Feb 21, 2009

चांद, फिजा और मीडिया

फिजा या चांद से कोई रिश्तेदारी नहीं है और न ही किसी किस्म का कोई व्यापारिक या नौकरीनुमा गठबंधन लेकिन जाने क्यों जब से फिजा की कहानी देखी-सुनी-महसूस की है, कई सवालों ने मन में डेरा जमा लिया है।

कौन है यह फिजा? क्या है और क्यों हैं? फिजा मजाक है, विदूपता है, व्यंग्य है या त्रासदी है? वो अनुराधा बाली है, हिंदू है या फिर फिजा है, मुसलमान है, विवाहित है या फिर बलात्कार की पीडि़त महिला है। वो कौन है? सवाल इतने हैं और जो सवाल सबसे ज्यादा तंग कर रहा है और हर औरत को करना चाहिए कि जो फिजा के साथ हुआ, अगर वही हमारे साथ होता तो क्या होता। असल में मन तो यह करता है कि कोई जादुई छड़ी आ जाए और यह सवाल पुरूषों के दिल पर चिपक जाए। कोई एक रात उनकी जिंदगी में आए जब एकाएक वो कुछ घंटों के लिए फिजा बन जाएं और फिर अपने आस-पास की फिजा को उसकी आंखों और उसी के जैसे धड़कते हुए दिल से महसूस करें।

जैसा मैनें कहा, फिजा या चांद से मेरा कोई संबंध नहीं लेकिन भावनात्मक संबंध स्थापित हो जाना(चाहे वोएकतरफा ही क्यों ने हो) क्या कम होता है। एक अमरीकी फिल्म कंपनी ने अब पेशकश दी है कि अगर फिजा अपनी ‘असली’ कहानी बताने को तैयार हो जाती है तो कंपनी उसे 20 करोड़ रूपए देगी, साथ ही उस पर एक फिल्म बनाई जाएगी। कंपनी का दावा है कि ऐसी स्थिति में फिजा और चांद और चांद और फिजा नाम की इस फिल्म को आगामी लोकसभा चुनाव से पहले रिलीज भी कर दिया जाएगा।
दरअसल शादी के किस्से के बाद से ही फिजा की कई तस्वीरें सामने घुमड़ कर आईं हैं। शादी के बाद प्रेस कांफ्रेंस में अपने धुले-धुले बालों और नेलपालिश लगे हाथों के साथ मुस्कुराहट बिखरेती फिजा, चांद को बेहद प्यार से निहारती हुई, फिर चांद के कथित तौर पर गायब होने पर चिंता दिखाती फिजा, फिर आत्महत्या की कोशिश करने के बाद किसी के कंधे में पड़ी अस्पताल ले जाती हुई फिजा, उसके बाद चांद को 2 दिन में लौट आने की धमकी देती और अब चांद पर शादी के बहाने शारीरिक संबंध बनाने का आरोप लगाती फिजा। ताज्जुब ही है कि भारत जैसे सामाजिक बंधनों में जकड़े देश में शादी के कुछ दिनों में इतना कुछ ऐसे घटा कि जैसे तीन घंटे की फिल्म चल रही हो। पर यह फिल्म अभी खत्म नहीं हुई है। अलग-अलग सिरों पर यह बहस छिड़ गई है कि फिजा कितनी सही या गलत है। यह सवाल तकरीबन फीका पड़ गया है कि चांद के बहाने फिजा कहां से कहां पहुंच गई है।

ब्लाग पर एक पुरूष पत्रकार ने लिखा कि फिजा की नीयत ही ठीक नहीं थी। नीयत सीफ होती तो शादी के कुछ क्षणों बाद ही वह अपने और चांद के बीच के प्रेम भरे एसएमएस यूं ही सबसे साझा नहीं करती। उधर महिलावादियों का एक मोर्चा यह कहकर एकजुट हो रहा है कि पुरूष जब खुद महिला को प्रोडक्ट की तरह इस्तेमाल कर सकता है तो महिला अपनी बात खुलकर क्यों नहीं कह सकती। वह यह भी कह रहा है कि अब पुरूष औरत को बार्बी डॉल नहीं समझता क्योंकि वह तो नाजों से रखी जाती है। अब औरत फैक्ट्री की मशीन बन गई है, वह सेकेंड हेंड कार है जिसे धक्के से शुरू कर धूल के हवाले कर दिया जाता है। वह नाजुक नहीं। वह बनी है -ग्लोब की तमाम जिम्मेदरियों को निभाने और पुरूष की छोड़ी गंदगियों को हटाने। इसलिए इस बार जो हुआ है, उसे भूला नहीं जाना चाहिए।

लेकिन सवाल तो चांद की नीयत पर भी खड़े हो रहे हैं कि शादी के बाद उन्हें एकाएक अपनी पहली पत्नी और बच्चे ऐसी शिद्दत से क्यों याद आने लगे और धर्म परिवर्तन करने से लेकर फिजा को प्यार से निहारने के बीच एकाएक यह गायब हो जाने की नौबत क्यों आ गई। कहा यहां तक जा रहा है कि फिजा जरूर ही चांद को किसी मुद्दे पर ब्लैकमेल कर रही है।

पर इस सबके बीच मीडिया की भूमिका पर भी सवाल खड़े होते हैं। क्या यह ताज्जुब नहीं कि एक शादी के होने और फिर उसके तकरीबन नाकामयाब होने तक मीडिया ने एक बड़ा समय उसकी कवरेज पर कुछ इस अंदाज में लगाया कि जैसे कोई राष्ट्रीय महत्व की घटना घट गई हो? और यह भी कि क्या अब उस परंपरा की नींव नहीं डाल दी गई है जिसमें पति या पत्नी के बीच विवाद होने पर परिवार की सलाह लेने से ज्यादा आसान एक प्रेस कांफ्रेंस करना होगा? ऐसा भी नहीं है कि मीडिया की मंशा पति-पत्नी के विवाद को सुलझाने की है। बात तो मसाला पाने और उससे टीआरपी की झोली भरने भर की है।

तो निजता की कहानी अब सार्वजनिक होते-होते फिल्मी भी बन गई है। इंटरनेट पर एक ब्लॉगर ने लिखा है कि चांद और मीडिया ने उसके साथ किया है, इसके बावजूद वह उससे शादी करने के लिए तैयार है। तो मामला हाईपर रिएलिटी का है। ऐसे में सोचना होगा कि न्यूज चैनलों का काम फिल्म दिखाना और विवादों को और विवादास्पद बनाने के लिए आइडिया देना है या फिर न्यूज दिखाना है?


(यह लेख 21 फरवरी, 2009 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

Feb 8, 2009

आओ स्कूल चलें हम

वाकई यह नए साल में आई एक शुभ सूचना है। गैर सरकारी संगठन प्रथम ने हाल ही में जो रिपोर्ट पेश की है, वब ग्रामीण भारत के बदलते चेहरे की पुष्टि करती है।

सर्वेक्षण के बाद जारी किए गए ताजा आंकड़े बताते हैं कि सात साल से दस साल के बीच देश के महज 2.7 फीसदी बच्चे पिछले साल स्कूल नहीं गए जबकि 11 से 14 साल के सिर्फ 6.3 फीसदी। रिपोर्ट साफ तौर पर दिखाती है कि प्राथमिक शिक्षा की यह अलख खास तौर पर उन राज्यों में दिख रही है जिनका नामकरण एक अरसे से पिछड़े और बीमारू क्षेत्रों के रूप में कर दिया गया था।

रिपोर्ट ने विस्तार से साबित किया है कि मध्य प्रदेश,छत्तीसगढ़ और बिहार के गांवों में अब क्रांति आने लगी है।हालत यह है कि मध्य प्रदेश के बच्चे तो शिक्षा की गुणवत्ता में भी काफी आगे की चहलकदमी कर गए हैं। अंक गणित के परीक्षण में उनका प्रदर्शन गोवा और केरल के बच्चों से भी बेहतर रहा है।

यह रिपोर्ट इस बात का संकेत है कि भारत जाग रहा है और हरित और श्वेत क्रांति के बाद अब वाकई शिक्षा क्रांति की तरफ अपने कदम बढ़ा रहा है।

वैसे इस कामयाबी का एक बड़ा श्रेय सरकार ले सकती है। इसका उसे हक भी बनता है। सर्व शिक्षा अभियान ने देखते ही देखते भारत भर के गांवों में शिक्षा को एक आंदोलन की तरह जिंदा और सक्रिय रखा है। फिर तमाम खामियों और आलोचनाओं का शिकार होने के बावजूद मिड डे मील भी उस वर्ग के बच्चों के लिए एक लौ का काम करता रहा है जिन्हें न तो अपने परिवारों में पढ़ने का माहौल मिल पाता है और न ही दो वक्त का भरपेट खाना।

लेकिन यहां कुछ पहलू ऐसे भी हैं जिन पर गौर जरूर किया जाना चाहिए। दरअसल इस तरह की योजनाएं सरकारी फाइलों के इधर-उधर भागने से कहीं ज्यादा बाबुओं की व्यक्तिगत दिलचस्पी पर काफी हद तक निर्भर रहती है। मानव संसाधन मंत्रालय में ऐसे अफसरों की कमी नहीं जिन्होंने अपने स्तर पर इस अभियान की ताकत को बनाए रखा। लेकिन कामयाबी की इस कहानी को लिखने वालों का जिक्र करना न तो सरकार को याद रहता है औऱ न ही मीडिया को। मजे की बात तो यह है कि सरकारी महकमों में जो गिने-चुने अधिकारी ऐसी योजनाओं के साथ मानसिक एकरूपता महसूस करते भी हैं, उन्हें भी एक पद विशेष में बहुत दिनों तक टिके रहने नहीं दिया जाता।

दूसरे सरकारी स्कूलों की मिड डे योजना आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों को तो खींच लेती है लेकिन जरा बेहतर स्तर के परिवार के अपने बच्चों यहां भेजना पसंद नहीं करते। यही वजह है कि पिछले तीन साल में गांवों के पब्लिक स्कूलों में करीब 37 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है जबकि गांवों के सरकारी स्कूलों में दाखिला लेने वाले बच्चों की तादाद लगातार घट रही है। अंग्रेजी रटाने के नाम पर इन पब्लिक स्कूलों में जिस अधकचरे ज्ञान का महिमामंडन होता है, उस पर जागने का माहौल अभी बनता नहीं दिख रहा।

तीसरे यह कि सफलता को लगातार बनाए रखने के लिए हमेशा नए फार्मूलों की जरूरत पड़ती है। मिड डे योजना के बाद अब अच्छा होगा कि बदलते समय के अनुरूप नए फार्मूले और प्रोत्साहन देती योजनाएं लागू की जाएं ताकि सर्व शिक्षा अभियान की ताजगी बरकरार रहे।

साथ ही इस तरह का माहौल बनाना होगा कि इन स्कूलों में पढने और बाहरी जिंदगी में कुछ सफल होने के बाद इन्हीं में से कुछ बच्चे इनमें आकर पढ़ाएं भी। गांव में रहकर पढ़ना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी उसी गांव में वापिस लौटक कर कुछ देने का भाव रखना भी है। बच्चों को अपने ही भीतर से रोल मॉडल मिलें, इसकी नींव अभी से रखनी होगी। इससे गांव तो सक्षम होंगे ही, तो शहरों पर बढ़ता जनसंख्या का दबाव भी घटेगा। वैसे भी आर्थिक मंदी ने अर्थव्यव्स्था को खेतों का रास्ता फिर से दिखाया है। इस बार भी सबक लेने में चीन बाजी मार गया है। अगर स्कूल सही दिशा में ज्ञान देने में सफल रहते हैं तो इस बात की गारंटी रहेगी कि भारत आकाश की ऊंचाइयों को छूने के बावजूद जमीन से कटेगा नहीं।

वैसे इस सारे अभियान में मीडिया की भूमिका कई बार सकारात्मक रही है। रिएलिटी शोज ने सपने जगाए हैं। मामूली चेहरों और निम्न घरों के बच्चों के हाथों में जीत का गुलदस्ता थमाया है और साथ ही बड़े शहरों के उच्च मध्यम वर्गीय परिवारों के बच्चों के अपराध ऐसे जोर-शोर से दिखाए हैं कि कई बार गांववालों को महसूस हुआ है कि वे इनसे बेहतर हैं।

लेकिन शिक्षा के प्रसार को पुरजोर कोशिश के साथ स्थापित करने की आदत मीडिया को नहीं पड़ी है। वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में शिक्षा का एक बेहद आकर्षक सरकारी विज्ञापन बना, वह भाजपा सरकार जाने के बाद भी कई दिनों तक मामूली फेरबदल के बाद वैसे ही चलता रहा। निजी चैनल आज भी जनमानस से जुड़े मुद्दों को दिखाने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेता क्योंकि उसे लगता है कि यह काम दूरदर्शन के जिम्मे है। वही करे समाज का भला।


फिलहाल यह बच्चे स्कूल जा रहे हैं लेकिन इनके बस्ते किन सपनों की पनघट के पार जा रहे हैं,यह सोच शायद अभी सरकार के पास नहीं। अगले दस साल में जब ऐसे कई बच्चे अपनी बढ़ाई पूरी कर रहे होंगे या कर चुके होगें तो इनका कब्जा उन तमाम सपनों पर हो जाएगा जो अब तक चांदी की प्लेटों में खाना खा रहे बच्चों के पास ही कैद थे। ये बच्चे जब डिग्रियां पाएंगें तो इनके पास एक जादुई उड़नतश्तरी खुद-ब-खुद आ जाएगी और यही नए भारत को एक सुपर शक्ति बनाने का विचारशील फार्मूला तय करेगें। इसलिए समय आ गया है कि इन बच्चों को अब सिर्फ ककहरा ही न पढ़ाया जाए बल्कि सपनों की घुट्टी भी पिलाई जाए। तब वाकई लगेगा कि अपने देश में बुद्धा इज लाफिंग।

Feb 5, 2009

असली खबर तो बताइए हुजूर!

ऐसा कई बार होता है कि जो असल में खबर होती है, वह खबर नहीं बनती और नाकाबिल खबर बड़ी खबर की तरह उछल कर सामने खड़ी हो जाती है। ताजा मिसाल है- फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी की घोषणाएं। सरकोजी ने हाल ही में कुछ अहम घोषणाएं की हैं। सबसे अहम घोषणा यह है कि फ्रांस के जो युवा इस साल अपना 18वां जन्म दिवस मनाएंगें, उन्हें अपनी पसंद का एक अखबार मुफ्त में दिया जाएगा और उस अखबार की कीमत सरकार चुकाएगी। इसके अलावा देश की अखबारों की बिगड़ती सेहत को चमकाने के लिए एक नौ-सूत्री कार्यक्रम की योजना बना दी गई है जिसके तहत अखबारों को मिलने वाले विज्ञापनों में दोगुना बढ़ोतरी शामिल है। सरकार अब अखबारों और पत्रिकाओं को फिलहाल मिलने वाली 80 लाख यूरो की राशि को बढ़ा कर 7 करोड़ यूरो करने जा रही है। इसके अलावा वह प्रिंट को दिए जाने वाले विज्ञापनों पर 2 करोड़ यूरो अतिरिक्त खर्च करने जा रही है। इन प्रयासों के अलावा प्रिंट पर लगने वाली फीस की कुछ दरों में भी कटौती की जाएगी। सरकोजी ने यह तमाम घोषणाएं एक ऐसे समय में की हैं जबकि पूरी दुनिया पर मंदी का साया है। इस साये में दूसरे व्यापारिक प्रतिष्ठानों की ही तरह मीडिया की तरफ से भी यह आवाजें गूंजने लगी हैं कि मंदी का उन पर गहरा असर पड़ रहा है। वैसे फ्रांस के संदर्भ में देखा जाए तो उनका यह फैसला उनके आलोचकों को एक बार फिर यह कहने का मौका दे सकता है कि वे मीडिया मालिकों से अपनी करीबियत बढ़ाने के लिए आमादा हैं और इसके जरिए वे उन पर अपना प्रभाव और दबाव-दोनों ही बढ़ाना चाहते हैं। लेकिन आलोचना चाहे जो भी हो, सरकोजी की इन घोषणाओं ने कम से कम फ्रांस में मुरझाने से लगे प्रिंट उद्योग को एक नई गुलाबी तो दे ही दी है। लेकिन सरकोजी का एक कदम खास तौर पर काबिलेतारीफ है। अपने 18वें साल में प्रवेश कर रहे नवयुवकों को एक साल के लिए अपनी पसंद की किसी अखबार को मुफ्त में पाने की उनकी इस पहल के कई दूरगामी असर होंगे। इस समय जबकि पूरी दुनिया में इस पर चिंतन होने लगा है कि युवा प्रिंट से दूर होता जा रहा है, ऐसी कोशिश उस दूरी को कम करने की कुछ कोशिश यकीनी तौर पर करेगी। साथ ही इससे प्रिंट को भी एक ताकत तो मिलेगी ही। अगले कुछ सालों में जब यह पीढ़ी पूरी तरह से अपने पांवों पर खड़ी होगी, तब इस पीढ़ी का प्रिंट की तरफ सम्मान (या फिर रूझान ही सही) का रवैया अगली पीढ़ी में भी प्रिंट के बदस्तूर टिके रहने को सुनिश्चित कर देगा। पूरी दुनिया में, खासकर पश्चिमी देशों में अखबार पढ़ने वाले कम से कम 5 प्रतिशत की वार्षिक दर से घट रहे हैं। इस मामले में भारत की बात जरा दूसरी है। भारत का समाचार पत्र उद्योग चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा समाचार पत्र उद्योग है। यहां नव साक्षरों की तादाद अभी भी बढ़ रही है और साथ ही एक बड़े लोकतंत्र के होने की वजह से भी टीवी की तमाम धमाचौकड़ियों के बावजूद प्रिंट का वर्चस्व आज भी हिंदुस्तान में कायम है। यही वजह है कि तमाम मंदियों और धमाकों के बावजूद भारत में आज भी रोज नए अखबार या पत्रिकाओं के प्रसव का दौर चल रहा है। वर्ल्ड प्रेस ट्रेंड(2008) के आंकड़ों के मुताबिक 2004 में भारत में 3,800 पत्रिकाएं छप रही थीं और 2007 में इनकी संख्या उछलकर 6,300 पर जा पहुंची। जाहिर है कि भारत में समाचार पत्रों और पत्रिकाओं की संख्या बढ़ रही है लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं लगाया जाना चाहिए कि प्रिंट के लिए यह प्रेम सदाबहार रहेगा। पिछले कुछ सालों में पत्रिकाओं को पढ़ने वालों की संख्या में तेजी से कमी आई है। अकेले भारत में पत्रिकाओं को पढ़ने वालों की तादाद साढ़े सात करोड़ से घट कर छ करोड़ 80 लाख तक आ पहुंची है। कहने को कहा जा सकता है कि टीवी और इंटरनेट की चौबीसों घंटे की मौजूदगी ने पत्रिकाओं को पढ़ने के समय को कम कर दिया है लेकिन इसे इस बदलाव की इकलौती वजह कतई नहीं माना जा सकता और न ही इस सच को स्वीकारने से परहेज होना चाहिए कि नई पीढ़ी का पढ़ने के प्रति रूझान सूख रहा है। बहरहाल फ्रांस की बात हो रही थी। लगता है कि फ्रांस में जिस बदलाव की तरफ इशारा किया गया है, उससे भारत को भी सबक लेना ही चाहिए। भारत में इस समय हिंदी पत्रिकाओं का बाजार सिमट रहा है। न्यूज और सामयिक विषयों पर गिनी-चुनी पत्रिकाएं ही बाजार में बची हैं और इनमें भी एक प्रमुख पत्रिका हाल ही के दिनों में साप्ताहिक से मासिक कर दी गई और उसके संपादक और कई वरिष्ठ पत्रकार पत्रिका को छो़ड़ कर एक नई अखबार से जा जुड़े। खबर यह है कि यह पत्रिका भी बस अब बंद होने के मुहाने पर खड़ी है। साहित्यिक पत्रिकाओं को तो वैसे भी राम-रहीम भरोसे चलने की आदत रही है। साहित्यिक पत्रिकाएं अब भी 1000 से ज्यादा प्रतियां छपाने का साहस जुटा नहीं पातीं। समाचार पत्रों का बाजार इस बीच फला-फूला जरूर लेकिन यहां भी अब कंटेट इज दी किंग की बजाय पैसा इज दी किंग का नारा जपा जा रहा है। रिपोर्टर विज्ञापन लाने में जुटते हैं और संपादकीय लिखने के लिए रखे गए लोग इस फिराक में कि समाचार पत्र समूह को कहां से धनलक्ष्मी मिल सकती है और इन सबके बीच मंदी के बहाने कई समाचार पत्रों से लोगों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया तो संदेश यह भी गया कि अब टिके रहने की एक बड़ी शर्त यह होगी कि आप पूंजीपति की पूंजी में मुनाफा करने के काबिल हैं या नहीं। मंदी का जोर भारत में भी है। मंदी वाकई उतनी गहरी है जितना दिख रही है या फिर यह सब बहाना है, यह सोचने की बात है। लेकिन इतना जरूर है कि मंदी के मौसम में कई अखबारों में अच्छे से अच्छे धुरंधर पत्रकारों की छुट्टी कर दी गई है। इसमें गौर करने की बात यह कि पत्रकारों की इस स्थिति पर कहीं कोई सुगबुगाहट भी दिखाई तक नहीं दे रही। कहा यह जा रहा है कि मंदी के चलते प्रिंट उद्योग पेरशानी में है, इसलिए अखबारों के दफ्तरों में जमी अतिरिक्त चर्बी को बाहर किया जाना निहायत जरूरी है। तो मुद्दा यह है कि जिस पत्रकारिता का काम मिशन था और सामाजिक हितों की रक्षा करना था, वह पूंजीपतियों की कठपुतली बनने लगा है। अब मिशन की जगह कमीशन ने और सामाजिक हितों की जगह स्वांत: सुखाय ने ले ली है। ऐसे में असल पत्रकारिता है कहां? लेकिन अगर सरकारी स्तर पर भारत में भी प्रिंट मीडिया को पैसे का ग्लूकोज दिया जाए तो शायद स्थिति बदले। यहां यह देखना होगा कि ग्लूकोज की डोज अपनी सीमा न लांघे और न ही मीडिया उसका आदी बन चले। यह भी कि डोज ऐसी न हो कि लेने वाला देने वाले के महिमामंडन को ही पत्रकारिता समझने की भूल कर बैठे। (यह लेख 5 फरवरी को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

Feb 1, 2009

कृषि दर्शन : उपयोगी पर दर्शनीय नहीं

किसान भाइयों को राम राम। 26 जनवरी, 1966 को इस संबोधन के साथ जिस प्रयोग की शुरूआत हुई, उसका नाम था- कृषि दर्शन। मकसद था-किसानों तक कृषि संबंधी सही और जरूरी सूचनाओं का प्रसारण। कहने को तो आप इसे महज एक कार्यक्रम भर मान सकते हैं लेकिन दरअसल कृषि दर्शन अपने आप में एक मुहावरा है। याद कीजिए वे दिन जब काले-सफेद टीवी के परदे के सामने बैठ कर दर्शक सत्यम् शिवम् सुंदरम् के लोगो को बहुत चाव से देखा-सुना करते थे। उन दिनों दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले गिने-चुने कार्यक्रमों में से एक था - कृषि दर्शन। चूंकि तब विकल्प नहीं थे और मनोरंजन के साज बुद्धू बक्से पर एक ही चैनल का कब्जा था तो यह कृषि दर्शन कई बार बड़े काम का लगता था। इस कार्यक्रम को असल में एक दृष्टि के साथ शुरू किया गया था। कृषि दर्शन एक प्रयोग था जिसे सबसे पहले दिल्ली और आस-पास के चुने गए 80 गांवों में सामुदायिक दर्शन के लिए विकसित किया गया। यह प्रयोग सफल रहा और यह पाया गया कि हरित क्रांति के इस देश में कृषि दर्शन ने किसानों से बेहद जरूरी जानकारियां बांटने में जोरदार भूमिका निभाई। कृषि प्रधान देश के किसानों के लिए इस कार्यक्रम ने घर बैठे ताजा सूचनाओं और तकनीक के नए द्वार खोल दिए। किसान इस कार्यक्रम का बेसब्री से इंतजार करते और बाद में दो तरफा संवाद कायम होने के बाद बीजों से लेकर कीटनाशकों तक से जुड़े सवालों के जवाब सीधे वैज्ञानिकों से पाने लगे। आज भी यह कार्यक्रम हफ्ते में पांच दिन प्रसारित किया जाता है। बाद में इसी प्रयोग से उत्साहित होकर 1975 में साइट परियोजना की नींव रखी गई। भारत में तकनीक और सामाजिक स्तर पर यह सबसे बड़ी परियोजनाओं मे से एक बना। इसके तहत भारत के 6 राज्यों(राजस्थान, कर्नाटक, उड़ीसा, बिहार, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश) के 2330 गांवों को चुना गया। इसका मकसद था - गांवों की संचार प्रणाली की प्रक्रिया को समझना, टेलीविजन को शिक्षा के माध्यम के तौर इस्तेमाल करना और ग्रामीण विकास में तेजी लाना। इन कार्यक्रमों में कृषि और परिवार नियोजन को तरजीह दी गई। 5 से 12 साल के स्कूली बच्चों के लिए हिंदी, कन्नड, उड़ीया और तेलुगु में 22 मिनट के कई ऐसे कार्यक्रम तैयार किए गए जिससे बच्चों में विज्ञान में दिलचस्पी बढ़ी। इस परियोजना ने यह साबित किया कि दूरदर्शन ग्रामीण शिक्षा और विकास के लिए एक बड़ा हथियार बन सकता है। इसके बाद प्रयोग चलते ही रहे। 1982 में इंसैट और 1983 में इंसैट 1-बी परियोजनाओं ने गांवों में अलख जगाने की मुहिम बरकरार रखी। लेकिन दूरदर्शन न तो कभी पूरी रफ्तार पकड़ पाया और न ही वह गुणवत्ता जिसकी उससे अपेक्षा थी। नई दिल्ली में सितंबर, 1959 को पहला केंद्र स्थापित होने के बाद मुंबई में दूसरा केंद्र स्थापित करने में ही सरकार ने 13 साल का समय लगा दिया और रंगीन होने में तो 23 साल ही लग गए। वह भी तब जब भारत में एशियाड खेल आ धमके। बाद में खाड़ी युद्ध के बहाने निजी चैनलों की घुसपैठ होते ही दूरदर्शन का जैसे बाजा ही बज गया। 1962 में 41 टीवी सेटों से शुरू हुई कहानी फिर कभी ठहरी नहीं और न ही दूरदर्शन और निजी चैनलों के बीच तुलना का दौर। इस सबके बीच दूरदर्शन के लिए विकास तो प्राथमिक ही रहा लेकिन गुणवत्ता तब भी नहीं। यह त्रासदी ही है कि दूरदर्शन पर दिखाए जा रहे कृषि संबंधी कार्यक्रमों में कृषि दर्शन सबसे पुराना होने के बावजूद गुणवत्ता के स्तर पर सर्वश्रेष्ठ आज भी नहीं है। आज भी न तो सेट आकर्षक नहीं बन सके हैं और न ही एंकरों में कसाव आया है। इस कार्यक्रम में आज भी विषयों में विविधता नहीं दिखती। रीसर्च के नाम पर भी ढीलेपन का कब्जा है। यहां किसान की परिभाषा भी रटी-रटाई है। किसान यानी अपने खेत में खेती करने वाला आम किसान या फिर बहुत बड़ा किसान। भूमिहीन किसानों के अधिकारो की बात अक्सर यहां नहीं होती। दूसरे यहां नकदी फसलों जैसे नए और ज्यादा आधुनिक विकल्पों को भी नएपन से समझाया नहीं जाता। यही वजह है कि आज भी एक आम मजाक है कि कृषि दर्शन की हालत ऐसी है कि यह भेद करना मुश्किल है कि जो एपिसोड दर्शक देख रहा है वह 2009 में बना था या 1966 में। 2005 से कृषि मंत्रालय के सहयोग से राष्ट्रीय प्रसारण के लिए नैरोकास्टिंग कृषि दर्शन नामक कार्यक्रम की भी शुरूआत कर दी गई है लेकिन यहां भी दूरदर्शिता का अभाव साफ दिखता है। यह ठीक है कि निजी चैनलों ने कभी भी विकास को पहली प्राथमिकता नहीं दी। वे रसोईयों में पकवानों की रिसिपी तो सिखाते रहे लेकिन सब्जी-अन्न मुहैया कराने वाले बहुत याद नहीं आए। मेरा गांव मेरा देश, किसान भाइयों और जय जवान जय किसान जैसे कार्यक्रमों की शुरूआत भी हुई लेकिन नेक नीयती के स्तर पर वे भी पिछड़ गए। अब जबकि कृषि दर्शन अपने प्रसारण के 23 साल पूरे कर रहा है, खुशी होती है कि दूरदर्शन ने आज भी किसान को हाशिए पर सरकाया नहीं है। लेकिन सोचने की बात यह भी है कि क्या किसान अकेले दूरदर्शन की ही जिम्मेदारी हैं? क्या आचार संहिताएं बनाने वाले बुद्धिजीवी ऐसी कोई अनिवार्यता रख पाने में अक्षम हैं कि निजी चैनलों को एक तयशुदा प्रतिशत किसानों के लिए रखना ही होगा? दूसरे यह कि क्या तकनीक के स्तर पर इतनी क्रांतियां आने के बाद अब भी दूरदर्शन को महसूस नहीं होता कि अथाह संसाधनों के बावजूद वह आज भी इस कार्यक्रम को स्तरीय बनाने में चूक रहा है? ( यह लेख 1 फरवरी, 2009 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)