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Jul 16, 2025

16 जुलाई, 2025 -स्त्री- दैनिक भास्कर (मधुरिमा)


अखबार में कविता छपने का स्वाद ही कुछ अलग होता है—एक सधी हुई मिठास, जो मन को भीतर तक छू जाती है। आज का दिन खास रहा, जब मेरी रचना 'स्त्री' को दैनिक भास्कर की लोकप्रिय 'मधुरिमा' में स्थान मिला। यह सुखद अनुभव और भी खास बन गया जब कई अनजाने पाठकों ने अपनी प्रतिक्रिया भेजी—जिनसे कभी कोई संवाद नहीं हुआ था, पर शब्दों ने पुल बना दिए।


शुक्रिया रचना समंदर इस कविता को इतनी सुंदर जगह देने के लिए।



स्त्री किसी भी राजनीति, बहस या मजाक के केंद्र में कहीं से लाकर रख दी जाती है स्त्री उसके बिना गाली पूरी नहीं होती उसके बिना उलाहनों के गट्ठर भी नहीं बन पाते किसी के उजड़ने के पीछे भी किसी स्त्री का नाम जरुरी है गिरते चरित्र का कोई कथानक भी स्त्री के बिना कहां पूरा हो पाता है सामान बेचने के विज्ञापन में भी स्त्री की छुअन जरूरी है भले ही उसका स्त्री से न हो कोई ताल्लुक स्त्री के बिना टीवी की खबर नहीं चलती स्त्री के बिना जुमले पूरे नहीं होते स्त्री के बिना अपराध होने की वजह नहीं टिकती हत्या से आत्महत्या तक महल से बस्ती तक ( संसद से सड़क तक) -सब जगह जो भी अटपटा, टेढ़ा या मटमैला है उसके भी गर्भ में रख दी जाती है-स्त्री और अब तो यह भी कहा जा रहा है कि दफ्तर पर ज्यादा काम जरूरी है कि कोई घर की स्त्री को कितनी देर तक निहारे स्त्री गडमड हो गई है इन सबमें तन से स्त्री रही पर मन में सिलवटें भर आईं वो पुरुष जैसी बने, स्त्री ही रहे या फिर कुछ भी न रहे इसका फैसला भी स्त्री नहीं करेगी वर्तिका नन्दा

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I was pleasantly surprised to receive this beautiful illustration by an unknown artist, later whom I could identify as Unnati Bhilwara from Bharatpur (Rajasthan), an artist by passion. Well done Unnati!!! 


 



पाठकों की प्रतिक्रियाएं

16 जुलाई अंक में रामायण की रचना हो या महाभारत का संग्राम इसमें भी एक स्त्री की ही भूमिका तय की जाती है भले ही वासना, अहंकार या अन्य करण रहे हो वो पुरुष जैसी बने, स्त्री ही रहे, या फिर कुछ भी ना रहे, इसका फैसला भी स्त्री नहीं करेगी यह दृष्टिकोण पुरुष प्रधान समाज की जबरदस्त सोच को ही प्रदर्शित करता है कविता लेखक वर्तिकानंदा एवं मधुरिमा के प्रकाशन पर बधाई साक्षी,समीक्षा सिंघई,बाकल --------------------- कविता "स्त्री" वाकई कम शब्दों में बेहतरीन कविता लगी, वर्तमान समाज में महिलाओं के सशक्तिकरण, सम्मान, सुरक्षा एवं स्वतन्त्रता की बहुत आवश्यकता है। ताकि वे भी अपने सपनों की उड़ान भर सके। कहानी " नाम" एवं "सोच की गुलामी" भी बहुत सकारात्मक एवं प्रेरणादायक लगी। -रविन्द्र नाथ जुंजालिया, सारसंडा (राजस्थान) ---------------- 16 जुलाई का मधुरिमा अंक बेहद शिक्षाप्रद लगा।"स्त्री "कविता स्त्री की अहमियत बताती है आज समाज के हर क्षेत्र में केंद्रबिंदु स्त्री पर टिका होता है। हमें समाज में स्त्री को सम्मान की दृष्टि से देखना चाहिए। शिक्षाप्रद लेखों के लिए मधुरिमा का दिल से शुक्रिया। आजाद पूरण सिंह राजावत निहालपुरा, जयपुर, राजस्थान। ---------------------- नमस्कार, आज के अंक में कहानी कौन मक्कार,कौन होशियार अच्छी लगी।जीवनशैली तय करती है सेहत रुचिकर। कविता स्त्री सच को बयान करती है। धन्यवाद मधुरिमा। -सुभाष चंद्र ---------------------- आदरणीय वर्तिका नंदा लिखित कविता "स्त्री" बहुत ही सुन्दर लगी. स्त्री पर रचित कविता एक दम प्रासंगिक है. कैलाश कपाड़िया ------------------ 16 जुलाई के अंक में ‘स्त्री’ नामक कविता दिल को छूने वाली थी। आदित्य शेखर, इंदौर, मध्यप्रदेश ------------------- 16 जुलाई को प्रकाशित वर्तिका नंदा की कविता स्त्री मन छू गई। दिनेश बारोठ ॓दिनेश ॔ शीतला कॉलोनी सरवन रतलाम ---------------------- मधुरिमा के वैसे तो हर हफ्ते के अंक में प्रकाशित लेख, लघु कहानियां सभी अच्छे और पठनिय होते हैं। लघु कथा नाम और कविता स्त्री बहुत सुन्दर रचना लगी। डा गायत्री तिवारी रतलाम मध्यप्रदेश ।


Jun 19, 2025

Hans: जेल पर कविताएं: वर्तिका नन्दा: June, 2025

 ।।। जेल।।।

बी.ए प्रथम वर्ष में थी. मुझे वर्धा विश्वविद्यलय में होने वाली वाद-विवाद की एक प्रतियोगिता के लिए चयनित किया गया था. मैं अपने विश्वविद्यालय में प्रथम रही थी. लिहाजा प्रतिनिधित्व कर रही थी.

फिरोजपुर से दिल्ली और फिर यहां से वर्धा. Second AC का वो कोच आधा खाली था लेकिन कुछ ही देर में वो साहित्यिक ओज से भरता गया. मेरे अंदर का युवा लेखक तुरंंत यह समझ सका कि कोच में इस समय कुछ बड़े लेखक हैं.

दो कदम आगे बढ़कर देखा. साथ लगी सीटों पर राज्रेंद्र यादव, निर्मला जैन और कुछ और लेखक हैं. नाम ठीक से स्मरण नहीं। दिल्ली से वर्धा की उस यात्रा ने मन के साहित्यिक अंकुरों को सींच दिया. बाद के सालों में जब भी यादव जी से भेंट हुआ, उन्होंने इस यात्रा का हमेशा जिक्र किया.

राजेंद्र यादव जी के उसी हंस के जून अंक में अपनी कविता को देखना सुखद है. हंस के संपादक संजय जी और उनकी टीम के सहयोगी ने मेरी भेजी मेल पर तुरंत हामी भरी. अपरिचय के बावजूद स्नेह मिला.

शुक्रिया.  

आज भी अपने लिखे को छपा हुआ देशना सुकूनदायक है. वह सुकून अखबार या पत्रिका ही दे सकती है, सोशल मीडिया नहीं. लेकिन हां, सोशल मीडिया पर साझा करने का एक अलग स्वाद जरूर है.





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जेल में जिंदगी

हर प्रार्थना कुबूल नहीं होती

कुछ आसमान तक पहुंचने से पहले

हवा का गोला बन जाती हैं

कभी बरसात में गुम जाती हैं

कभी कोहरे में ओझिल


लेकिन इससे प्रार्थना की नमी कम नही होती
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नाराजगी की लकीर

जिंदगी से भी लंबी हो जाए

तो माथे पर लकीरें बढ़ जाती हैं


जेल के पास इन लकीरों के दस्तावेज हैं
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डर में जकड़ा आदमी

आजीवन कारावास में रहता है

उसकी सजा तय सजा से भी

ज्यादा लंबी, घनी और तकलीफदेह होती है

डर से मन का कद घटता जाता है

और शोर का होता है फैलाव

डर की जेल से मुक्ति

डर में जकड़ा आदमी ही दिला सकता है

Aug 5, 2023

Jun 25, 2023

2023: साहित्य अमृत: जुलाई अंक: वर्तिका नन्दा: 5 कविताएँ: पेज - 57

कविताओं के नाम-

जेल, जेल की औरत, औरतें जिनका पता नहीं होता, मैं ख़ुद पूरी दुनिया हूँ





Feb 7, 2022

पाखी: वर्तिका नंदा की छह कविताएं

 पाखी: वर्तिका नंदा की छह कविताएं 39-40, Year 14, Issue 2, नवंबर, 2021


स्त्रीकोश: भारतीय स्त्री कविता 'कठपुतली'

स्त्रीकोश: भारतीय स्त्री कविता कठपुतली 361, Edition 1, ISBN: 978-81-948562-5-2 अक्टूबर 2021

Feb 19, 2013

मेरे समय की औरतें

लड़कियां फुटबाल की तरह उछल कर खेल लेतीं हैं इन दिनों

और अपने सीने में सीलन को दबाए

मुस्कुरा भी लेती हैं 

 

लड़कियों के पास अब अपना एक आसमान है

 

अपनी पगडंडी

अपनी कुटिया

अपनी हंसी

अपना दुपट्टा


समय के साथ बदल गई हैं लड़कियां

कालेज के बार भेलपूरी खाते हुए

यहां-वहां झांकतीं नहीं वे

 

खुश रहने लगी हैं लड़कियां

अपमान पी गईं हैं लड़कियां

हां, बदल गईं हैं लड़कियां



बादलों के बीच  


हर औरत लिखती है कविता

हर औरत के पास होती है एक कविता

हर औरत होती है कविता

कविता लिखते-लिखते एक दिन खो जाती है औरत

और फिर सालों बाद बादलों के बीच से

झांकती है औरत


सच उसकी मुट्ठी में होता है

तुड़े-मुड़े कागजसा

खुल जाए

तो कांप जाए सत्ता

पर औरत

ऐसा नहीं चाहती

औरत पढ़ नहीं पाती अपनी लिखी कविता

पढ़ पाती तो जी लेती उसे


इसलिए बादलों के बीच से झांकती है औरत

बादलों में बादलों सी हो जाती है औरत

Nov 5, 2012

कुछ फिल्म, कुछ जिंदगी

तमाम फिल्मी गानों के बीच

रूमानियत प्रेम सद्भाव स्नेह ममता विछोह

हर गीत ने हर बार अपनी जिंदगी की फिल्म ही चला दी


आसान तो होता ही है किसी दूसरे की फिल्म को देखना

रात में खाना खाकर

पान के साथ उसे चबा जाना


किसी दूसरे के आंसू, बेचारगी, विद्रूपता, षड्यंत्र

सभी को

मजे से पचा लेना

और सिनेमा हाल की कुर्सी से हाथ पोंछ कर

बाहर निकल आना


पॉपकॉर्न के साथ हजम कर जाना

फिल्म में दिखता अपमान, चालाकी और धूर्तता

और अगली सुबह फिर अपने अंदर के अपराधी को जगाकर

सच को पूजा की थाली के नीचे छिपा

दफ्तर चले आना


फिर चाय के साथ पकौड़ों की तरह

बात कर लेना उस फिल्म पर

और अखबार में पढ़ी समीक्षा और उसमे टंके सितारों पर भी

जमा देना

अपनी एक छोटी सी टिप्पणी


पर दोस्त

जिंदगी फिल्म कहां होती है

और उसका अंत भी कहां होता है इतनी सहजता से


जिंदगी फिल्म की पहली रील भी नहीं

जिसमें सेंसर बोर्ड का ठप्पा लगा हो

और न ही वह विराम

जो पल भर के लिए बीच में चल आए कि

आप कर सकें फिर कुछ संवाद, मतलब- बेमतलब के

और हॉल में सिंदूर लगाए बैठी पत्नी के उस पार

गर्ल फ्रेंड से अगले मिलन की तारीख तय कर आएं


जिंदगी में कहां होती है 35 एमएम की रील

तीन घंटे की फिल्म के बाद

जब पुराने नेपकिन को फेंक आते हैं

उस डस्टबिन में

तो जिंदगी के बाकी बचे अंश

फिल्म के किसी दरकते हिस्से के साथ चिपके हुए

साथ आते तो जरूर हैं

पर कार की खुली खिड़की,

मन के बंद दरवाजों

और बुने जाते सतत फंदों के बीच

वो सारा धुंआ कहीं उड़ जाता है


मन के पंछी को रोक कर

और नकली संवादों को डस्टर से मिटा कर

कभी अपनी जिंदगी पर

एक सच्ची फिल्म बना कर देखा है क्या


बस, वही एक फिल्म होगी

जो ब्लॉकबस्टर होगी

इस ख्याल को

लॉक किया जाए क्या
श्रद्धांजलि
श्रद्धांजलियां सच नहीं होतीं हमेशा
जैसे जिंदगी नहीं होती पूरी सच
तस्वीर के साथ
समय तारीख उम्र पता
यह तो सरकारी सुबूत होते ही हैं
पर
यह कौन लिखे कि
मरने वाली
मरी
या
मारी गई
श्रद्धांजलि में फिर
श्रद्धा किसकी, कैसे, कहां
पूरा जीवन वृतांत
एक सजे-सजाए घेरे में?
यात्रा के फरेब
षड्यंत्र
पठार
श्रद्धांजलि नहीं कहती
वो अखबार की नियमित घोषणा होती है
एक इश्तिहार
जिंदगी का एक बिंदु
अफसोस
श्रद्धांजलि जिसकी होती है
वो उसका लेखक नहीं होता
इसलिए श्रद्धांजलि कभी भी पूर्ण होती नहीं
सच, न तो जिंदगी होती है पूरी
न श्रद्धांजलि
बेहतर है
जीना बिना किसी उम्मीद के
और फिर मरना भी
परिभाषित करना खुद को जब भी समय हो
और शीशे में अपने अक्स को
खुद ही पोंछ लेना
किसी ऐतिहासिक रूमाल से
प्रूफ की गलतियों, हड़बड़ियों, आंदोलनों, राजनेताओं की घमाघम के बीच
बेहतर है
खुद ही लिख जाना
अपनी एक अदद श्रद्धांजलि