Aug 29, 2010

पीपली के बहाने....

पीपली लाइव देखने जाना ही था। वजह फिल्म की चर्चा से कहीं ज्यादा यह थी कि महमूद और अनुषा के साथ मुझे एक लंबे समय तक एनडीटीवी में काम करने का अवसर मिला था। महमूद ने उन दिनों एक स्टोरी में पीटूसी करते हुए शेक्सपीयर के एक बहुत लंबे पद्य को जब मुंहजबानी बोल डाला था, तब मुझमें यह उत्कंठा जाग उठी थी कि यह अलग-सा शख्स है कौन। बाद में पता चला कि आक्सफोर्ड और कैंब्रिज में पढ़े महमूद के पास इतिहास की जानकारी का जैसे खजाना ही है और वह दास्तानगोई में माहिर है। उर्दू, अंग्रेजी और हिंदी तीनों भाषाओं में समान अधिकार वाला महमूद हमेशा हैरत में ही डालता था।

अनुषा की पहचान एक खुली सोच की थी। वह प्रोडक्शन में माहिर थी और हमेशा मुस्कुराती हुई मिलती थी। एनडीटीवी की कॉफी मशीन के पास जब वो दिखती, तब उसकी मुस्कुराह़ में सोच घुली हुई दिखती।

खैर, तो इस हफ्ते पीपली लाइव देखी। स्क्रीन में जो दिख रहा था, उससे ज्यादा मजेदार पीछे की सीटों पर घट रहा था। इलेक्ट्रानिक मीडिया का मजाक उड़ाते हर अंश पर पीछे की सीटों पर बैठे युवा खूब खुश होकर मजा लेते, चिल्लाते, हंसते, तालियां बजा कर देखते। उनकी प्रतिक्रिया से बहुत साफ था कि हो न हो, ये लोग मीडिया के ही हैं। खैर पीछे मुड़ कर देखा तो कई पहचाने चेहरे देखे। उनमें से कुछ युवा प्रोडक्शन वाले भी थे लेकिन मजे की बात यह कि वे सब स्क्रीन पर उभरते तमाशाई सच को देखकर भरपूर खुश थे।

फिल्म को देखते हुए, बकरी उठाए नत्था और उसके भाई बुधिया के चेहरे पर बेचारगी का जो भाव उभरता है, वह मीडिया के उस चेहरे को छील कर सामने लाता है जो आत्म केंद्रित, आत्म मुग्धा, आत्म प्रशंसक है। उसके कैमरे का लैंस अपने स्वार्थ से परे कुछ नहीं देखता। नत्था की पत्नी का एक आम भारतीय पत्नी की तरह गरियाना, नत्था का यह कहना कि भाई तुम ही कर लो आत्महत्या और बड़े भाई का छटपटाना कि जाने नत्था कब देगा अपनी जान फिल्म को असल जिंदगी से जोड़ता है। यह छोटा-सा कुनबा समाज के उस हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है जो जीता घिसट-घसट कर है और जिसके लिए मरना भी आसान नहीं।

लेकिन इस फिल्म का सबसे दमदार कैरेक्टर राकेश नामक पत्रकार इनमें कुछ अलग है। उसकी खबर की समझ दिल्ली वालों से ज्यादा है, उसकी छठी इंद्री ज्यादा विकसित है और वो तत्पर है लेकिन आखिर तक चाहने पर भी उसे बड़े चैनल में नौकरी तो नसीब नहीं होती, गुमनाम मौत जरूर मिल जाती है।  

फिल्म कहती चलती है लेकिन साथ ही साथ सवालों के काफिले भी छोड़ती जाती है। पहली ही फिल्म से महमूद और अनुषा का चर्चा में आना काबिलेतारीफ है लेकिन साथ ही यह बात बड़ी गुदगुदाती है कि जो मीडिया कभी अपनी सहनशक्ति खोने लगा था, वो अब बड़े परदे पर अपना बाजा बजता देख कर भी खुश हो रहा है।

असल में यह एक बहुत बड़े बदलाव का सुखद संकेत है। बहुत दिनों के बाद पीपली लाइव के बहाने ही सही, मीडिया के सामने एक बड़ा आईना रखने की हिम्मत की गई है।

लेकिन यह सफर यहां थमना नहीं चाहिए.....

जिंदगी, कविता , जिंदगी

सुबह ही की तो बात है

तमाम कविताएं बंद करके

डाल दीं थीं पिछले कमरे में

शाम हुई

वहां हलचल दिखी

अंदर झांका

कविताएं बहा रही थीं आंसू

एक दूसरे की बाहों में

कहतीं कुछ यूं

कि नहीं रहेंगी

उसके बिना

जिसने उन्हें किया था पैदा

ये कविताएं हमजोली थीं

फुरसत थी उनके पास

कहने की दिल का हाल

 

हां, कविताएं थीं

तभी तो ऐसी थीं

Aug 28, 2010

एक अदद शादी के नाम पर....

शादी के विरोध के नाम पर गला काट देना, जला देना, किसी भी तरह से बस हिंसक हो उठना - यह सब जब होता है तो भारत के सभ्य समाज में उसे ऑनर किलिंग कहा जाता है। त्रासदी यहीं से शुरू होती है।   

बीचे कुछ महीने इन्हीं शर्मनाक हत्याओं के गवाह बने। जगह-जगह की खप पंचायतों ने अपने फरमान जारी किए और नतीजा रहीं- जघन्य हत्याएं। यह हत्याएं होती तो पहले भी थीं लेकिन तब इन्हें उछाल कर बाहर खींच लाने वाला सजग मीडिया नहीं था। अब कैमरे हैं, कलम है, तस्वीरें हैं और क्रूरता से भरे चेहरों को तुंरत घर बैठे बार-बार देखते रहने की सुविधा है।

दरअसल यह सारा मामला सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि से जुड़ा हुआ है। इन सबकी इसमें गहरी भूमिका है। अगर समाज सेहतमंद-तरक्कीपसंद रहे तो आपसी मर्जी से की गई या की जाने वाली शादी कुछ बहसों के बाद ही शांत हो जाए। अगर आर्थिक आजादी का माहौल और मजबूती हो तो प्रेमी जोड़ों की निर्भरता का स्तर घटने से भी शादियां सहज हो जाएं क्योंकि सफल आदमी सिर्फ सफल होता है। सफल आदमी के निजी मसलों को लेकर समाज की भाषा ही कुछ और हो जाती है। उसके फैसले सराहे जाते हैं। उस मामले में समाज उसे उसे उदारवादी-धर्मनिरपेक्ष सरीखी कोई बड़ी पदवी दे देता है। धार्मिक इसलिए कि दुहाई हमेशा धर्म और रूढियों की ही दी जाती है और उसके जोर पर -धर्म कर दिए जाते हैं। पंडितों-मुल्लाओं से सिर खपाने वालों को खुद ही कई बार पूरी बातों का इल्म नहीं होता और इसी का फायदा कथित धर्म रक्षक उठा जाते हैं। वे उन पोथियों का हवाला देते हैं जिनकी गलियों में ज्यादातर लोग झांकते भी नहीं। इसलिए कठमुल्लाओं की बातें सर-आंखों पर बैठा दी जाती हैं। शैक्षिक इसलिए कि फरमान-आदेश जारी करने वाले अगर खुले दिमागों वाले हों तो मुद्दों के फंदों को भी खुले आसमान के नीचे मजे से सुलझा लिया जाए। वहां तर्क और बदलाव का कद बड़ा होता है। पर ऐसा हो नहीं पा रहा। पंजाब, हरियाणा, बिहार और राजस्थान इस बार खप की वजह से सुर्खियों में रहे। विश्वास करना मुश्किल था कि यह वही पंजाब है जिसने हरित क्रांति का बिगुल बजाया था, वही हरियाणा है जहां दूध की नदियां बही थीं, वही बिहार है जहां 15 साल बाद अब विकास के ग्राफ के ऊपर चढ़ने के सबूत दिए जा रहे हैं और वही राजस्थान है जहां अतिथि देवो भव की सम्मानित परंपरा रही है।

पाकिस्तान की करो-करी की बरसों पुरानी कुरीति उत्तरी भारत में जड़ें जमाने लगी है। सरकारें इस बार भी हाथ मल कर देख रही हैं। इसलिए हालात में बदलाव लाने के लिए मीडिया और सिनेमा आगे आया है। 

खबर है कि प्रियदर्शन गोत्र हत्याओं पर एक फिल्म पर जोरों से काम कर रहे हैं। बिहार की पृष्ठभूमि में बन रही इस फिल्म में अजय देवगन, अक्षय खन्ना और बिपाशा बसु होंगें। हसरतें और अस्तित्व जैसे कई टीवी धारावाहिकों के निर्माता रहे अजय सिंहा अब एक फिल्म बनाने जा रहे हैं जिसका नाम होगा- खप- स्टोरी आफ ऑनर किलिंग। इस फिल्म में ओम पुरी, गोविंद नामदेव और युविका चौधरी होंगी। 1988 में जख्मी औरत बना चुके अवतार भोगल भी इसी तर्ज पर एक फिल्म बनाने में जुटे हैं। इससे पहले दिबाकर बैनर्जी की फिल्म लव, सेक्स और धोखा में भी इस मसले को छुआ गया था।

लगता यही है कि अगर मीडिया और सिनेमा पूरी एकजुटता दिखाए तो आनर किलिंग का आनर जाते ज्यादा देर लगेगी नहीं। इस परेशानी का जवाब फिलहाल मीडिया से ही निकलता दिखाई देता है।