।।। जेल।।।
बी.ए प्रथम वर्ष में थी. मुझे वर्धा विश्वविद्यलय में होने वाली वाद-विवाद की एक प्रतियोगिता के लिए चयनित किया गया था. मैं अपने विश्वविद्यालय में प्रथम रही थी. लिहाजा प्रतिनिधित्व कर रही थी.
फिरोजपुर से दिल्ली और फिर यहां से वर्धा. Second AC का वो कोच आधा खाली था लेकिन कुछ ही देर में वो साहित्यिक ओज से भरता गया. मेरे अंदर का युवा लेखक तुरंंत यह समझ सका कि कोच में इस समय कुछ बड़े लेखक हैं.
दो कदम आगे बढ़कर देखा. साथ लगी सीटों पर राज्रेंद्र यादव, निर्मला जैन और कुछ और लेखक हैं. नाम ठीक से स्मरण नहीं। दिल्ली से वर्धा की उस यात्रा ने मन के साहित्यिक अंकुरों को सींच दिया. बाद के सालों में जब भी यादव जी से भेंट हुआ, उन्होंने इस यात्रा का हमेशा जिक्र किया.
राजेंद्र यादव जी के उसी हंस के जून अंक में अपनी कविता को देखना सुखद है. हंस के संपादक संजय जी और उनकी टीम के सहयोगी ने मेरी भेजी मेल पर तुरंत हामी भरी. अपरिचय के बावजूद स्नेह मिला.
शुक्रिया.
आज भी अपने लिखे को छपा हुआ देशना सुकूनदायक है. वह सुकून अखबार या पत्रिका ही दे सकती है, सोशल मीडिया नहीं. लेकिन हां, सोशल मीडिया पर साझा करने का एक अलग स्वाद जरूर है.
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