करीब 300 लोगों की क्षनता वाला स्टीन आडीटोरियम खचाखच भरा था। हाल में हर उम्र के लोग थे लेकिन ज्यादा तादाद युवाओं की थी। वे एक ऐसी फिल्म देख रहे थे जिसमें न तो बालीवुड का तड़का-मसाला था, न बड़े सितारे और न ही उनके करियर से जुड़े सवाल। मामला किसानों की आत्महत्या का था। फिल्म थी – नीरोज गेस्ट्स, कहानी थी –किसानों की आत्महत्या की और फिल्म के सूत्रधार का काम कर रहे थे – देश के इकलौते रूरल एडिटर पी साईंनाथ। आयोजक था- पीएसबीटी और मौका था वार्षिक फिल्म समारोह। जगह वही नई दिल्ली जहां पर किसानों की गिड़गिड़ाहट की आवाज पहुंचती ही नहीं। लेकिन फिल्म को दिखाते समय ऐसा माहौल बना हुआ था कि अगर सुई भी सरकती तो उसकी आवाज दर्ज हो जाती।
पी साईनाथ जेनयू से पढ़े हैं, मैगेसेसे अवार्ड से नवाजे जा चुके हैं और पिछले दस साल से एक ही मिशन पर काम कर रहे हैं और वह है –किसान। उनकी किताब एवरीबडी लव्ज ए गुड ड्राउट किसानों के हालात का कच्चा चिट्ठा है। फिल्म पूरे सच्चेपन से बढ़ती चलती है और विदर्भ के किसानों के उन घरों में भटकती है जहां किसानों ने आत्महत्या की है। फिल्म दिखाती है कि कैसे इन परिवारों तक कोई सरकारी मदद अब तक पहुंची नहीं है और कैसे इन परिवारों के बच्चे एक ही रात में बड़े हो गए हैं। उन्हीं परिवारों में कुछ चेहरे ऐसे भी देखते हैं जो किसी भी पल आत्महत्या कर सकते हैं। फिल्म में कई जगह पर साईंनाथ का गुस्सा और क्षोभ उभरता है। उन्हें तमाम आंकडे जुबानी याद हैं। बताते हैं कि दस साल में 2 लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। वे कहते हैं कि सेंसेक्स की हालत पतली होने पर मंत्री दो घंटे में मुंबई पहुंच जाते हैं लेकिन किसानों का हाल देखने जाने के लिए देश के प्रधानमंत्री को दस साल लग जाते हैं। वे जमकर फैशनवीक की धज्जियां उड़ाते हैं, बताते हैं कि कैसे 512 पत्रकार एक फैशनवीक को कवर करने पहुंच जाते हैं और उसे एक राष्ट्रीय उच्सव में तब्दील कर जाते हैं और कैसे किसानों की आत्महत्या किसी पत्रकार के लिए खबर तक नहीं बनती।
कई दिनों बाद एक गंभीर मसले पर एक फिल्म देखने को मिली – बिना सीटियों के, बिना शोर के बीच, एकदम सभ्य तरीके से। इसमें खास मजा यह देखकर आता है कि जिस पेज थ्री की खिल्ली वे उड़ा रहे थे, उनमें से कई तो वहीं आडीटोरियम में बैठे थे और वे भी खिसिया कर ताली बजाने को मजबूर हो गए थे।
लेकिन इसमें एक कमी लगी। फिल्म सरकारी तंत्र का हद से ज्यादा विरोध करती चलती है, खिल्ली उड़ाती है। यहां संतुलन की कमी महसूस होती है, मामला कई जगह एकतरफा होता भी दिखता है। भारतीय युवा, जो कि मीडिया के अति खुलेवाद की वजह से वैसे ही विद्रोही और नकारात्मक होते जा रहे हैं, उन्हें अगर यह प्रस्तुति सकारात्मक जवाबों से भी रूबरू कराते चलती तो असर शायद और भी प्रभावी हो जाता।
खैर, पीपली लाइव से अलग लीक से हटकर बनी दीपा भाटिया की यह डाक्यूमेंट्री जब खत्म हुई तो तालियों की आवाज के बीच ऐसा भी लगा कि कुछ आंखें नम भी हो आई थीं। काश इस फिल्म को नीति निर्माता भी देख पाते।
(यह लेख 14 सितंबर, 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)