May 28, 2008

मैं-मैं और मैं- यानी एक पत्रकार

कसाईगिरी

तुम और हम एक ही काम करते हैं
तुम सामान की हांक लगाते हो
हम खबर की ।
तुम पुरानी बासी सब्ज़ी को नया बताकर
रूपए वसूलते हो
हम बेकार को 'खास' बताकर टीआरपी बटोरते हैं
लेकिन तुममें और हममें कुछ फर्क भी है।

तुम्हारी रेहड़ी से खरीदी बासी सब्ज़ी
कुकर पर चढ़कर जब बाहर आती है
तो किसी की ज़िंदगी में बड़ा तूफान नहीं आता।

तुम जब बाज़ार में चलते हो
तो खुद को अदना सा दुकानदार समझते हो
तुम सोचते हो कि
रेहड़ी हो या हट्टी
तुम हो जनता ही
बस तुम्हारे पास एक दुकानदारी है
और औरों के पास सामान खऱीदने की कुव्वत।

तुम हमारी तरह फूल कर नहीं चलते
तुम्हें नहीं गुमान कि
तुम्हारी दुकान से ही मनमोहन सिंह या आडवाणी के घर
सब्ज़ी जाती है
लेकिन हमें गुमान है कि
हमारी वजह से ही चलती है
जनसत्ता और राजसत्ता।

हम मानते हैं
हम सबसे अलहदा हैं
खास और विशिष्ट हैं।

पर एक फर्क हममें और तुममें ज़रा बड़ा है
तुम कसाई नहीं हो
और हम पेशे के पहले चरण में ही
उतर आए हैं कसाईगिरी पर।

3 comments:

Amit K Sagar said...

हर जगह है इक़ सच्चाई...जिसे तुम तलाशती हो...इस तलाश में कोई साथ है...बस यही बयंगी है कविता...बेहद उम्दा...लिखते रहिये...रूबरू कराते रहिये...शुभकामनायें.
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ultateer.blogspot.com

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Dr Vartika Nanda said...

अच्छा लेख

Sandeep Singh said...

स्कूल में दाखिले के लिए आज पहली बार आया। स्कूल इस कदर भाया, कि दाखिले की हठ टिप्पड़ी के माध्यम से आप तक पहुंचाने की कोशिश कर रहा हूं। कविता अच्छी लगी। हलांकि बलॉग पर खोया हुआ पद्मविभूषण टोहते हुए आया था...एक-एक कर कई लेख पढ़े। टीआरपी टैम्पल से भी टकराया...पर मन यहां आकर (कविता पर)ज्यादा देर ठहरा सो दाखिले अर्जी यहीं डाली...उम्मीद है मंजूरी मिलेगी।