खबर अंग्रेजी के एक ऐसे अखबार में पढ़ने को मिली जिसका नाम नई पीढ़ी को शायद पता भी न हो लेकिन खबर आईना दिखाने वाली थी। खबर यह थी कि सिल्चर स्थित दूरदर्शन केंद्र बंद होने के मुहाने पर खड़ा है। वजह है – कार्यक्रेमों के लगातार घटते स्तर की वजह से दर्शकों में बेहद कमी का रिकार्ड होना। कहा गया है कि यहां पर दूरदर्शन केंद्र की काम करने वाले दिखते ही नहीं। फिलहाल स्थिति यह है कि कार्यक्रम रिपीट होते जाते हैं, उनमें विविधता की कमी साफ दिखने लगी है और यहां तक कि हफ्ते में एक बार प्रसारित होने वाला बंग्ला बुलेटिन भी बासी खबरों का फटा गुलदस्ता बनने लगा है। यही वजह है कि अब तक दूरदर्शन पर निर्भर रहने वाले सुदूर इलाकों के लोगों ने भी दूरदर्शन को देखना तकरीबन बंद कर दिया है। ऐसे में सरकार को शायद आसान यही लग रहा होगा कि इस सफेद हाथी को अब चिड़ियाघर का अतीत बनाने में ही भलाई है।
लेकिन सरकारें सोचती नहीं। वे मंथन नहीं करतीं। फाइलों के सरकारी कवि सम्मेलन में फैसले देर से लिए जाते हैं,राजनीति से प्रेरित होते हैं और जन-हित के नाम पर तमाम तरह की कबड्डी करने में माहिर होते हैं। सरकारें जिम्मेदार लोगों की जिम्मेदारी तय नहीं करतीं। जनता के पैसे को हवा में उड़ाने वालों पर सख्त कारर्वाई नहीं होती। फीडबैक नहीं लिए जाते, सलामशाही और हाइरारकी में सब कुछ ऐसा गुत्मगुत्था रहता है कि असल में काम करने वाले जरूरी बैठकों में साहब लोगों की चाय का इंतजाम करने में ही समेट कर रख दिए जाते हैं।
इसमें कभी कोई शक हो ही नहीं सकता कि दूरदर्शन जैसा जनहित सेवक वाकई पूरी दुनिया में नहीं। जनता के वे तमाम जमीनी मुद्दे जो ईलीट क्लास के निजी चैनलों को समझ भी नहीं आते, दूरदर्शन उन्हें मजे से निभाता है। लेकिन किस कीमत पर, किस गुणवत्ता पर। असल में अपने वर्चस्व की शंहशाही के दौर में ही उसे जिस चोटी पर पहुंचना चाहिए था, उसमें वह चूक गया। उस दौर में भले ही उसने हम लोग,रामायण, महाभारत दिखाकर इतिहास रचा लेकिन इन्हें बनाया खुद नहीं। ये निजी हाथों से बन कर आए। बाद में नए चैनल आए तो उन्होंने रोज दूरदर्शन को पटखनी दी और दूरदर्शन की ही मलाई खाकर कइयों ने अपने चैनल खो लिए। ये वे लोग हैं जो आज दूरदर्शन के नाम पर बैंगन सा मुंह बना लेते हैं और इस गाने को गुनगुनाते हैं कि हम दूरदर्शन जैसे नहीं हैं, हम स्मार्ट, तेज, खास और आधुनिक हैं।
यह ठीक है कि दूरदर्शन की खबरों में आज भी विश्वसनीयता है लेकिन उसकी गति और दुर्गति देखिए। राजीव गांधी ने अपनी मां की हत्या की खबर तो बीबीसी से ही पुख्ता की थी।
मौजूदा समय में डीडी न्यूज ने मेकओवर की कोशिश की लेकिन सफेद हाथी को कमाऊ हाथी बनाना कोई आसान काम नहीं। यहां की नियुक्तियां मंत्रालय के बड़े दरवाजे की मेहरबानी पर काफी हद तक टिकी होती हैं। बाहर के टूर पर जाने का वरदान किसे मिलना है, यह भी आम तौर पर मेरिट नहीं, मंत्रालय का आशीर्वाद या उनका नियुक्त सिपाही तय करता है। खबरों का चुनाव आज भी पूरी तरह से मेरिट पर नहीं होता। अपने सरकारी ड्रामे के चलते जिस दूरदर्शन ने जेपी की महा सफल रैली को ही पूरी तरह फ्लाप बता दिया था, उस पर न्यूज के मामले में इतनी जल्दी विश्वास की पटरी बिछाई भी नहीं जा सकती।
खैर,बात सिल्चर की हो रही थी। सूचना के मुताबिक असम प्रदेश कांग्रेस कमेटी(मीडिया सैल)के सदस्य प्रदीप दत्ता राय इस बारे में सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सीनी को एक मेमोरेंडम भेज चुके हैं। इसके अलावा पूर्व केंद्री मंत्री संतोष मोहन देव और केबिनेट मंत्री गौतम राय भी इस बारे में चिंता जता चुके हैं लेकिन अभी तक कुछ ठोस होने की कोई खबर नहीं मालूम हुई है।
इस साल अगस्त में ही संसद में अंबिका सोनी ने खुद स्वीकार किया था कि पिछले तीन साल के दौरान दूरदर्शन की सालाना आय इसके सालाना व्यय की तुलना में कम रही है। दूरदर्शन फ्री टू एयर डीटीएच सेवा के अलावा 31 टीवी चैनलों को प्रचालित कर रहा है। 2008-09 में दूरदर्शन की आय 737.05 करोड़ रूपए और उसका व्यय 1356.86 करोड़ रूपए रहा। मतलब यह कि आमदनी अठन्नी, खर्चा रूपया। इसमें अकेले सिल्चर दूरदर्शन का भला क्या दोष। किसी को तो पहला शिकार बनना ही था। सिल्चर बन गया है,बाकी का नंबर इसके बाद आएगा। इसे लेकर बड़ी-बड़ीआवाजें भीउठेंगीं। ज्ञापन, आंदोलन, धरने, प्रदर्शन का दौर भी चल सकता है लेकिन दर्शक पर ज्यादा असरपड़ने वाला नहीं है। वे तो पहले ही इससे दूर होते जा रहे हैं।
(यह लेख 13 दिसंबर,2009 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)