10वीं और 12वीं – दोनों के ही नतीजे डाक से स्कूल पहुंचे थे। उस दिन मंदिर होते हुए स्कूल पहुंचे तो उत्साह चरम पर था। उंगली से एक-एक विषय पर हाथ रखते हुए मार्क्स नोट किए थे,तब भी डर बना था कि ऊपर या नीचे वाले के नंबर न लिख बैठें। साल दल साल स्कूलों में नतीजों के आने पर उत्साह, उत्सव, चुप्पी, निराशा का एक मजेदार माहौल बनता था। कुछ वहीं रोने लगते, कुछ भागड़ा डालने लगते। अनगिनत स्कूलों की दीवारों को यह सब कभी भी भूल नहीं सकता। यह साल का सबसे ज्यादा रोमांचक पल होता था।
अब ये बीती बातें हो गई हैं। बीते कुछ सालों से नतीजे कंप्यूटर देता है। निर्धारित दिन पर साइट क्लक कीजिए और नतीजा सामने। दो मिनट के लिए कंप्यूटर के सामने ही नाच-रो लीजिए। फिर खुद भी कंप्यूटर की तरह ही बन जाइए, भावशून्य।
एक और मजे की बात है। कंप्यूटर सुख-दुख के सामाजिक आदान-प्रदान से भी वंचित करता है। न दूसरे को ढांढस बंधाने का मौका देता है, न गले मिलने का। इस बार एक अखबार की चटपटी खबरों के कोने में पढ़ा कि कैसे इस बार सीबीएसई ने प्रेस कांफ्रेस कर पत्रकारों को खास न्यौता नहीं दिया। कंप्यूटर पर आने वाले इन नतीजों ने दरअसल मीडिया के हाथों से भी खबरों के विजुअल छीन लिए हैं। अब विजुअल दिखाएंगे भला क्या। पहले विजुअल के नाम पर सारे नाटकीय रंग घुले-मिले मिलते थे। रिजल्ट की रिपोर्टिंग के लिए चैनलों और अखबारों में कई दिन पहले ही टीमों का गठन होने लगता था। फिर कोशिश की जाती थी कि बोर्ड पर नतीजे देख रही सुंदर लड़कियों की तस्वीरें खास तवज्जो के साथ दिखाई जाएं। उसके बाद वहीं पर उनकी बाइट, प्रिंसिपल का इंटरव्यू, टीचरों की टिप्पणियां, मां-बाप की बधाइयां, मिठाई के डिब्बे और संगीत की धुनें। सब कुछ एक फिल्मी कहानी की तरह जैसे सामने घटता चला जाता। अखबारों की रिपोर्टें भी अगले दिन बड़ा सटीक आंखों देखा हाल देतीं। किस स्कूल में रिजल्ट के दौरान क्या-क्या खास रहा, कहां नतीजे देर से पहुंचे या देर से बोर्ड पर लगे,कहां पीने को पानी भी नहीं था,कहां कोई लड़का बेहोश हो गया और कैसे कुछ पब्लिक स्कूलों के बाहर बच्चों से ज्यादा कारों का हुजूम मौजूद था वगैरह। रिपोर्टिंग सिलसिलेवार ढंग से खूब रसीली बातें कहती दिखती और आकर्षित करती।
अब वो मजा कंप्यूटर वाले कमरे में सिमट कर रह गया है। अपनी भावना उसी के सामने जाहिर कीजिए और फिर कुछ ही पलों में फेसबुक पर खो जाइए। साल भर की पढ़ाई के बाद नतीजे का दौर अब एकाकी हो चला है। यहां खुद ही को बधाई दीजिए और खुद ही अपने आंसू पोंछिए। फिर धीरे-धीरे बाकी दोस्तों के नंबर देखने में जुट जाइए। दूसरे के अंदर उस समय क्या भाव उमड़ रहे हैं, इसका सही अंदाजा भी यहां क्या मिले।
बेशक कंप्यूटर और इंटरनेट ने दिमागी खिड़कियां खोलने का अंचभेभरा काम किया है लेकिन इस अचंभे की दुनिया से भावनाएं भी बह कर निकल आएं, यह सोचना ही गलत है। बच्चों की दुनिया में नतीजे बड़ी चीज हैं। इंटरनेट ने रोचकता और ज्ञान के एक से बढ़ कर एक अजूबे किए हैं लेकिन इस अजूबे से जब नतीजे की पोटली निकलती है तो बेरंगी ही लगती है।
5 comments:
uss ek pal ke romanch ko aapne sahej kar rakha........aur badi payri lekhni me usse bayan kiya.......dhanywad!!
kabhi hamare blog pe aayen!!
वर्तिका जी आपने बिलकुल सही बयान किया। मैं कल ही अपने एक मित्र से जिक्र कर रहा था कि हमारा 11 वीं का रिजल्ट 1975 में अखबार में छपा था। अखबार की प्रत्तीक्षा में हम सारी रात रेल्वे स्टेशन पर बैठे रहे थे। उसका अपना एक अलग ही रोमांच था। अब तो उधर बोर्ड ने रिजल्ट घोषित किया और अधर कम्पयूटर के बोर्ड पर आपकी आंखों के सामने । सही कहा आपने कम्पयूटर के आगे ही दो चार मिनट रो गा लीजिए।
सच है अब वह रोमांच नही रहा...नेट के कारण पता नही आने वाला भविष्य लोगों के दिलो दिमाग मे कैसा असर डालेगा
sahi kaha ab kahan wo result ke paper ke liye hone wali matamari...paper ke daftaron ke bahar jama bheed...ab to ghar me dekh lo...facebook par status update...karo...bas...
सत्यवचन!
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