राहुल महाजन का अपनी दूसरी पत्नी को भी पीटना इस बार जोरदार खबर बना। ऐसी खबर कि कई चैनलों में इसी पर चर्चा की गई कि क्या यह मुद्दा इस विस्तृत कवरेज के लायक था भी या नहीं। क्या यह किसी एक दंपत्ति के निजी जीवन पर जरूरत से ज्यादा दखल था। क्या इस तरह की कवरेज से छिछलेदार रिपोर्टिंग को प्रोत्साहन मिलेगा। सवाल कई हैं।
लेकिन जवाब एक ही उभर कर आता दिखता है। मामला महिला के खिलाफ अत्याचार का था,पत्नी को पीटे जाने का था और जब तक पत्नी या उसके परिवार को कवरेज पर सीधे आपत्ति नहीं होती, बात दूसरी होती है।
कवरेज के दौरान इस खबर को कई चटखारेदार हेडिंग के साथ परोसा गया। मंगलसूत्र गायब, सिंदूर गायब, दूसरी (पत्नी) भी गई वगरैह। चैनल की भाषा में घटना को लेकर संवेदना काफी कम, मसाले को पाने-दिखाने का भाव ज्यादा था। कवरेज निजी से भी निजी परतों को खोलती-उधेड़ती दिखी। भाषा, संगीत, कैप्शन, रंग, एंकर, ग्राफिक्स, कैमरा एंगल – इन सबका चयन इस अदाकारी के साथ किया गया गोया कोई राष्ट्रीय महत्व की खबर का उत्सव बन रहा हो। मामला तो सीधे तलाक तक पहुंचने और राहुल के सलाखों के पीछे पहुंचने जैसा लगने लगता है।
फिर कुछ ही घंटों बाद एक तस्वीर आती है – पति-पत्नी की सिद्धीविनायक मंदिर से बाहर आते हुए। यह तस्वीर भावुक भारतीय समाज में दांपत्य के सुरों के फिर से सही तान पर बैठने की उम्मीद जताती है। दर्शक इन्हें चाव से देखता है।
चौबिसिया घंटे की कवरेज तकरीबन यहीं पर पहुंच कर जैसे थम सी जाती है। लेकिन जहां यह थमती है, वहीं से असल खबर का सिरा पकड़ा जा सकता है। पति-पत्नी के बीच तनाव एक घरेलू और बेहद निजी मामला हो सकता है लेकिन जब बात पिटाई पर आ जाए तो वो फिर निजता और शुचिता से बाहर चला जाता है और पत्नी का घर से जान बचा कर निकलना, फिर मदद की गुहार करना पूरी तरह से सार्वजनिक क्षेत्र में आ ही जाता है। यहां यह बहस जरूर की जा सकती है कि क्या मीडिया का दखल ऐसी घटनाओं में आग में घी डालने का काम नहीं करता। इसके जवाब दोनों पालों से आ सकते हैं लेकिन तब भी क्या हम इस बात को नकार सकते हैं कि अगर ऐसा न हो तो क्या हर तीसरे-चौथे घर में बैठे हुए राहुल हमें दिखाई दें। ऐसा न हो तो हम तो शायद यह मानने लगे कि घरेलू हिंसा की घटनाएं मुंबई, दिल्ली जैसे महानगरों में जल्द ही इतिहास होने वाली हैं। ठीक उसी तरह कि जैसे मीडिया फौजी ट्रेनिंग पाए जानवरों की तरह अपने कान अगर हमेशा खड़ा न रखे तो महिला लेखिकाओं को छिनाल कहने वाले भी मजे से महिमामंडित होते रहें और समाज के एक बड़े तबके को इसका इल्म तक न हो।
असल में इस तरह की तमाम घटनाएं अपराध की श्रेणी में आती हैं और समाज को यह संदेसा भी दे जाती हैं कि कुकर्मों के बावजूद लोग बच जाते हैं। पर असल संदेश इस ऊपरी संदेश के खोल में छिपा है जो कहता है कि वे कानूनी शिकंजों से भले ही बच जाएं, सामाजिक खेत-खलिहान में खबर में आने के बाद एक सजा वो होती है जो समाज तय करता है और देता है।
यहां एक बात और भी है। बीते कुछ सालों में मीडिया का विस्तार चौंकानेवाली गति से हुआ है। उसे मिलने वाला ध्यान भी आशातीत रहा है। ऐसे में मीडिया को अपनी भूमिका को खबर देने से कुछ आगे ले जानी चाहिए। इसका मतलब यह कतई नहीं कि वो गैर-जिम्मेदाराना हो जाए बल्कि यह कि उसे लोगों, खासतौर से महिलाओं को, उनके अधिकारों और कर्तव्यों – दोनों के प्रति सचेत करते चलना चाहिए। इसलिए मर्यादा में रहकर अगर मीडिया समाज की काली परतों को उधेड़ रहा है तो ताली तो बजनी ही चाहिए, हां, सीटी बजाने की आदत हम न डालें तो बेहतर होगा।
(यह लेख 10 अगस्त, 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)
5 comments:
Nanda Ji kyon is bewkoof insan ko higlight kar rahi hain.
AMuka lage to padhiyega
www.taarkeshwargiri.blogspot.com
वर्तिका जी, मीडिया को क्या करना है क्या नहीं लगता है वह सब भूल चुका है। तभी समय समय पर आचार संहिता की बात उठने लगती है। महिला उत्पीडिऩ को किस रूप में दिखाना था यह उन्हें पता ही नहीं था। और उन महाशय के सम्मान में क्या कहना जो नारी शक्ति को छिनाल कह गए। जबकि ये महाशय प्रगतिशील बनते फिरते हैं। शायद यही प्रगति की है उन्होंने कि नारियों का भरपूर अपमान किया जाए।
यही वो समय है कि हम खुद को काबू में करें औऱ दुनिया को दिखाएं की भारत का चौथा खंभा अब भी पुरी ताकत रखता है। फ्रांस औऱ इटली की घटनाएं बेहद ही दुर्भाग्यपूर्ण हैं। पर क्या वहां लंबे समय तक ऐसा हो पाएगा। देखने वाली बात होगी। राहूल महाजन के बहाने हम अपने समाज का एक बहका और बर्बाद हो चुका अंग देख रहे हैं। पर जरुरी नहीं कि उसकी हर झींक को भी खबर के तौर पर देखा जाए।
Problem ka karan ham jaise Shrota hain.......hame aisee masaledaar khabre prbhavit karti hain, aur news ki TRP badhti hai........lekin isko badalne ki jarurat hai........!!
waise apne sahi kaha!
मर्यादा में रहकर अगर मीडिया समाज की काली परतों को उधेड़ रहा है तो ताली तो बजनी ही चाहिए, हां, सीटी बजाने की आदत हम न डालें तो बेहतर होगा।
... बेहद गंभीर व सार्थक अभिव्यक्ति !!!
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