Aug 1, 2011

अब फेसबुक ने बनाई ‘ तीसरी दुनिया ’

एक नई दुनिया बन कर तैयार हो रही है। यह दुनिया एक दूसरे से मिले बिना एक दूसरे से जुड़ी रहती है। एक दूसरे के सपने, गुस्से और दुख को बांटती है और पल भर में एक दूसरे के साथ जुड़ भी जाती है। यह बात अलग है कि जितनी तेजी से जुड़ती है, उतनी ही तेजी से उन संबंधों को किसी डस्टबिन में फेंक आगे निकल भी जाती है।

नए आकंड़े बड़ी मजेदार बातें बताते हैं। अगर दुनिया भर के फेसबुक यूजर्स की संख्या को आपस में जोड़ लिया जाए तो दुनिया की तीसरी सबसे अधिक आबादी वाला देश हमारे सामने खड़ा होगा। अब जबकि आबादी की 50 प्रतिशत हिस्सा 30 से कम उम्र का है, फेसबुक स्टेटस सिंबल बन चुका है। आधुनिक बाजार का 93 प्रतिशत हिस्सा सोशल नेटवर्किंग साइट्स का इस्तेमाल करता है। भारतीय युवा तो इस नए नटखट खिलौने के ऐसे दीवाने हो गए हैं कि भारत दुनिया का चौथा सबसे अधिक फेसबुक का इस्तेमाल करने वाला देश बन गया है।

कोलंबिया यूनिवर्सिटी से आए श्री श्रीनिवासन हाल ही में दिल्ली के अमरीकन सेंटर में सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर खूब खुलकर बोले। देश के कुछ बड़े कालेजों के छात्रों के बीच उनकी कही बातें फेसबुक के बड़े होते कद को बार-बार साबित करती चली गईँ। एकबारगी तो ऐसा लगा कि जैसे फेसबुक का पीआर ही हो रहा हो। यहां पारंपरिक साधनों का कोई जिक्र नहीं था। यहां फेसबुक एक ऐसे राजा की तरह उभरा जो प्रजा भी खुद है और शहंशाह भी।

छात्रों से भरे इस हाल में एक टिप्पणी ऐसी थी जिसने चौंका दिया। एक युवक ने कहा कि फेसबुक को अब बड़ी उम्र के लोग यानी 35 पार वाले भी इस्तेमाल करते हैं। यानी छात्रों को यह मुगालता है कि फेसबुक शायद सिर्फ उन्हीं के लिए ईजाद किया गया और दूसरे 35 से पार वाले लोग बुजुर्ग हैं। यह संकेत एक ऐसे माहौल के तैयार होने का है जहां मुस्कुराहट भले ही हो पर यथार्थ और गरमाहट यहां से नदारद है।

फेसबुक जिस आपसी जुड़ाव की कथित जमीन को तैयार कर रहा है, यह उसके खोखलेपन का एक बड़ा सुबूत है। उन्हें फेसबुक की यह दीवानगी उपजी कहां से है और क्यों है। असल में फेसबुक युवाओं के अंदर फैले उस खालीपन को दूर करने का रास्ता है जिसे वे किसी अंधेरी सुरंग में छिपाए रहते हैं। लेकिन यहां एक बात और सोचने की है। हर नई चीज को सिर्फ युवाओं से ही क्यों जोड़ा जाए। क्या फेसबुक सिर्फ युवाओं की ही जरूरत है। नहीं। बड़ी तादाद में बुजुर्ग इस फेसबुक से जुड़ने लगे हैं ( और यहां बुजुर्गों से आशय 70 पार के लोगों से है) और उनका जुड़ना भावनात्मक स्तर पर ज्यादा निश्छल है। यहां किसी इम्प्रैस करने के लिए फेसबुकपना नहीं किया जाता। यहां अपनों की तलाश की जाती है, पोते-पोतियों को भूली-बिसरी लोरियां याद दिलायी जाती हैं और उनसे उनके हाल की खोज-खबर कर झुर्रियों से भरे चेहरों पर मुस्कान लाने की कोशिश की जाती है। रिश्तेदार जो अक्सर रविवार की शामों को जमा हो कर गली-मोहल्लों-स्कूलों की पुरानी बातें यादें किया करते थे, वे भी अब इसी फेसबुक पर जमा होकर कागजी धमाचौकड़ी कर लेतें हैं और खुशियां बांट लेते हैं। यह एक बड़ी बात है। अकेलेपन को भोगते बुजुर्गों के लिए यह फेसबुक सपनों का उड़नखटोला बन कर आया है। उम्र के इस पड़ाव पर अपने पुराने दोस्तों को ढूंढने के लिए अब उन्हें बेवजह ही व्यस्त दिखते अपने बेटों के आगे चिरौरी नहीं करनी पड़ती। वे खुद जब चाहें अपनी पुरानी जड़ों को तलाश सकते हैं और अपने बुढ़ापे में कुछ रौशनियां भर सकते हैं।

एक बात और ख्याल आती है। अमरीका जोर-शोर से फेसबुक की बात करता रहा है। हम भारत में रहकर भी कभी भी अपने पारंपरिक संचार माध्यमों का वैसा प्रचार कर ही नहीं पाए। भारतीय रेल के एक बड़े अधिकारी अरविंद कुमार सिंह सालों साल डाकिए पर शोध करते रहे हैं और इस पर उनकी लिखी किताब देश की सबसे अनूठी किताब है पर उसका ऐसा प्रचार कभी नहीं हुआ। डाक के डिब्बे और डाकिए के हाथों से मिलती एक चिट्ठी जिंदगी में कैसे रंग भरा करती थी, इस पर भारत सरकार कभी फख्र से झंडे गाढ़ नहीं पाई। पातियों के वे भीगे-महकते दिन अब शायद कभी लौटें। कबूतर भी शायद कुछ सालों में गुप्त संदेश ले जाने के रास्ते भूल जाएं लेकिन अमरीका याद रखेगा कि फेसबुक और बाकी दूसरे संचार माध्यमों को अधिकाधिक पापुलर कैसे बनाना है। हम सोचते ही रह जाते हैं और बिग ब्रदर हमेशा एक लंबी छलांग भर कर आगे निकल जाता है।

(यह लेख 1 अगस्त, 2011 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

4 comments:

राजेश उत्‍साही said...

सच शायद यही है कि या तो फेसबुक युवाओं के काम का है या फिर काम से फुरसत पा चुके उम्रदराज लोगों के लिए है। हम जैसे कामकाजी या कहूं कि काम में फंसे और धंसे लोगों के लिए फेसबुक केवल समय की बरबादी ही लगती है। फेसबुक पर मेरा खाता तो है, पर मैं महीने दो महीने में एकाध बार ही उसे खोलता हूं।

गंगा सहाय मीणा said...

जरूरी मुद्दे पर जरूरी दखल. आज सुबह ही पढा 'दैनिक भास्‍कर' में. शु्क्रिया.

rajiv said...

arre wah aapne to man ki baat kah dee. Ham aapse baat ker pa rahe hain ye facebook ke karan hi smbhav hai...lekin facebook ke bahuroopiyon se dar bhi lagata hai...

Gagan Deep Mittal said...

आपने जो लिखा फेसबुक के बारे में है तो वो काबिले तारीफ मुझे बहुत पसंद आया, फेसबुक एक दुसरे से मेल मिलाप बनाये रखने के लिए बड़ी अच्छी नेटवर्किंग है अपने कहा की उम्र के ५० परसेंट लोग फेसबुक पर है पर अपने इसका अंदाज़ा लगाया की फेबूक का अगर फायेदा है तो नुकसान बी कितना है, पचास परसेंट में से आधे तो फेक अकाउंट वाले होंगे जो लड़किओं को तंग करते होंगे , अगर फेक अकाउंट का सिनसिला इसी तरह जरी रहा तो लड़कियन तो फेसबुक उसे करना सहोद देंगी अगर लड़कियों ने फेसबुक इस्तेमाल करना बंद कर दिया तो लड़के बी फेसबुक चलाना बंद कर देंगे एस लिए जरूरत है की फेक अकाउंट बनाने वालों को रोकने के लिए कोई ठोस कदम उठाया जाये फेसबुक में इसी तकनीक लायी जाये की अकाउंट खोलने वालों की पकी वेरिफिकेशन हो , अगर एसा हो गया तो फेसबुक को हर एक इस्तेमाल करने लग जायेगा , हाँ पता क्या होता है पहले लड़का फेक अकाउंट बनाकर लड़की से बात करता है और बाद में गलत वर्ड्स इस्तेमाल करने लग जाता है, लड़की दुखी होकर फेसबुक इस्तेमाल करना बंद कर देती है