Jan 9, 2013

हां, मैं थी..हूं..रहूंगी...

देखिए मैं यह बात साफ तौर पर कह देना चाहती हूं कि मैं भी अगर मर जाऊं या मारी जाऊं तो उसकी जांच पुलिस से न कराई जाए। जांच करवा कर कुछ होगा नहीं। बेवजह ऊपर बैठे भी तनाव रहेगा और यहां सत्ता वाले पूछ लेगें - ठीक है।

यह बात मैनें उस शाम अपने फेसबुक पर लिखी। मन चुप था। रोज बयानों की म्यूजिकल चेयर के बीच यह भी तय था कि देश की जनता पहली बार पूरे ब्यौरे के साथ यह जान रही है कि अपराध की कितनी परतें हो सकती हैं और कैसे एक अपराध किस कदर घुमावदार रास्तों से गुजरते-गुजरते खुद अपराध का शिकार होते चलता है ।

जाते हुए साल ने पुलिस, न्यायिक तंत्र, महिला आयोग, जनता और मीडिया - इन सभी के बेहद नए पक्ष को उभार कर रख दिया। 199 की आबादी पर एक सिपाही रखने वाली दिल्ली पुलिस जिसके पास वीआईपी ड्यूटी, घर पर रखे जा रहे कर्मचारी इत्यादी के बाद 30 प्रतिशत कर्मचारी ही देश की राजधानी के नागरिकों के लिए बचते हैं, इस बार खुद बचाव की मुद्रा में आ गई। महज 26 प्रतिशत मामलों में ही बलात्कारियों को सजा दिला पाने वाला न्यायिक तंत्र जिससे आम आदमी के खौफ का कद हमेशा बढ़ा ही है, इस बार भी मन में डर पैदा कर गया। फिर महिला आयोगों को लेकर भी मन में तीखे सवाल उठे, बेहद दुख के साथ। जनता ने खुल कर जाना कि आयोग ऐसे सफेद हाथी बनते जा रहे हैं जिसके दांत अब सजा कर रखने के काबिल तक नहीं। फिर हुआ क्या। कमान जनता ने अपने हाथों ले ली और मीडिया उसके साथ-साथ चला। वह भूला नहीं। उसने इस एक वाकये को महज स्टोरी की तरह नहीं लिया। उसने इस बार महसूस किया कि अपराध अब स्टोरी नहीं, स्टोरी न करना अब अपराध होगा। उसने अपनी सीमाएं खुद तय कीं और जब निर्भया का बेजान शरीर दिल्ली आया तो वो अपने कैमरों सहित वहां से दूर रहा।

असल में सत्ताएं जब संकेत नहीं समझतीं तो जनसत्ता राजसत्ता की तरफ गूंज के साथ मुखातिब होती ही है। ऐसा कई बरसों में एक बार होता है जब संसद सड़क के पास नहीं बल्कि सड़क संसद के पास चली आती है। जनता बहुत लंबे समय से संकेत दे रही थी। फेसबुक पर आने वाले कमेंट और कार्टून, ट्विटर के जरिए चलती दिखती सरकार और तमाम हलचलों के बीच मौन रहने वाला बाबा पर अखबारों में छपने वाले लंबे खत। अमानत, निर्भया या फिर उस लड़की - जो भी नाम आप दें, के मामले में भी जब सब्र टूटा तो जनता ने पहले सत्ता पर चूड़ियां और सिक्के ही फेंके थे। उनके नारों में अपने दर्द के भाव थे। आंसुओं से लबरेज कई चेहरे थे। कंपकपाती सर्दी में राजसत्ता को जगाने आए लोगों में अमानत के परिवार का एक भी सदस्य नहीं था बल्कि उसकी वजह से गली-मोहल्लों से निकल आए अपरिचित चेहरे खुद परिवार की तरह बन कर सामने आ गए। क्या आंदोलन में तीखेपन और भीगेपन का भान लगाने के लिए यही संकेत काफी नहीं थे।

बाद में जन और सत्ता के बीच जो विवाद चल रहा है, उस पर दोबारा लिखना मैं जरूरी नहीं समझती। हां, मीडिया पर तो कहना ही होगा। मीडिया पूरे साल आलोचनाओं का शिकार रही थी। इस निजी मीडिया ने अपने जन्म के बाद से साढ़े साती का ही काल देखा है लेकिन इसके बावजूद वह सक्रिय रहा है। टीआरपी, तिजोरी भरने की खुजली, हड़बड़ी भरे स्वभाव और खबर को बेखबर, पेड न्यूज के भंवर में दिखने के तमाम आरोपों के बीच इस घटना के दौराम मीडिया ने अपना फोकस खोया नहीं। सचिन की रिटारमेंट की खबर तक उसके डिगा नहीं पाई और वह जनता का हिमायती बनता दिखा। जन की भाषा बोलता, जन की तरह चोट खाता और जन की तरह हैरान।

इस बीच सर्वे होते गए। एक चैनल ने सर्वे करवाया जिसमें यह पाया गया कि दिल्ली की 95 प्रतिशत महिलाएं खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करतीं। आयोगों की कथित सक्रियता और बेदम पड़ी वेबसाइट तक पर सवाल बने। कठोर कार्रवाई के अर्थ असल में क्या हों, उस पर बहसें हुईं पर ताज्जुब की बात यह कि इस सबके बावजूद दो बातें नहीं थमीं। एक, नेताओं की आपसी बयानबाजी (चाहे वह राष्ट्रपति के बेटे की टिप्पणी हो या फिर ममता बनर्जी पर दिया गया बयान) और दूसरे, बलात्कार। देश जब खौफ और रोष में था, तब भी अपराधी पहले की ही तरह सक्रिय थे।

कुल मिलाकर साल अपने पीछे गंभीर सवालों की पोटली छोड़कर गया है। राजाओं और आकाओं ने यह सवाल बड़े दिनों से कालीन के नीचे छिपा कर रख दिए थे। सवाल यह कि इस देश की औरत कुछ कहने में डरती क्यों है। भ्रूणहत्या, दहेज, घरेलू हिंसा और बलात्कार - क्या समय के साथ यह अपराध कम हुए। हम जहां थे, वहां से आगे हैं, या कहीं ठिठक कर आज भी नर्म छांव के पेड़ की तलाश कर रहे हैं।

इल बार गणतंत्र दिवस पर जन गण मन अधिनायक जय हे - कहते हुए जुबान में कंपन होगा। खुद के महिला होने पर कुछ और डर मन में आकर ठिठकेंगे और पुलिस पर विश्वास शायद सालों कायम न हो सकेगा।

ऐसे में प्रार्थना ही की जा सकती है। प्रार्थना यह कि अपराधों से घिरते समाज के बीच औरत अपने दम पर जी सके और मन से कह सके - थी.हूं..रहूंगी...

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