Jun 12, 2011

इस मरूस्थल में

 

उन दिनों बेवजह भी बहुत हंसी आती थी

आंसू पलकों के एक कोने में डेरा डालते पर

बाहर आना मुमकिन न था

 

मन का मौसम कभी भी रूनझुन हो उठता

उन दिनों बेखौफ चलने की आदत थी

आंधी में अंदर एक पत्ता हिलता तक न था

 

उन दिनों शब्दों की जरूरत पड़ती ही कहां थी

जो शरीर से संवाद  करते थे

 

उन दिनों

सपने, ख्वाहिशें, खुशियां, सुकून

सब अपने थे

उन दिनों जो था

वो इन दिनों किसी तिजोरी में रक्खा है

चाबी मिलती नहीं


1 comment:

Anonymous said...

baat to bahut umda kahi hai aapne madam...