Nov 9, 2011

तीन बहनें

कल जब तुम इस अंगने में लौट के आना, तुम हमें न पाना – आत्महत्या करने से पहले तीनों युवा बहनें अपने घर के आंगन में फुदक रही गौरेया से यही कहती हैं। 1988 की फरवरी में कानपुर की तीन बहनें अपने घर में आत्महत्या कर लेतीं हैं। पढ़ी-लिखी, समझदार, सुंदर तीन लड़कियां खुद को फांसी पर इसलिए लटका लेती हैं कि उनके पिता के पास उन्हें देने के लिए दहेज नहीं।

फिल्म 6 घंटे के घटनाक्रम पर चलती है कि कैसे तीनों बहनों कई उलझनों से जूझती हैं और एक मोड़ पर तो आत्महत्या करने का इरादा ही त्याग देती हैं। लेकिन सामाजिक दबाव, डर और खुद में आत्मविश्वास की गहरी कमी उन्हें जीने नहीं देती। वह यह तो जानती हैं कि बेटी का बाप होना कठिन होता है पर यह भी कहती हैं कि यह मुश्किल बेटी होने से बड़ी नहीं। दहेज की वजह से शादी न हो पाने का दंश आखिर में उनकी बलि चढ़ा ही देता है। पर मरते-मरते भी लड़कियां अपनी जिम्मेदारियां पूरी करके ही जाती हैं। वे बर्तन साफ करती हैं, कपड़े धोती हैं और फिर अपना आखिरी खत लिखती हैं।

और उसके बाद मर ही गईं तीनों बहनें। पीछे छूट गए उनके मां-बाप और दो भाई। भाई जो परिवार की शायद पहली प्राथमिकता थे और आखिरी भी।

88 से आज के भारत ने एक लंबा सफर तय कर लिया है। आप कह सकते हैं हदेज तो अब बीते समय की बात हो वाला है पर ऐसा नहीं है, न ही ऐसा हो सकता है। दहेज लेने के तरीके और लड़की को मारकर बचने के अंदाज अब बदल गए हैं पर मूल समस्या नहीं। समाज आज भी साथ नहीं देता। समाज सुनता है, देखता है पर जुटता मौत के अगले दिन ही है।

दिल्ली में कुंदन शाह की इस फिल्म की विशेष स्क्रीनिंक के समय फिल्म के प्रमुख सहयोगी शेखर हट्टंगड़ी मौजूद थे। फिल्म के एक दृश्य में जब तीनों में से एक बहन कहती है कि बरसों से इस घर का मौसम नहीं बदला है तो लगता है कि जैसे बरसों से हिंदुस्तान का मौसम भी नहीं बदला है।

इन तीन बहनों के दो भाई थे। घटना के समय मां-बाप उन दोनों के साथ कानपुर से बाहर एक शादी में शरीक होने गए थे। वे जब लौटे होंगे तो अपनी तीनों बेटियों को फंदे पर लटका हुआ पाकर बहुत रोये होंगे। वो परिवार आज भी कानपुर में रहता है। भाइयों की शादी हो गई होगी। मां-बाप जाने किस हाल में होंगे पर इतना जरूर है कि वे शायद आज भी इस बात से अज्ञान होंगे कि उस आत्महत्या ने देश की कमजोर पड़ती नींव पर कैसे प्रहार किया था। दहेज शादी के रास्ते में एक रूकावट हो सकती है जिसे छिटका जा सकता है पर जिंदगी को छिटकना क्या जरूरी है।।।।

हिंदुस्तानी लड़कियों के लिए मौसम आज भी पूरी तरह से नहीं बदला है पर एक बात जरूर बदली है। लड़कियों की हिम्मत बदली है, कोशिश करने का जज्बा बदला है, सोच बदली है। वे मरने से पहले भी संघर्ष की एक आखिरी कोशिश करने लगी हैं। शादी का एक कमसिन उम्र में होना कोई अनिवार्यता नहीं रहा बल्कि शादी का होना भी अब कोई अनिवार्य बात नहीं। एक संस्था के रूप में शादी को लेकर सोच का दायरा काफी वृहद हुआ है। शादी अब जिंदगी का हिस्सा है पर उसे आक्सीजन मानने वाले अब कम ही हैं। शादी को लेकर मान्यताओं और सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है। कानून भी पहले के मुकाबले थोड़ा मजबूत ही हुआ है।

बहरहाल, इस वजह से फिल्म एक पुराने ढर्रे पर बनी जरूर लगी, खास तौर पर 2011 के इस दौर में। पर तब भी यह जरूर है कि सिनेमा के तौर पर फिल्म ने सच की परतों को उधेड़ा।

हां, ऐसी फिल्में आंखें को नम कर जाती हैं लेकिन कई बार आत्मा को भी। जिस देश का मौसम बरसों एक जैसा रहा हो, वहां फिल्म, साहित्य, कला मौसम के रूख को बदलने के लिए कुछ हद तक मजबूर भी कर सकता है। इन समस्याओं का हल सरकारी नहीं, सामाजिक ही हो सकता है। आपसी समझ और साथ के बिना कुछ संभव नहीं। इस सुरंग में रौशनी उसी छोर से आ सकती है।

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