हैं तो एक उम्मीद की किरन नजर आती है.वरना आज कल के पत्रकारों को मंदी और मुद्रा स्फीति की गिरती दर तो नजर आती है लेकिन किसान का पसीना और आंसू नही दीखता.लीड की बजाये उसे बोटम पर भी दो कोलम नसीब होते.दुःख होता जब ये लाइन पड़ता हूँ..''भारत देश की तरक्की का रास्ता गावों से होकर गुजरता है''

News4Nation said...

वर्तिका जी निश्चित रूप से अच्छा लिखा गया है,आपके ब्लॉग पर आकर एक सुखद अनुभव हुआ
इसी तरह लिखती रहिये !
संजय सेन सागर
www.yaadonkaaaina.blogspot.com

Mahesh said...

बहुत खूब वर्तिका । पढ़ कर लगा की नसों का तनाव कुछ कम हुआ। लिखती रहो ।

Anonymous said...

vartika mam,
namaskaar........!!!!!
main bhopal se vikash chandra(e_mail- chandravikash16@yahoo.co.in).
main har din aapke blog ko dekhta hoon aur chahta hun ki har din mujhe aapke alag article padhne ko mile magar aisa nhi ho pata ...
aur main udaas ho jata hoon ki aaj bhi kuch naya nhi hai...
(aapke media per likhe articles mujhe bahut pasand hain aur san 2004 se main aapke articles padh raha hoon, jab se mass comm. se juda achhe aur swasth sameeksha wale article padhna achha lagta hai...)
shesh agle khat me ...

cartoonist ABHISHEK said...

आज के अखबार में एक विज्ञापन छपा है
मर्सडीज खरीदो..आसान किस्तों पर..सिर्फ 5.5 प्रतिशत व्याज पर.
किसान को ट्रेक्टर इस से दूनी व्याज दर पर भी आसानी से उपलब्ध नहीं है.
बैंक हजार चक्कर लगवाएगा.