यात्रा से सुनाई देते हैं मन के मंजीरे मैनें अभी दुकान का दरवाजा खोला ही है कि दुकान में बैठे युवक ने तपाक से कह दिया है कि इस छोटी सी दुकान में बड़ी खुशी के साथ आपका स्वागत है।
यह ब्रसल्स है। बेल्जियम की राजधानी। यूरोपीयन यूनियन का गढ़। यहां किसी को शुद्ध हिंदी में बोलते देख कर खुशी का होना स्वाभाविक ही है। मैं इस समय ब्रसल्स के मशहूर ग्रैंड स्केयर पर चाकलेटों की दुकानें देख रही हूं। यहां की चाकलेटें पूरी दुनिया में मशहूर हैं और ढेर वैरायिटी के बीच मनमाफिक को ढूंढना और भी मुश्किल।इस दुकान को चलाने वाला युवक बताता है कि वह पंजाब के एक गांव टांडा उड़मुड़ का रहने वाला है। मैं उसे बताती हूं कि अपने पंजाब प्रवास के दौरान मेरा वहां से अक्सर गुजरना होता था। यह सुनकर उसका चेहरा और भी खिल उठता है। वह बताता है कि करीब 10 साल पहले वह अपने किसी दोस्त के साथ नौकरी के लिए यहां आया और तब से यहीं रह रहा है।
कहना न होगा कि जिस कीमत पर जिस क्वालिटी की चाकलेट उसने मुझे और मेरी दोस्त को दी(सिर्फ इसलिए कि हम हिंदु्स्तानी भी थे और उसके गांव की मामूली पहचान भी रखते थे), उसकी मैं बार-बार तारीफ करने से नहीं थकती।यहीं पर ब्रसल्स के राजा के शाही भवन के पास तीन लड़कियां दिखती हैं। वे जैसे ही हमें देखती हैं हिंदी गाने पूरे सुर के साथ गाने लगती हैं। सुनने पर एकबारगी तो हैरानी हुई, फिर ऐसा भी लगा कि ये सभी हिंदुस्तानी हैं। लेकिन ऐसा नहीं था। तीनों बेल्जियम की ही रहने वाली थीं और रोज शाम को स्थानीय भाषाओं में गाने गा-गाकर अपनी एक संस्था के लिए चंदा इकट्ठा किया करती थीं। लेकिन इन तीनों ने जब हमें देखा और पहचाना कि हम भारतीय हैं तो वे हिंदु्स्तानी गाने पूरी शिद्दत के साथ गाने लगीं। पता लगता है कि वे हिंदी फिल्मों की शौकीन हैं और उन्होंने हिंदी फिल्में देख कर ही ये गाने सीखे हैं। अपने मुल्क में भले ही मेरा नाम जोकर या काबुलीवाला फिल्म के गाने सुनकर झूमने का मौका न मिलता हो लेकिन दूसरी जमीन पर अपना संगीत सुनना मन के तारों को झंकृत जरूर कर देता है।
यह भी एक अनूठा भाव है। पराए देस में सब बेगाने अपने से लगने लगते हैं। हवाई जहाज से जहां अपने मुल्क की सीमा को छोड़ा, वहीं अपनेपन की भाषा बुनी-सुनी जानी शुरू। सब एक दूसरे की मदद को तैयार, एक-दूसरे को सुनने को तैयार।फ्रैंकफर्ट एयरपोर्ट पर सामान की तालाशी के दौरान जब मेरी एक साथी के सामान को लेकर कुछ देर लग रही थी तो मैनें उसके करीब जाकर पूछा कि क्या हुआ? तो उसके कुछ कहने से पहले सामान देख कर सिक्योरटी आफिसर ने मुस्कुरा कर कहा- कुछ नहीं। अब ये जा सकती हैं। बेहद सुखद लगा। यहां मीलों दूर पराए देश के एयरपोर्ट पर कोई अपनी भाषा में बतियाने की सफल कोशिश कर रहा है। यहां पर एक युवक मिला जो पेशे से बावर्ची था। उत्तराखंड का रहने वाला। एयरपोर्ट पर उसके वीसा को लेकर कुछ पल उलझन के आए तो मैनें देखा कि हम 8 का उससे कोई सीधा सरोकार न होने पर भी सरोकार का भाव न जाने कहां से उग आया।
यात्राएं सबसे बड़ी यही बात सीखाती हैं। यात्रा जोड़ती है और अंदर बनी गांठें खोलती है। पराए मुल्क में अपने देस की भाषा भीनी लगती है और बेहद स्वादिष्ट लगती है अपने घर की वही दाल भी जिसे घर में रोज खाते हुए उसकी अहमियत समझ में ही नहीं आती। यह हिंदुस्तान ही है कि खाने के साथ मुफ्त में मिल जाए काले नमक वाला प्याज, चटनी और साथ ही सॉस भी। लेकिन पहुंचिए विकसित देशों में और समझ में आता है कि हम जिस देश में रहते हैं, वो तो वाकई दिलवालों का है। यहां सादा पानी भी मुफ्त मिलता है(बिसलेरी लेना हो तो बात दूसरी है)। यहां रेस्त्रां में मेजबानी ऐसी होती है कि लगे कि जैसे रेस्त्रां मालिक से कोई पुरानी रिश्तेदारी ही निकल आई हो।लेकिन ताज्जुब यह कि यह दिल यहां रहते हुए अपने देस के लिए नहीं थिरकता। वो नदियों, जातियों और वर्गों के बंटवरों को देखकर नहीं मचलता। इस मुल्क में रहते हुए अपने मुल्क की भाषा शायद खुद हमारे तक सही अंदाज में पहुंच ही नहीं पाती। यहां रास्ते में इतनी रूकावटें हैं कि हमें पड़ जाती है दुभाषिए की जरूरत।
यात्रा से लौटने पर लगा कि जिंदगी की लय को समझने के लिए जमीन से जुड़े होना जरूरी है और कभी-कभी आसमान पर लटक जाना भी क्योंकि सरहदों को पार करने के बाद चश्मे पर चिपके धूल के कण खुद-ब-खुद ही साफ हो जाते हैं। यही है यात्रा की ताकत। शायद यही है यायावरी का मंत्र भी।
यह ब्रसल्स है। बेल्जियम की राजधानी। यूरोपीयन यूनियन का गढ़। यहां किसी को शुद्ध हिंदी में बोलते देख कर खुशी का होना स्वाभाविक ही है। मैं इस समय ब्रसल्स के मशहूर ग्रैंड स्केयर पर चाकलेटों की दुकानें देख रही हूं। यहां की चाकलेटें पूरी दुनिया में मशहूर हैं और ढेर वैरायिटी के बीच मनमाफिक को ढूंढना और भी मुश्किल।इस दुकान को चलाने वाला युवक बताता है कि वह पंजाब के एक गांव टांडा उड़मुड़ का रहने वाला है। मैं उसे बताती हूं कि अपने पंजाब प्रवास के दौरान मेरा वहां से अक्सर गुजरना होता था। यह सुनकर उसका चेहरा और भी खिल उठता है। वह बताता है कि करीब 10 साल पहले वह अपने किसी दोस्त के साथ नौकरी के लिए यहां आया और तब से यहीं रह रहा है।
कहना न होगा कि जिस कीमत पर जिस क्वालिटी की चाकलेट उसने मुझे और मेरी दोस्त को दी(सिर्फ इसलिए कि हम हिंदु्स्तानी भी थे और उसके गांव की मामूली पहचान भी रखते थे), उसकी मैं बार-बार तारीफ करने से नहीं थकती।यहीं पर ब्रसल्स के राजा के शाही भवन के पास तीन लड़कियां दिखती हैं। वे जैसे ही हमें देखती हैं हिंदी गाने पूरे सुर के साथ गाने लगती हैं। सुनने पर एकबारगी तो हैरानी हुई, फिर ऐसा भी लगा कि ये सभी हिंदुस्तानी हैं। लेकिन ऐसा नहीं था। तीनों बेल्जियम की ही रहने वाली थीं और रोज शाम को स्थानीय भाषाओं में गाने गा-गाकर अपनी एक संस्था के लिए चंदा इकट्ठा किया करती थीं। लेकिन इन तीनों ने जब हमें देखा और पहचाना कि हम भारतीय हैं तो वे हिंदु्स्तानी गाने पूरी शिद्दत के साथ गाने लगीं। पता लगता है कि वे हिंदी फिल्मों की शौकीन हैं और उन्होंने हिंदी फिल्में देख कर ही ये गाने सीखे हैं। अपने मुल्क में भले ही मेरा नाम जोकर या काबुलीवाला फिल्म के गाने सुनकर झूमने का मौका न मिलता हो लेकिन दूसरी जमीन पर अपना संगीत सुनना मन के तारों को झंकृत जरूर कर देता है।
यह भी एक अनूठा भाव है। पराए देस में सब बेगाने अपने से लगने लगते हैं। हवाई जहाज से जहां अपने मुल्क की सीमा को छोड़ा, वहीं अपनेपन की भाषा बुनी-सुनी जानी शुरू। सब एक दूसरे की मदद को तैयार, एक-दूसरे को सुनने को तैयार।फ्रैंकफर्ट एयरपोर्ट पर सामान की तालाशी के दौरान जब मेरी एक साथी के सामान को लेकर कुछ देर लग रही थी तो मैनें उसके करीब जाकर पूछा कि क्या हुआ? तो उसके कुछ कहने से पहले सामान देख कर सिक्योरटी आफिसर ने मुस्कुरा कर कहा- कुछ नहीं। अब ये जा सकती हैं। बेहद सुखद लगा। यहां मीलों दूर पराए देश के एयरपोर्ट पर कोई अपनी भाषा में बतियाने की सफल कोशिश कर रहा है। यहां पर एक युवक मिला जो पेशे से बावर्ची था। उत्तराखंड का रहने वाला। एयरपोर्ट पर उसके वीसा को लेकर कुछ पल उलझन के आए तो मैनें देखा कि हम 8 का उससे कोई सीधा सरोकार न होने पर भी सरोकार का भाव न जाने कहां से उग आया।
यात्राएं सबसे बड़ी यही बात सीखाती हैं। यात्रा जोड़ती है और अंदर बनी गांठें खोलती है। पराए मुल्क में अपने देस की भाषा भीनी लगती है और बेहद स्वादिष्ट लगती है अपने घर की वही दाल भी जिसे घर में रोज खाते हुए उसकी अहमियत समझ में ही नहीं आती। यह हिंदुस्तान ही है कि खाने के साथ मुफ्त में मिल जाए काले नमक वाला प्याज, चटनी और साथ ही सॉस भी। लेकिन पहुंचिए विकसित देशों में और समझ में आता है कि हम जिस देश में रहते हैं, वो तो वाकई दिलवालों का है। यहां सादा पानी भी मुफ्त मिलता है(बिसलेरी लेना हो तो बात दूसरी है)। यहां रेस्त्रां में मेजबानी ऐसी होती है कि लगे कि जैसे रेस्त्रां मालिक से कोई पुरानी रिश्तेदारी ही निकल आई हो।लेकिन ताज्जुब यह कि यह दिल यहां रहते हुए अपने देस के लिए नहीं थिरकता। वो नदियों, जातियों और वर्गों के बंटवरों को देखकर नहीं मचलता। इस मुल्क में रहते हुए अपने मुल्क की भाषा शायद खुद हमारे तक सही अंदाज में पहुंच ही नहीं पाती। यहां रास्ते में इतनी रूकावटें हैं कि हमें पड़ जाती है दुभाषिए की जरूरत।
यात्रा से लौटने पर लगा कि जिंदगी की लय को समझने के लिए जमीन से जुड़े होना जरूरी है और कभी-कभी आसमान पर लटक जाना भी क्योंकि सरहदों को पार करने के बाद चश्मे पर चिपके धूल के कण खुद-ब-खुद ही साफ हो जाते हैं। यही है यात्रा की ताकत। शायद यही है यायावरी का मंत्र भी।