महिला अपराध पर देश का पहला कविता संग्रह
समर्पण
अपराध से छिलती
फिर भी
उम्मीद की लालटेन थामे
हर औरत के लिए
यह पहला मौका है जब एक अपराध पत्रकार ने अपराध पर ही कविताएं लिखी हैं। एनडीटीवी में बरसों अपराध बीट की प्रमुखता और बाद में बलात्कार पर पीएचडी ने अपराध एक अलहदा संवेदनशीलता से देखने की ताकत दी। इसलिए इन कविताओं को संवेदना के अलावा यथार्थ के चश्मे से भी देखना होगा।
मेरे लिए औरत टीले पर तिनके जोड़ती और मार्मिक संगीत रचती एक गुलाबी सृष्टि है और सबसे बड़ी त्रासदी भी। वह चूल्हे पर चांद सी रोटी सेके या घुमावदार सत्ता संभाले – सबकी आंतरिक यात्राएं एक सी हैं।
इस ग्रह के हर हिस्से में औरत किसी न किसी अपराध की शिकार होती ही है। ज्यादा बड़ा अपराध घर के भीतर का जो अमूमन खबर की आंख से अछूता रहता है। यह कविताएं उसी देहरी के अंदर की कहानी सुनाती हैं। यहां मीडिया, पुलिस, कानून और समाज मूक है। वो उसके मारे जाने का इंतजार करता है और उसके बाद भी कभी-कभार ही क्रियाशील होता है।
हां, मेरी कविता की औरत थक चुकी है पर विश्वास का एक दीया अब भी टिमटिमा रहा है। दुख के विराट मरूस्थल बनाकर देते पुरूष को स्त्री का इससे बड़ा जवाब क्या होगा कि मारे जाने की तमाम कोशिशों के बावजूद वह मुस्कुरा कर कह दे - थी. हूं.. रहूंगी...।
समर्पण
अपराध से छिलती
फिर भी
उम्मीद की लालटेन थामे
हर औरत के लिए
यह पहला मौका है जब एक अपराध पत्रकार ने अपराध पर ही कविताएं लिखी हैं। एनडीटीवी में बरसों अपराध बीट की प्रमुखता और बाद में बलात्कार पर पीएचडी ने अपराध एक अलहदा संवेदनशीलता से देखने की ताकत दी। इसलिए इन कविताओं को संवेदना के अलावा यथार्थ के चश्मे से भी देखना होगा।
मेरे लिए औरत टीले पर तिनके जोड़ती और मार्मिक संगीत रचती एक गुलाबी सृष्टि है और सबसे बड़ी त्रासदी भी। वह चूल्हे पर चांद सी रोटी सेके या घुमावदार सत्ता संभाले – सबकी आंतरिक यात्राएं एक सी हैं।
इस ग्रह के हर हिस्से में औरत किसी न किसी अपराध की शिकार होती ही है। ज्यादा बड़ा अपराध घर के भीतर का जो अमूमन खबर की आंख से अछूता रहता है। यह कविताएं उसी देहरी के अंदर की कहानी सुनाती हैं। यहां मीडिया, पुलिस, कानून और समाज मूक है। वो उसके मारे जाने का इंतजार करता है और उसके बाद भी कभी-कभार ही क्रियाशील होता है।
हां, मेरी कविता की औरत थक चुकी है पर विश्वास का एक दीया अब भी टिमटिमा रहा है। दुख के विराट मरूस्थल बनाकर देते पुरूष को स्त्री का इससे बड़ा जवाब क्या होगा कि मारे जाने की तमाम कोशिशों के बावजूद वह मुस्कुरा कर कह दे - थी. हूं.. रहूंगी...।
9 comments:
थी.. हूं.. रहूंगी.. खूबसूरत कवर और बेहद सटीक शीर्षक; आधुनिक स्त्री के उस आत्मविश्वास की निशानदेही करते हुए जो तमाम विषमताओं के बावजूद उसे रुकने नहीं देता। मैं आपकी कविताओं का पुराना पाठक और प्रशंसक हूं, जिनमें आधुनिक स्त्री की दुनिया, मनःस्थिति और निरंतर जारी उसके संघर्ष की गहन अभिव्यक्ति को प्रामाणिक स्वर मिला है।
सहज, सरल, देशज शब्दों से युक्त, आधुनिक अवधारणाओं के साथ तालमेल बिठाने वाली वर्तिका नंदा की कविता सिर्फ पढ़ने के लिए ही नहीं, सोचने के लिए भी है। अपनी सहजता के बीच ही वह झकझोरती है, व्यथित करती है और विवश करती है उन हालात से गुजरने के लिए जिन्हें स्त्री पल-पल जीती आई है।
स्त्री की वह नाराजगी, उसके उलाहने, शिकायतें और विद्रोह जो वर्तिका नंदा की पंक्तियों में उभरता है, वह सिर्फ आधी दुनिया के सरोकारों की अभिव्यक्ति नहीं है, हमारे सोच पर असर डालने वाली चीज़ है। एक और सार्थक-सामयिक कृति के लिए बहुत बहुत बधाई और शुभ कामनाएँ।
वर्तिका जी बहुत बहुत बधाई ! पुस्तक पढ़ने की इच्छा बलवती हो उठी है। विश्व पुस्तक मेले में तो मिलेगी ही… ज़रूर पढ़ूंगा !
जाहिर है अपराध कविता अपराध कथा जैसी सनसनीखेज नहीं होगी. आगरा में सुनी कविताओं के आधार पर कह सकता हूँ कि यह काफी बेहतर संग्रह होगा.
sab se pahle to me vartika ji apni badhai dena chahuga ki woh tamam karyo ke babjood itna samay likhne ke liye nikal leti hay,yah vakai bada sukhad hay.aap ki kavitay shuru se janmans ka pratinidhitav karti rahi hay, muje badi kushi hoti hay jab aap choti choti bato me se arath khoj lati hay.aap issi tarah apna kam karti rahe,aur aam admi ki awaj banti rahe.ek bar fir aap ko shubhkamnay.
lalitya lalit.
थी.हूँ..रहूँगी... शीर्षक ही नारी की अस्मिता और उसके स्वाभिमान का परिचायक है. तुम चाहे मेरे अस्तित्व को नकारो, चाहे उदासीनता बरतो, चाहे मुझे स्वयं से कमतर समझो...पर मैं हमेशा से थी.हूँ.. और रहूँगी...
इस संग्रह की कुछ कविताएँ मैंने सुनी हैं. सदियों से शोषण का शिकार होती आई नारी अब इक्कीसवीं सदी में जागरूक हो चुकी है. वह स्वयं पर अत्याचार होते देख केवल आँसू बहाना ही अपनी नियति नहीं समझती है, वह समाज के तथाकथित ठेकेदारों से अपने एक-एक घाव का हिसाब मांगती है, उन्हें कठघरे में खड़ा करने का साहस दिखाती है. वर्तिका नंदा की लेखनी ने इस नारी की मुखरता को जीवंत किया, उसे एक पहचान दी, उसकी पहचान को दुनिया के सामने लाने का बीड़ा उठाया.
एक क्राइम रिपोर्टर के तौर पर अपराध की घिनावनी दुनिया को क़रीब से देख चुकीं वर्तिका केवल एक मूक दर्शक बन कर नहीं रह पाईं. उन्होंने शोषित महिलाओं के दर्द को अपनी क़लम के ज़रिए कागज़ पर उकेरा और अपने पाठकों को कुछ सोचने पर मजबूर किया.
इन कविताओं का प्रभाव यदि हमें अपने आसपास के वातावरण में कुछ बदलाव लाने, कहीं कुछ संवेदना बरतने को प्रेरित करेगा तो यही इस संग्रह का सबसे बड़ा योगदान होगा.
और मुझे विश्वास है कि वर्तिका का यह प्रयास व्यर्थ नहीं जाएगा.
मेरी शुभकामनाएँ!
सलमा ज़ैदी,
पूर्व संपादक,
बीबीसी हिंदी डॉट कॉम
thi..hun..rahungee..shirshak se hi pata chalta hai ki kaviyatri vartika nanda ne ek tarah se elan kar diya hai ve na sirf bite kal ki aur na aane wale kalki..balki vartman ki bhi kaviyatree hain.samay ke sath chalne ki unki koshshis hi batati hain..ve sansar ke un sbhi konon me ja rahi hain jahan aaj bhi andhera chaya hua hai..maujuda kavy sangrah me shamil kavitayen to unko bhartiy sahity me sabhi kaviyon se esliye alag karte hain ki unhone apnee kavitaon ko un baaton par kendrit kiya hai..jahan kisi ke najar nahi jatee.. vartika kewal parampra ko nibhane walee kavyatree nahin hain..balki parampra me apnee or se bhi kuch naya jor rahi hain..yah unki n sirf viseshtaon ko ujagar banati hai,,balki kaljayee kavitaon kee katar me bhi khari karti hain..mubarak vartika jee.
किताब अभी पढी नहीं है, लेकिन शीर्षक और आवरण इसके Content की कहानी कह रहे हैं. वर्तिका जी का महिला अपराध के क्षेत्र में लंबा अनुभव (रिपोर्टर और शोधार्थी के रूप में) और उनकी पिछली किताब 'मरजानी' भी इसके कलेवर की पूर्वसूचना दे रही हैं. 'थी.हूं..रहूंगी...' पुरुष वर्चस्व के खिलाफ स्त्री की अदम्य जिजीविषा का उद्घोष है. आज जब समाज के वंचित तबकों (स्त्री, दलित, आदिवासी, पिछडों) की आवाज साहित्य और विमर्श में हाशिए से मुख्यधारा पर आ रही है, तब महिला अपराध पर पहला कविता संग्रह आना स्त्रियों के मुक्तिकामी आंदोलन को धार देने का ही काम करेगा. वर्तिका जी को इसके लिए बधाई और धन्यवाद.
वर्तिका जी बहुत बहुत बधाई ! इस संग्रह की कुछ कविताएँ मैंने सुनी हैं.
I am very sure that you have put up the mark on the society with your particular book and indeed, its going to give us all a new view towards the feminism.
Women's effort and struggle are not going unnoticed, you have proved that with your exceptional write.
I am trying to get the book and read it as a whole.
Shubkamnao ke saath,
Ritu Roy
ritu@shayeri.net
Aaapko bahut bahut badhai Vartikaji.
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