1977 में इमरजेंसी के दौरान भारतीय
प्रेस सदमे की स्थिति में आ गया। खबरों में दिलचस्पी रखने वाले जानकार यह जानते
हैं कि इमरजेंसी के खात्मे के बाद भारत में अखबारों के प्रचार-प्रसार में तेजी से
इजाफा हुआ। खबरों के भूखे लोग अखबारों की तरफ लपके, वो सब जानने के लिए जिससे वे
इस दौरान महरूम रहे थे। जाहिर है इस दौर ने अखबारों की सेहत एकाएक चमका दी।
लेकिन एक अखबार ऐसा भी था जिसके लिए इमरजेंसी फायदेमंद रही।
पंजाब के शहर जालंधर से छपने वाले पंजाब
केसरी ने इमरजेंसी के दौरान सारे रिकार्ड तोड़ दिए। वो इकलौता ऐसा अखबार साबित
हुआ जिसने इमरजेंसी की पहरेदारी के बीच भी अपना तिजोरी को भरने में कामयाबी पा ली।
इमरजेंसी के दौरान पंजाब केसरी की सर्कुलेशन दोगुनी हो गई ( 60,000 से सीधे
1 लाख 20,000)। इसके लिए पंजाब केसरी ने जो फार्मूला अपनाया, वो आसान भी
था, अनूठा भी।
इमरजेंसी में एतराज था खबर के छपने से। तो इस दौरान पंजाब
केसरी ने पहले पन्ने पर खबर नहीं छापी, लेकिन बाकी सब छापा। अखबार गोल-गप्पों
की तरह स्वादिष्ट बना दी गई, पहले पन्ने को मैगजीन का रूप दे दिया गया, उसे
चटखारेदार बना दिया गया। नतीजतन उस ब्लैकआउट के बीच भी अखबार भरपूर बिका। पंजाब
केसरी के संस्थापक लाला जगत नारायण के पोते और अखबार के दिल्ली संस्करण के
संपादक अश्विनी कुमार इसकी वजह कुछ इस तरह से बयान करते हैं -
ऐसा कई वजहों से हुआ। एक तो इमरजेंसी के
दौरान मेरे दादा को गिरफ्तार किया गया था, साथ ही अखबार की बिजली भी काट दी गई थी।
स्थानीय लोग जानते थे कि हम हर स्तर पर संघर्ष कर रहे हैं। इसलिए जब हमने अखबार के
पहले पन्ने पर मैगजीन देनी शुरू कर दी तो पाठक को सीधे तौर पर यही संदेश गया – वे हमें खबर छापने
नहीं दे रहे, इसलिए हम आपको मैगजीन दे रहे हैं।
इस फार्मूले ने आने वाले कई सालों के लिए अखबारों का जैसे
एजेंडा ही तय कर दिया। पचास के दशक में डी आर मानेनकर ने कहा ने पाया था कि हमारे
यहां की पत्रकारिता अभी इतनी सक्षम नहीं हुई है कि चारों तरफ फैले पाठकों के इतने
बड़े संसार को थाम सके। लेकिन अगले कुछ सालों में स्थिति तेजी से करवटें लेती
गई। पुरानी गलतियों और घिसती जा रही परिपाटियों से सबक लिए जाने लगे। अब 57,000 से
ज्यादा अखबारें और पत्रिकाएं छापने वाले इस देश में नव साक्षरों की वजह से अक्षरों
की दुनिया के प्रति एक स्वाभाविक रूझान बन रहा है। दूसरे, भारत की 65 प्रतिशत
आबादी की उम्र 35 साल से कम है। तीसरे, उदारवाद के चलते पाठक पूरी दुनिया को जानने
के लिए अतिरिक्त उत्सुक हो चला है। यह दुनिया का इकलौता देश है जो इस समय इतना
युवा है। हमारा मध्यम वर्ग अमरीका की कुल जनसंख्या के बराबर है। जनसंख्या के हिसाब
से भारत में कई आस्ट्रेलिया भी हैं और कई नाइजीरिया भी।
इन सबने मिलकर 230 साल से ज्यादा पुराने प्रिंट मीडिया और
50 साल पुराने जन सेवा माध्यम और करीब 18 साल पहले पैदा हुए निजी टेलीविजन को अपनी
सोच और कलेवर को बदलने के लिए जैसे मजबूर ही कर डाला है। अखबारें और टेलीविजन समेत
सभी संचार माध्यम एक तरह से प्रोडक्ट बन गए हैं। सभी को अपने सामान को बाजार में
बेचना है और इसलिए यहां एक ऐसी प्रयोगशाला बना दी गई है जो चौबीसों घंटे प्रयोग
करती है। नए संस्करण लाने, नई तकनीक को अपनाने और फीडबैक के मुताबिक खुद को नए
सांचे में ढालने में इसे कोई आपत्ति नहीं है।
सोचने
की बात यह है कि युवा मीडिया से आखिर चाहता क्या है – सिर्फ खबर या कुछ और भी। दरअसल जब से
पश्चिम की तरफ से खिड़कियां खुल गई हैं, भारतीय युवा की सोच का दायरा भी विस्तृत
हो गया है। वह लंबी उड़ान भरना चाहता है और बोरियत से बाहर आने को आतुर है। सालों
तक मीडिया में राजनीति हावी रही। अकेली
राजनीति न तो अब उसे लुभाती है और न ही बहुत सम्मानित भी लगती है। वह प्रयोगधर्मी
होना चाहता है और ऐसा मीडिया चाहता है जो उसके युवापने में बोरियत के बजाय रंग
भरे, उसे नए विकल्प सुझाए और उसका साथी बने। इसलिए अब मीडिया को अपना मैन्यू बदलना
पड़ा है। उसे कोने-कोने में बनने वाले नए पकवान और स्वाद इनमें शामिल करना पड़ रहा
है और यह भी कोशिश करनी पड़ रही है कि इन प्रयोगों का खर्च कहीं और से आए।
यही
वजह है कि भारत में न्यूज और मनोरंजन उद्योग इस समय अपने उफान पर है। 2006 में यह
उद्योग 43,700 करोड़ के मुहाने पर खड़ा था और इस साल के मध्य तक इसके फैलाव में 15
प्रतिशत की बढ़ोतरी के आसार दिखाई दे रहे हैं। मनोरंजन अब न्यूज मीडिया मे
रचता-बसता जा रहा है। अखबार या न्यूज चैनल को देखते हुए कई बार उसमें से खबर को
ढूंढना तक मुश्किल हो जाता है। बालीवुडाईजेशन और मैगजीनीफिकेशन ने
मीडिया को एक नए मंच पर लाकर खड़ा कर दिया है। अब कंटेट इज दी किंग नहीं
है। किंग विज्ञापन से आने वाला पैसा है और किंग मेकर युवा।
जरा
खबरों की दुनिया पर गौर कीजिए। टाइम्स ऑफ इंडिया ने 14 मार्च, 2010 को
रविवारीय अखबार के साथ फ्लेमैंट नाम का एक मैगजीन निकाला। हिंदुस्तान
टाइम्स की तुलना में लंबे और चौड़े इस अंक की कवर थीम थी – सेलिब्रेटिंग इंटरनेशनल फैशन। पूरी
तरह से विज्ञापित इस मैगजीन में रंग और पेड लेख भरे हुए थे। इसे देखकर मशहूर
पत्रकार और मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित पी.साईंनाथ की उस टिप्पणी का याद आना
वाजिब था जिसमें उन्होंने कहा था कि इस देश में डिजाइनर कपड़े पहनने वाले लोग 0.5
प्रतिशत हैं लेकिन तब भी जब कोई फैशन वीक होता है तो उसे कवर करने पत्रकारों की
फौज जाती है जबकि किसान की आत्महत्या को कवर करने के लिए पत्रकारों की गुहार लगाने
पर भी पत्रकार नहीं मिलते।
अब
हिंदुस्तान टाइम्स के ब्रंच को ही लीजिए। 1924 को महात्मा गांधी ने जब
हिंदुस्तान टाइम्स का लोकार्पण किया था तो बाकी अखबारों की तरह इस अखबार ने भी
मिशन और जन हित की ही बात की थी। आज अखबार रोजाना रंगीन सप्लीमेंट छापता है जिसमें
फैशन, मनोरंजन, फिल्म, संगीत, खाना, मेकअप,सेक्स, क्रिकेट – वह सब कुछ है जिसमें युवा की दिलचस्पी
होती है। इस सप्लीमेंट के आधे से ज्यादा हिस्से पर सीधे तौर पर विज्ञापनों का राज
दिखता है। दिल्ली के ये दोनों ही बड़े अखबार अब ऐसे कार्यक्रम आयोजित करने की भी
होड़ लगाने लगे हैं जो कि पाठक को खींच सकें। अखबार में सेलिब्रिटीज की फोटो छापी
जाती हैं और उन्हें वेबसाइट पर देखने का पता भी दिया जाता है। खबर भले ही छोटी
करनी पड़े या छोड़नी पड़े लेकिन बाजार में आ रहे नए प्रोडक्ट्स के कसीदे गाने और
सेलिब्रिटीज के नाज-नखरों की खबर छापने में कोई कोताही नहीं बरती जाती। नई कारों
के आने से पहले उसके पेड लेख जोर-शोर से छप जाते हैं। कौन-सी क्रीम कितनी चमका
सकती है और सिर पर नए बाल कैसे चिपकाए जा सकते हैं – इस पर मैगी नूडल्स स्टाइल में तुरत-फुरत लुभावने लेख छपते
रहते हैं।
इसी तरह दैनिक हिंदुस्तान, प्रभात खबर, नई दुनिया, भास्कर –सभी ने अपने-अपने तरीके से अखबारों को
मनोरंजनमय बनाया है। ईनाडू, आनंद बाजार पत्रिका और सकाल – तमाम अन्य भाषाओं के अखबार अपने स्वाद को
बदलने में जुट गए। तमाम अखबारों ने लोकल बाजार को समझने की कोशिश की और अखबार को
एक ग्लोकल चेहरा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वह मॉडर्न दिखना चाहता है,
थोड़ा पारंपरिक भी रहना चाहता है और पूरी तरह से स्वीकार्य होना चाहता है। इसमें
एक भली बात यह भी हुई है कि नीति-निर्धारकों से लेकर पेज थ्री के राजकुमार-राजकुमारियां
अब क्षेत्रीय अखबारों और चैनलों की भूमिका को बखूबी समझने लगे हैं। गजिनी
के बाद थ्री ईडियट्स के प्रचार के लिए आमिर खान जब दक्षिणी राज्यों में
जाकर प्रचार करने लगते हैं तो शाहरूख खान भी अपने बंगले मन्नत में
क्षेत्रीय मीडिया को बुलाकर माई नेम इज खान के लिए एक्सक्लूजिव इंटरव्यू
देने लगते हैं। इन सबके बीच नए फिल्मकारों की पीपली लाइव भी अच्छी बाजी मार
ले जाती है क्योंकि उसे अपनी पहली पारी में ही समाज की नब्ज समझ में आ जाती है। वह
किसी स्टार को फिल्म से जोड़ता नहीं और एक गांव का नत्था ही उसे सफलता का ऐसा
सेहरा पहना जाता है कि बाकी की उदासी देखते ही बनती है।
एक सच यह भी है कि अखबार को चलाने का 90 प्रतिशत खर्चा
विज्ञापन के मोहल्ले से ही आता है। इसलिए
विज्ञापन सर्वेसर्वा है। 1997 में जब प्रिंट मीडिया को मिलने वाला विज्ञापन 1985
की तुलना में 15 प्रतिशत घट गया तो अखबारों ने जाना कि विज्ञापन पाने के लिए वही
करना होगा जो युवा चाहेगा। यही वजह है कि अगर किसी दिन किसी अखबार के रंगीन पेज
में छपा दिन या महीना बदल भी दें या न दें तो शायद कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ेगा।
ग्लोकलाजेशन, बालीवुडाइजेशन, कारपोरेटाइजेशन – इस सबने अखबारों के कंटेट में से न्यूज को काफी हद तक
निचोड़ दिया है। वैसे भी टीवी, और बाद में कलर टीवी, के आने से अखबार को अपना
कलेवर बदलने के लिए काफी हद तक बाध्य होना पड़ा। वो भागती तस्वीरों से मुकाबला
नहीं कर सकता था, लेकिन कोई रास्ता तो ईजाद करना ही था। इसलिए भी अखबारें अपने
फार्मूले बदलने को बेचैन होती दिखने लगीं। रंगीन तस्वीरों और रंगीन पन्नों ने
कागजी खबरों की दुनिया में ताजी हवा भरी। साथ ही अखबारों ने समझा कि टीवी जैसे
उछलते माध्यम को टक्कर देने के लिए मनोरंजन के लॉलीपॉप को शामिल करना भी कम जरूरी
नहीं।
अखबारों
के स्मार्टाइजेशन की होड़ से अखबारों की वेबसाइट भला कैसे पीछे छूटतीं। स्मार्ट
होती अखबारों के साथ ही उनकी वेबसाइट भी चमकने लगीं। यहां जनसंवाद ज्यादा मुखर
हुआ। फीडबैक की गुंजाइश कई गुना बढ़ गई और लोग खुलकर अपनी बात एक पत्रकार की तरह
बताने की कोशिशें करने लगे। सिटिजन जर्नलिज्म ने एक आम जन के हाथों में ताकत के
विटामिन भर दिए। यही वजह है कि एक दशक के भीतर ही अखबारों के वेबसाइट भी चटपटे हो
चले हैं। यहां विशुद्ध खबर को रोचक बनाने पर जोर है। साथ ही न्यूज के साथ व्यूज,
क्रिकेट, सिनेमा, लाइफस्टाइल, फोटो, वीडियो, ब्लाग, शादी – इन सभी को साइटों की सांस बना दिया गया
है। यहां रंगों की भरमार है। वीडियो फुटेज हैं और जनसर्वे का हिस्सा बनने का मौका।
वेबसाइट चलते-फिरते टीवी हो चले हैं।
टीवी का मनोरंजन दूसरे तरह का रहा। 1959 से लेकर 90 की
शुरूआत तक दूरदर्शन के नाम पर काफी हद तक सभ्य लेकिन सूखे मनोरंजन का ही राज रहा। साइट
की अवधारणा किसानों और साक्षरता की बात के आस-पास ही घूमती रही। मनोरंजन के नाम पर
हफ्ते में एक बार फिल्म मिलती थी और साथ में चित्रहार। बस, इसी में पेट भर लेना
होता था। उदारवाद की लहर में जब निजी चैनलों का प्रसव हुआ तो टेलीविजन का व्याकरण
जैसे बदल ही गया। यहां कभी नागिन के डांस ने सबको नचाया, कभी प्रलय ने डराया और
कभी राखी सावंत या राहुल महाजन के स्वयंवर ने रिएलिटी के नाम पर हंसाया। पहली बार
भारतीय टीवी पर ही ये प्रयोग हुआ कि न्यूज चैनलों के बीच में हंसगुल्ले यानी की
हास्य परोसा जाने लगा। राजू श्रीवास्तव सरीखे एकाएक न्यूज चैनलों की आंखों के तारे
बन चले। यहां तक कि फिल्म निर्माता और कलाकार भी जिस छोटे परदे को कभी पिछड़ी जाति
जैसा माना करते थे, अब इसकी आरती उतारने लगे। फिल्मों के प्रमोशन के लिए बंटी
और बबली के रिलीज होते ही रानी मुखर्जी और अभिषेक बच्चन एनडीटीवी की न्यूज तक
पढ़ जाते हैं। आज टीवी को फिल्म से अलग नहीं माना जा सकता। दोनों एक-दूसरे में कब
घुल गए, किसी को पता ही नहीं चला।
इसी तरह विवाद भी मनोरंजन की वजह बनने लगे। थ्री इडियट्स
का असली लेखक कौन है, इस पर चेतन भगत और राजकुमार हीरानी की तूतू-मैंमैं गंभीरता
से कहीं ज्यादा हंसी दिखती है। ऐश्वर्या राय के पेट में टीबी है, इसलिए वे मां
नहीं बन पा रहीं, यह खबर एक चैनल पर आधे घंटे का कार्यक्रम बन जाती है ( बाद में
आराध्या का जन्म और फिर उसकी एक झलक पाने की होड़ भी खबर बनती रही) कटरीना कैफ के
जन्म दिन पर सलमान कब और कहां गए, करीना की शाहिद के साथ दाल नहीं गल रही, शाहरूख
और फरहा के पति का झगड़ा होना – यह सब ब्रेकिंग न्यूज के दर्जे में डाला गया।
मनोरंजन ऐसा कि जब एक अखबार का पत्रकार पी चिदंबरम पर जूता फेंकने की कोशिश करता
है तो मीडिया उसमें भी चुस्कियां लेता दिखता है और जनता भी। वो जूता और वो पत्रकार
उस दिन सेलिब्रिटी सरीखे बन जाते हैं। मीडिया ने गंभीरता में मनोरंजन का पुट ऐसा
भर दिया है कि गंभीरता भी अब हंसी के लबादे में लिपटी दिखने लगी है और यहां तक कि
आध्यात्म भी। एक सर्वेक्षण ने साबित किया कि आध्यात्मिक चैनलों को देखने वालों में
युवाओं की तादाद लगातार बढ़ रही है। वे विज्ञापन देखकर अगर सोना बाथ के लिए जाते
हैं तो रूद्राक्ष और मोती भी खरीदते हैं। उधर योग गुरू भी अब रोचक होने लगे हैं।
वे कपाल भाति करने की विधि हिंग्लिश में समझाते हैं और चुस्त दिखते हैं। अब वे
राजनीति की गुगली खेलने लगे हैं।
कई बार लगता यही है कि ऐसे मनोरंजन के कई प्रयोग शायद युवा
को पसंद भी आए हैं। शायद इसी का नतीजा है कि फिक्की और केपीएमजी ने अपनी एक
रिपोर्ट में लिखा कि 2009 से 2013 के बीच भारतीय टेलीविजन उद्योग में 14.5 प्रतिशत
तक का उछाल आना निश्चित है। 2013 तक अकेला टीवी कुल विज्ञापन उद्योग का 41 प्रतिशत
अपनी झोली में डालने में समर्थ हो जाएगा।
बेशक खबर अब ठिठोली करने लगी है। बरसों पहले टी एस ईलियट ने
जब कहा था कि टीवी का काम मूलत मनोरंजन परोसना ही होना चाहिए तो किसी को शायद तब
यह बात समझ में नहीं आई थी, लेकिन अब ऐसा नहीं हैं। मीडिया ने अब इंडिया और भारत – ये दो वर्ग बड़ी सफाई से गढ़ दिए हैं।
यहां मनोरंजन के नाम पर अब सपने बेचे जाने लगे हैं या फिर त्रासदी। पहले पन्ने से
लेकर आखिरी पन्ने तक, टीवी पर दिखने वाले पहले चैनल से लेकर आखिरी चैनल तक और वेब
पन्नों पर भी कोशिश युवा को रिझा लेने की है लेकिन यहां इस सच से आंखें नहीं
मूंदने चाहिए कि जैसा राजनीति युवा नाम के वोट बैंक को रिझाने में मस्त रही, कहीं
उसी तरह मीडिया भी युवा को किसी बहाने की तरह इस्तेमाल करने का आदी बनने तो नहीं
लगा। पूंजी के महल युवा को सोने के सिक्कों की तरह तो देखते हैं जिन्हें तिजारी
में भरे रखने के फायदे हैं लेकिन इससे युवाओं को मिलेगा क्या।। बाजार जब तालियां
हासिल करता है तो उपलब्धि के सर्टिफिकेट अपने नाम लिखवा लेता है लकिन जब कुछ पटरी
से उतरता है तो दोष सीधे युवाओं के सर पर।। कब तक चलेगी यह खो-खो।
संदर्भ ग्रंथ
1. इंडियाज न्यूजपेपर रिवॉल्यूशन, रॉबिन जेफ्री, ऑक्सफोर्ड
यूनीवर्सिटी प्रेस, 2003
2. एवरीबडी लव्स ए गुड ड्राउट – पी साईंनाथ, पेंग्विन
बुक्स इंडिया, 2000
3. टेलीविजन और क्राइम रिपोर्टिंग, वर्तिका
नन्दा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010