May 31, 2010

मंगलौर के दर्द के बीच

हादसे एक ही बात कहते हैं
मंगलौर में हो या मुंबई में
इंसान के रचे हों
या कुदरत से भुगते
कि सांसों का कोई भरोसा नहीं
सबसे अनजानी, अपरिचित सांसें ही हैं
कभी भी, कहीं भी फिसल सकती हैं
अनुलोम-विलोम के बीच
जब रोकती हूं
सांसों को कुछ पलों के लिए अंदर ही
तो लगता है कई बार
कि जाने ये सांसें
अंदर शरीर में कर रही होंगीं क्या गुफ्तगू
क्या बताती होंगी
दिल को
दिमाग को
पेट को
अंतड़ियों को
कि कब छूटने वाली है
सांसों की गठरी

इन सांसों का क्या भरोसा
हो सकता है
जाने की तैयारी का
एक पल भी न दें

अब इन सांसों से मोह भी नहीं होता
दिखती है हर रोज मौत
कितनी-कितनी बार
इनसे दिल करता है
अब खेलूं
पिट्ठूगरम
टेनिस की बॉल की तरह उठाऊं
उछाल दूं आसमान पर
लिख कर अपना पता

हादसे हर बार खुद अपने करीब ले जाते हैं
रूला जाते हैं
किसी और के हिस्से के आंसू
जब बहते हैं
अपनी आंखों से
तो मन की कितनी परतें जानो कैसे खुल-खुल जाती हैं
कितने दिन रहता है मन मुरझाया सा

हादसे रेतीली जमीन को
और पथरा जाते हैं
मौत से मिला जाते हैं गले

भरोसा नहीं अगले पल का
तब भी इतने सामान का ढोना
मौत के रूदन के सामने
इससे बड़ा हास्य भला और क्या होगा

(यह कविता 30 मई, 2010 को जनसत्ता में प्रकाशित हुई)

May 21, 2010

राजधानी के युवा और उनकी दो दुनिया

दिल्ली के एक बड़े रेस्त्रां समूह के किसी भी रेस्त्रां में गर्मी के इन महीनों में जाना बड़ा सुखद लगता है। वजह वहां के पकवान या फिर ठंडे पेय नहीं हैं। वजह है वहां पर उन युवाओं को देखना जो इन दो महीनों में यहां इंटरन्शिप के लिए आते हैं। ये युवा रिसेप्शन पर दिखाई देते हैं, खाने का आर्डर लेते हैं, सामान देते हैं, टेबल से झूठे बर्तन उठाते हैं और ग्राहक की शिकायत को भी अदब से सुनते और तर्क से उनका जवाब देते हैं। इन युवाओं के पास किसी से बतियाने का समय नहीं है। ये अपनी धुन में तल्लीन हैं। इनक पास भरपूर काम है। अगर आप इनसे बहुत इसरार करके बात करना चाहेगें तो ये कारपोरेट मुस्कान के साथ आपको बताएंगें कि ये कुछ सीखने के लिए और पूरे साल के अपने खर्च का कुछ हिस्सा कमाने के लिए यहां पर काम कर रहे हैं। इनके लिए यह काम छोटा नहीं है बल्कि कुछ कर पाने का बेहतरीन अवसर है। ज्यादा टटोलेंगे तो आपको पता चलेगा कि इनमे से कुछेक युवा सिर्फ यहीं पर काम नहीं कर रहे बल्कि वे दूसरी पारी का काम कहीं और भी कर रहे हैं और अपने काम पर इन्हें फख्र है।

इन युवाओं के इस जज्बे को सलाम करने के लिए बार-बार इनसे मिलने जाने का मन करता है। लेकिन ठीक इसी समय दिल्ली के पाश इलाकों में रहने वाले वे युवा भी याद आ जाते हैं जिनकी गर्मी की छुट्टियां थकान उतारने में ही निकल जाती हैं। इन्हें घर से बाहर आने में लू लग जाती है, सुबह जल्दी उठने से रात की बीयर का मजा बेस्वाद हो जाता है और जिनके चेहरे पर एसी के चौबीसों घंटे के पालने के बावजूद मुर्झाहट पसरी रहती है। यह दूसरे किस्म के युवा हैं। ये जिन घरों में पलते हैं, वहां पर कुत्तों और बच्चों की जिंदगी में बहती हुई सुविधाएं होती हैं और इन्हीं में से कई बाद में दलितों की बस्ती में जाकर अपने फोटू छपवा कर बड़े नेता या फिर सरकारी बाबू का दायित्व भी निभा आते हैं। ये दो अलग तरह की जिंदगियां हैं जिनसे तकरीबन रोज ही वास्ता पड़ता है लेकिन मन निराश नहीं होता। मन बार-बार कहता है कि ऐसे रेस्त्रां में काम कर रहे युवाओं की जिंदगी के संघर्ष की कहानी बार-बार दोहराती चली जाए। इसलिए नहीं कि मन उनका शुभ नहीं चाहता,बल्कि इसलिए कि मन उनका बेहद स्थाई शुभ चाहता है। रेस्त्रां में काम करते ये बच्चे जब सिविल सर्विस पास कर जाते हैं या फिर किसी बड़ी कंपनी के कर्ता-धर्ता बन बैठते हैं तो जमीनी हकीकत की पाठशाला में पढ़े सबक भी उनके साथ चलते हैं। ये नहीं भूलते कि कैसे हर रोज इनका सामना जिंदगी के कई जालों से होता था और उनसे गुजर कर कैसे इन्होंने खुद अपने पसीने से अपनी दुनिया को बुना है।

और मजे की बात यह कि ये मेहनतकश युवा मीडिया की कवरेज के लायक तब तक नहीं बनते, जब तक इनके हाथ में कोई तमगा आ नहीं जाता। दूसरी तरफ झुनझुने वाले नवाबजादे खबर तब बनते हैं जब किसी रात शराब के नशे में वे किसी फुटपाथी को कुचल कर भाग रहे होते हैं और फिर उनके पिता उन्हें बचाने की जुगत में लगते हैं।

ये दो अलग-अलग किस्म के युवा असल में इंडिया और भारत हैं। इन दोनों से मिल कर देखिए। जिंदगी का फलसफा समझ में आने लगेगा।  

(यह लेख 21 मई, 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

May 19, 2010

झोंका जो आया अतीत की खिड़की से

अनार के दाने ही थे
वो पल
गिलहरी की तरह गुदगुदाते आए
फिर बह गए

वो शहतूत की बेरियां
कच्चे आमों की नटखट अटखेलियां
आसमान के जितने टुकड़े दिखते
अपनेपन से भरे लगते
घर का फाटक और
फाटक के पास से गुजरते लोग
उनके चेहरे के भाव
जो घर आते, वो भी भले लगते
न आने वाले भी किसी सुख के साये में जीते ही लगते

असल में तब परिभाषा शायद सुख की ही थी
कहां जाना कौन थे बुद्धा, राम या रहीम
किसी का फलसफा पढ़ा ही कहां था
लेकिन मन में शांति की चादर ऐसी लंबी थी
कि तमाम सरहदें पार कर लेती

उन गुनगुने दिनों में रिश्ते जितने थे
अपने थे
शहरों गांवों-कस्बों की सीमाओं से परे

वो शहतूत अब दिखते नहीं
रिक्शे की ऊबड़-खाबर सवारी
कचनार के खिले से रंग
पेट में उठती उल्लास की हूक
हर शब्द से झरता प्यार

सब कुछ इतिहास क्या इतनी जल्दी हो जाता है?