प्राइवेट रेडियो के लिए बहुत दिनों बाद एक गुड न्यज सुनाई दी है। खबर है कि निजी स्टेशनों को जल्द ही खबरों के प्रसारण की अनुमति मिल जाएगी लेकिन उन्हें खबरों को आकाशवाणी से ही लेना होगा। यानि स्रोत तय होगा और उसी के बंधन में खबर का प्रसारण करना होगा। इसका एक मतलब यह भी निकलता है कि खबर वही होगी, जो सरकार देना चाहेगी। खबर छन और पक कर आएगी और निजी चैनल उसी को किसी परिवर्तन किए बिना प्रस्तुत करने के लिए बाध्य होंगे।
लेकिन तब भी गुड न्यूज आई तो सही। आकाशवाणी के आला अफसरों ने यह भरोसा दिलाया है कि इस काम को अंजाम देने के लिए दो तरह के पैकेज बनाए जाएंगें। एक तो 15 मिनट का पैकेज होगा और दूसरा 2 मिनट का। प्राइवेट रेडियो स्टेशन अपनी जरूरत और समय के मुताबिक इनका इस्तेमाल कर सकेंगे। इसके अलावा खेलों की लाइव कमेंट्री देने पर भी विचार किया जा रहा है। यह सारे भरोसे उस समय दिलाए जा रहे हैं जब कि भारत में एफएम रेडियो के विस्तार के तीसरे चरण की प्रक्रिया को अंतिम रूप दिया जा रहा है। इस समय भारत में 84 केंद्रों में एफएम के 245 स्टेशन हैं। तीसरे चरण के बाद उम्मीद है कि 283 शहरों में 800 एफएम स्टेशन खुल जाएंगें।
इसका मतलब यह कि भारत में प्राइवेट रेडियो को खबरों के प्रसारण के लंबे इंतजार से अब मुक्ति मिलेगी लेकिन यहां यह नहीं भूला जाना चाहिए कि यह सब बहुत ही हास्यास्पद ढंग से आगे बढ़ा है। भारत में रेडियो का बीज 1921 में पड़ गया था जबकि दूरदर्शन 1959 में पैदा हुआ। निजी चैनल 90 के दशक में आए और इतने स्मार्ट निकले कि देखते ही देखते 24 घंटे के न्यूज चैनलों में तब्दील होने में सफल हो गए। वहां समय, शॉट्स, भाषा, नियम-कायदों की सारी कहानियां कच्चे रंगों की तरह रहीं। वे भूत को गवा कर, नागिन को नचा कर, राखियों को सजा कर और बेकार की खबर को भी ब्रेकिंग न्यूज बता कर टिके रहे। उनकी जमीन हिली नहीं। दूसरी तरफ नजाकत, नफासत के साथ शुरू हुए रेडियो को कभी भी अपनेपन की जमीन नसीब नहीं हुई। वह गाने बजाता ही रह गया। आकाशवाणी के जिम्मे तो जैसे पूरे देश की परंपरा को संभालने का काम ही पड़ गया। वह शास्त्रीय संगीत, विकास, कला साहित्य, नाटक, कठपुतली, तराने, किसान भाई, सैनिक भाई, चीनी भाई, देशभक्ति – बस इन्हीं सबके फंदों में उलझा पड़ा रहा। उसका सारा ध्यान शब्दों के सही उच्चारण, भाषा की गरिमा और सौहार्द की ऊंचाई और गांभीर्य भरे ठहराव से कभी हटा ही नहीं। वह इस देश की संस्कृति का रक्षक बना रहा और अब भी है।
प्राइवेट रेडियो स्टेशन आए तो उन्होंने रेडियो के खिचड़ीनुमा स्वाद में तड़का लगाने का काम किया। वे हिंग्लिश बोलने लगे। बात-बात में उछलने लगे। उनकी भाषा में हड़बड़ी दिखी, नई जमाने के मुताबिक सांचे में ढलने की काबिलियत भी लेकिन इस सबके बावजूद वह टीवी के करीब नहीं पहुंच सका। वजह कंटेट नहीं थी, वजह थी-खबर। प्राइवेट रेडियो को न्यूज से दूर रखा गया।
भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय को यह डर हमेशा रहा कि अगर रेडियो को खुली लगाम दे दी गई तो क्या होगा। रेडियो खबर को हैंडल नहीं कर सकता। दूसरा डर यह भी रहा कि चूंकि रेडियो का दायरा आज भी टीवी से कहीं ज्यादा है, अगर रेडियो अनर्गल प्रसारण करने लगा तो उस पर रोक लगेगी कैसे। देश के दूर-दराज में उसकी मॉनिटरिंग करेगा कौन। मंत्रालय के लिए रेडियो एक ऐसा कीमती खिलौना हो गया जो देखने में तो सुंदर था लेकिन उससे खेलने की छूट किसी को न थी।
खबर को लेकर रेडियो पर नियंत्रण की यह कहानी हमेशा ही अटपटी लगी। देश में 600 चैनल उग आए, प्राइवेट चैनलों को खबर दिखाने का लाइसेंस मिलने लगा और वे भी खबर के नाम पर अपनी मर्जी के मुताबिक सामान परोसने लगे। तब भी मंत्रालय के माथे पर त्यौरियां नहीं चढ़ीं। चैनलों पर कई बार गैर-जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग हुई पर मंत्रालय ने उसे भी आराम से हजम कर लिया। बाद में 2010 में मंत्रालय ने एक मीडिया सैल का गठन किया लेकिन वो भी खामोश ही रहा है। ऐसे में रेडियो पर ही तमाम बंदिशें क्यों।
रेडियो को अपने वजूद को बनाए रखने के लिए हमेशा सबूत क्यों देने पड़ते हैं। सदी के इस अध्याय में खबर चारों तरफ है। जब बाकी किसी माध्यम पर कोई लगाम नहीं है तो सबसे पुराने,विश्वसनीय और टिकाऊ माध्यम को बंधन में रखने का आखिर क्या औचित्य है। सोचिए ओसामा के मारे जाने की खबर को तस्वीरों के साथ जब पूरी दुनिया का टीवी दिखा रहा था, इंटरनेट उसके विश्लेषण में धड़ाधड़ जुड़ा था, तब भी निजी रेडियो गाने बजाने को मजबूर था।
खैर, मंत्रालय के वादे के बहाने अब आस की एक पतली किरण बंधी है। कम से कम एक दरवाजा, छोटा ही सही, खुला तो।
(यह लेख 5 मई, 2011 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)