Jul 24, 2010

टीवी दर्शकों की बढ़ती समझ और छोटे शहर

नौएडा में एनटीपीसी के ग्रुप ए के इंजीनियरों के एक समूह को उनके चयन की प्रक्रिया के दौरान छोटे शहरों पर टीवी के प्रभावों पर बोलने के लिए कहा गया तो एक बात बहुत जोर से उभर कर आई कि टीवी ने जानकारियां के संसार को तो खोला ही है लेकिन उससे भी बड़ा काम यह किया है कि उसने लोगों के आत्मविश्वास को बढ़ा दिया है।

इस बात की पुष्टि आंकड़े कुछ इस तरह से करते हैं कि छोटे शहरों में टीवी की लोकप्रियता का ग्राफ लगातार ऊपर की तरफ चढ़ रहा है। हाल ही में ट्राई की तरफ से किया गया सर्वे इसी की तरफ इशारा  करता है। सर्वे के मुताबिक जमेशदपुर, रायपुर और कोच्चि में दर्शक करीब 15 चैनल देखते हैं जबकि कटक और गोवाहाटी में एक दिन में 14 चैनल में देखे जाते हैं। अब जरा इनकी तुलना बड़े शहरों से करिए। यह पाया गया है कि बैंगलूरू और दिल्ली के दर्शक आमतौर पर 8 ही चैनल देखते है जबकि चेन्नई में 9 चैनल देखे जाते हैं। इस सर्वे को करते हुए ट्राई की टीम ने अप्रैल में 22 शहरों के 4,400 घरों में जाकर बात की।

दरअसल यह आंकड़े इस बात का संकेत भी देते हैं कि आने वाले समय में शायद टीवी के दर्शकों का दायरा भारत के छोटे शहरों में ही सिमट कर रह जाएगा। इसके साथ ही एक छिपा हुआ संदेश यह भी है कि टीवी के व्यवसाय से जुड़े लोगों को अब टीवी कार्यक्रमों से लेकर खबर तक के चयन में अब इस हिस्से को केंद्र में रखकर ही नीतियां तय करनी होंगीं। इसके लिए चुने हुए लोगों को तो एक खास तरह का मानसिक प्रशिक्षण देना भी होगा, चैनल मालिकों को भी खुद को तैयार करना होगा। टीवी का दर्शक रोज नए तरीके से साक्षर हो रहा है। वह टीवी की शब्दावली और कार्यक्रमों को तैयार करने में होने वाले ड्रामों को बखूबी समझने लगा है। दर्शक यह देख कर हंसता है तो कभी कोफ्त महसूस करता है कि टीवी धारावाहिकों की नायिकाएं रात में भी महंगी साड़ी-ब्लाउज में सोती दिखती हैं, उनके शरीर पर गहने लदे-फदे होते हैं और एक बाल तक अपनी जगह से हिला नहीं होता। वे पूरे मेकअप में होती हैं और हर हाल में हसीन दिखती हैं। ये नायिकाएं रसोई में दिखाई नहीं देतीं और अगर दिख भी जाएं तो वे रसोई के किसी सामान से ज्यादा कुछ लगती नहीं।

तो टीवी के दर्शक के ज्ञान का संसार अब चौड़ा हो रहा है। उसकी मांगें और अपेक्षाएं बढ़ रही हैं। वो खुल कर बोलता है और जानता है कि कौनसी चीज किस खेल के तहत उसे दिखाई जा रही है। इसलिए काम इतना आसान भी नहीं है। ट्राई ने यह तो बता दिया है कि छोटे शहर वाले टीवी खूब देने लगे हैं लेकिन हमारा ध्यान शायद इस तरफ नहीं गया है कि जो चीज अति के करीब होने लगती है, जितनी ज्यादा देखी-सुनी जाती है, उसी में कमियां निकालने की प्रवृत्ति भी बढ़ती है। अब वह समय गया जब दर्शक क्योंकि सास भी कभी बहू थी के प्रमुख नायक मिहिर के मरने पर ऐसा जार-जार होकर रोया था कि एकता कपूर को धारावाहिक में मिहिर की एंट्री दोबारा करानी पड़ी थी(यह बात अलग है कि इसके पीछे टीआरपी की शतरंत की बिसात बिछी थी)। अब दर्शक किसी के आने से उत्सव नहीं मनाता और न ही किसी का जाना उसके शोक की वजह बनता है। दर्शक की चमड़ी अब मोटी होने लगी है और अब उसे एक सीमा के बाद फुसलाया भी नहीं जा सकता।

बहरहाल विज्ञापन के संसार ने तो बहुत पहले ही यह समझ लिया था कि छोटे शहर का उपभोक्तावाद और तिलस्मीपना कमाल का होता है। इनकी जेब से खूब सिक्के निकाले जा सकते हैं बशर्ते दिखाए जा रहे सपने उनके एकदम करीब हों। न्यूज मीडिया ने इस सच को बेढंगेपन से समझा और वो नाग-नागिन नचाने लगा। मनोरंजन के चैनलों ने भी इस सच को अपनी तरह से समझा लेकिन यहां अभी काफी हद तक गुड़-गोबर ही है।

ट्राई की रिपोर्ट, हो सकता है, समझदारी के कुछ नए दरवाजे खटखटा जाए। कम से कम उम्मीद तो कीजिए ही।

(यह लेख 20 जुलाई, 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

Jul 19, 2010

टीवी पर मजहबी रिएलिटी शो की दस्तक

18 से 27 साल के 10 युवा बेहतरीन कपड़ों में, आत्म विश्वास से लबरेज। ये धर्म और कर्म की बात करते हैं और यह साबित करने की कोशिश में हैं कि वे इस्लाम के गहरे जानकार हैं। इनमें जो जीतेगा,वो सिकंदर मलेशिया का सर्वोत्तम इमाम बना दिया जाएगा। दरअसल ये सभी युवा मलेशिया के एक टीवी पर चल रहे रिएलिटी टीवी का हिस्सा हैं जिसका नाम है –इमाम मुदा दस हफ्ते तक चलने वाले इस शो का मकसद 10युवाओं में से सबसे योग्य युवक का चयन करना है। यहां योग्यता के मायने इस्लाम की समझ के अलावा बात-चीत, पहनावा और जनसंपर्क भी होगा।

हर शुक्रवार को दिखाए जाने वाले इस शो में युवा प्रतियोगी नाचते-गाते नहीं बल्कि कुरान की आयतें सुनाते हैं। पहले चरण में सभी प्रतियोगियों को इस्लामी रीति-रिवाज से शव को नहलाने और दफनाने की रीति करनी पड़ी और यह शपथ भी लेनी पड़ी कि वे मलेशिया के युवकों को अनैतिक सैक्स और ड्रगों के सेवन से बचाने की कोशिश करेंगें। बाद के एक एपिसोड में इन युवाओं को एक अविवाहित गर्भवती को समझाने का दायित्व भी सौंपा गया।

दुनिया में पहली बार किए जा रहे इस प्रयोग की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रसारण के पहले हफ्ते में ही फेसबुक पर स्टार हंट पर तकरीबन रोजाना रिपोर्टिंग कर रहा है। शो के प्रशंसक मान रहे हैं कि इसने उदारवाद को एक रूप में सामने लाकर खड़ा किया है। दूसरे,इस बहाने मलेशिया जैसे उदारवादी देश को एक युवा और स्मार्ट इमाम मिलेगा और इससे दुनिया भर में इस्लाम में और खुलापन लाने का संदेश भी जाएगा। चैनल इस शो को एक तरह के आध्यात्मिक भोजन की तरह प्रचारित कर ले रहा है और उम्मीद जता रहा है कि इसके जरिए उन्हें एक ऐसा इमाम तलाशने की उम्मीद है जिसमें पश्चिम की आधुनिकता के साथ ही धर्म को युवाओं के साथ जोड़ने की भी क्षमता होगी। यह दावा किया  रहा है कि इसके जरिए देश में इस्लाम की जड़ें और मजबूती हासिल करेंगीं।  

लेकिन इस शो के आलोचक भी कम नहीं। कई लोग इसे गैर-इस्लामी और -गंभीर प्रयोग मान रहे हैं जिससे आने वाले समय में इस्लाम की पुरानी परंपराओं के टूटने का भय उठने लगेगा।

लेकिन आलोचनाओं के परे फिलहाल यह शो जमकर टीआरपी बटोर रहा है। शो इस्लाम से जुड़ी जानकारियों को इस बखूबी दिखा रहा है कि मलेशिया की एक बड़ी आबादी शुक्रवार की रात टीवी के सामने सिमटने लगी है। अमेरिकन आइडल और इंडियन आइडल सरीखे कार्यक्रमों की तरह इस शो से भी हर हफ्ते एक प्रतियोगी बाहर जाएगा। लेकिन यहां फैसले का अधिकार जनता के वोटों के बजाय एक पुराने इमाम,हसन महमूद,पर केंद्रित है जो इन प्रतियोगियों को इस्लाम की कसौटियों पर कसता है।

मजे की बात यह भी है कि शो के प्रतियोगियों को एक मस्जिद में सबसे अलग रखा गया है जहां उनके पास फोन हैं, इंटरनेट और ही टीवी, अखबार या मनोरंजन का कोई भी साधन ताकि वे अकेले में विचार मंथन कर सकें।  

प्राइम टाइम में दिखाए जाने वाले इस शो में प्रतियोगी सुंदर सूट पहनकर और एक पारंपरिक टोपी लगाकर आते हैं और जमकर मुस्कुराते हैं। इसलिए इनमें स्टार इमाम भले ही एक ही बनेगा लेकिन बाकी के लिए कम से कम निकाह के प्रस्तावों की बाढ़ लगने लगी है। स्विस अखबार तागेसेंजर के मुताबिक आज की तारीख में ये सभी सुपर स्टार हैं और दुनिया भर में सैंकड़ों लड़कियों की नजरें इन पर टिकी हैं। 

लेकिन और प्रतियोगियाओं की तरह यहां भी ईनाम का इंतजाम है। जो जीतेगा, उसकी मक्का यात्रा का मुफ्त इंतजाम और एक कार दी जाएगी। इसके अलावा देश की सबसे प्रमुख मस्जिद में इमाम बनने, सऊदी अरब के एक विश्वविद्यालय में स्कॉलरशिप पाने, 6400 डॉलर नकद और एक लेपटॉप पाने का अवसर भी मिलेगा।

भारतीय चैनल जब पूरी तरह से मनोरंजन और रिएलिटी के आस-पास चक्कर काटते दिख रहे हैं,उस समय में मलेशिया के एक चैनल की यह अनूठी दस्तक यहां भी नए प्रयोगों का मैदान तैयार कर सकती है। प्रवचनों से भारी होते जा रहे आध्यात्मिक चैनलों में धर्म कई बार महज एक प्रोडक्ट बन जाता है। ऐसे में मलेशिया में इमाम मुदा के नतीजे और बाद में उसकी उपयोगिता को देखने के बाद हमारे यहां भी धर्मों की खिड़कियों को खोलने की जहमत उठाई जानी चाहिए।

(यह लेख 18 जुलाई को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)