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Oct 13, 2023

पुस्तक: थी. हूं..रहूंगी : दैनिक पूर्वोदय में समीक्षा: 2023

पुस्तक: थी. हूं..रहूंगी

लेखिका: वर्तिका नन्दा

अखबार: दैनिक पूर्वोदय

समीक्षा : अंशु सारडा 'अन्वी'

शीर्षक: कई टूटने के बाद भी लिखा जाता है अनूठा अध्याय

दिनांक: 8 अक्तूबर, 2023

Link: https://newstrack.com/opinion/crime-against-women-focused-poems-book-gives-a-bitter-taste-of-crimes-401745

Website: Thee. Hoon.. Rahungi… – Vartika Nanda 





Apr 17, 2022

Podcast on stories of struggle, love and success: 'Thee. Hoon .. Rahungi…' by Vartika Nanda: थी.हूं..रहूंगी...

Vartika Nanda starts a new podcast on stories of struggle, love and success: 'Thee. Hoon .. Rahungi…' 

A podcast titled - Thee. Hoon..Rahungi…(I was, I am, I will be) based on real life stories of  struggle, love and success has been launched  by prison reformer and media educator, Dr. Vartika Nanda.

Thee. Hoon..Rahungi… was the title of the book written by Vartika Nanda. It was  published by Rajkamal Prakashan in 2012  This anthology was highly appreciated among readers and literary critics.  The book was also awarded  'Rituraj Parampara Samman' and  'Dr. Radhakrishnan Award'.  

Ten years later, a new series of stories with the same title will commence narrating the tales of life. All the stories will be based on true events.


Tinka Tinka Jail Radio and Kissa Khaki Ka

Two podcasts started by Vartika Nanda have been in the news for quite some time now. 'Tinka Tinka Jail Radio' is the first such podcast based on jails,which narrates  and documents stories from prisons to the outside world. This is the only podcast in India that is dedicated to real stories from prisons. This is among the several initiatives of Tinka Tinka movement launched by Dr. Vartika Nanda. Tinka's Prison Radio Podcast series is available on all major streaming platforms, including YouTube, Spotify and Google Podcasts and has opened new avenues for the inmates in showcasing their creative talent to the world at large. 

The second podcast, Kissa Khaki Ka, is a joint creation of Delhi Police and Vartika Nanda, describing the tales of police officials who are going the extra mile beyond their call of duty to contribute to the society. These are stories of crime, investigation and humanity. This is an initiative by Shri Rakesh Asthana, Delhi Police Commissioner, released every Sunday at 2 pm on the official social media platforms of Delhi Police.


Duration

'Thee. Hoon.. Rahungi…' will be aired on YouTube channel 'Vartika Nanda' with mini-podcast episodes of about 3 minutes each. 


Tinka Jail Radio Podcast

The flagship podcast series conceived and hosted by Dr. Vartika Nanda, founder of Tinka Tinka Foundation, has been dedicated to prison voices especially in Uttar Pradesh and Haryana.   

The podcast series, consisting of 35 episodes, has been appreciated by the jail staff and the common audience alike for providing jail inmates a platform to feature as RJs and singers on social media platforms. 


About Tinka Tinka Foundation and Dr. Vartika Nanda

Haryana Jail Radio is the brainchild of Dr. Vartika Nanda, founder of Tinka Tinka Foundation. Dr.  Nanda heads the Department of Journalism at Lady Shri Ram College, University of Delhi. She has been honored with the Stree Shakti Award from the President of India in 2014. Her work on prisons has twice found a place in the Limca Book of Records

Previously, the Foundation had started Jail Radio in District Jail, Agra in 2019. The growth of prison radios in Haryana are part of an ongoing study on the Tinka Tinka Model of Prison Reforms. They have created an umbrella with the tagline- Creating rainbows in prisons. Every year, the Tinka Tinka Foundation also encourages inmates and jail staff by conferring exclusive Tinka Tinka India Awards.

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2022: 17 अप्रैल:   एक कविता संग्रह के तौर पर थी.हूं..रहूंगी...2012 में राजकमल ने प्रकाशित की। किताब खूब चर्चित हुई। आज 2022 में, ठीक 10 साल बाद, थी.हूं..रहूंगी...एक नए रूप में आपके सामने है।  कवर में दिखतीं अपनी ओढ़नी से सिसकियों को सोख चुकी यह औरतें समय का सच हैं। तिनका तिनका बरसों से अपराध के अलग-अलग रंगों को करीब से देख रहा है। अब यह रंग एक नए आकार में आवाज में तब्दील होने जा रहे हैं। 

थी. हूं..रहूंगी...में हर बार सुनिए जिंदगी के सच को कहती कोई नई कहानी- मेरे -यानी वर्तिका नन्दा के साथ। 

आपकी जिंदगी की कोई कहानी हो और आप  चाहें कि मैं उन्हें कहूं, तो बताइएगा। 


Link: थीहूं..रहूंगी..Podcast Vartika Nanda वर्तिका नन्दा - YouTube

Mar 11, 2013

थी.हूं..रहूंगी...


ज़ुबां बंद है

पलकें भीगीं
सच मुट्ठी में
पढ़ा आसमान ने

मैं अपने पंख खुद बनूंगी

हांमैं थी. हूं..रहूंगी..







पानी-पानी
इन दिनों पानी को शर्म आने लगी है
इतना शर्मसार वो पहले कभी हुआ न था
अब समझा वो पानी-पानी होना होता क्या है
और घाट-घाट का पानी पीना भी 

वो तो समझ गया
समझ के सिमट गया
उसकी आंखों में पानी भी उतर गया
जो न समझे अब भी
तो उसमें क्या करे
बेचारा पानी 

निर्भया
औरत होना मुश्किल है या चुप रहना
जीना या किसी तरह बस, जी लेना
शब्दों के टीलों के नीचे
छिपा देना उस बस पर चिपकी चीखें, कराहें, बेबसी, क्ररता, छीलता अट्टाहास
उन पोस्टरों को भींच लेना मुट्ठी में
जिन पर लिखा था हम सब बराबर हैं

पानी के उफान में                    
छिपा लेना आंसू
फिर भरपूर मुस्कुरा लेना
और सूरज से कह देना
मेरे उजास से कम है वो

कैलास की यात्रा में
कुरान की आयतें पढ़ लेना
इतने सामान के साथ
साल दर साल कैलेंडर के पन्ने बदलते रहना

कागजों के पुलिंदे में
भावनाओं की रद्दी
थैले में भरी तमाम भद्दी गालियां
और सीने पर चिपकी वो लाल बिंदी
और सामने खड़ा - मीडिया 

इस सारी बेरंगी में
दीवार में चिनवाई पिघली मेहंदी
रिसता हुआ पुराना मानचित्र
बस के पहिए के नीचे दबे मन के मनके और उसके मंजीरे
ये सब दुबक कर खुद को लगते हैं देखने... 

इतना सब होता रहे
और तब भी कह ही देना कि
वो एक खुशी थी
किसी का काजल, गजरा और खुशबू
नाम था - निर्भया

Jun 5, 2012

कविता में इन दिनों- -ओम निश्‍चल

स्‍त्री  की  सत्‍ता  को लेकर  अरसे  से  कविताऍं  लिखी जा  रही  हैं।  वर्तिका  नंदा ने  स्‍त्री  अपराध पर अपनी  कविताओं  को  एकाग्र किया  है।  पर सच  कहा  जाए तो वर्तिका  उन समस्‍त परिस्‍थितियों पर  निगाह  डालती हैं जो स्‍त्री के  लिए  एक  कड़वे  रसायन का पर्याय बन  जाती  हैं। कवयत्रियों के बीच वर्तिका  नंदा को इन दिनों बेहद उत्‍सुकता से पढ़ा जा रहा है। लेखनी में माह की कवियत्री की तरह प्रस्‍तुत सभी कविताऍं उनके हाल के संग्रह 'थी हॅूं  रहूँगी' से ली गयी हैं। प्रस्तुत है उसी पुस्तक पर एक नज़र -



थी हूँ रहूँगी
वर्तिका नंदा
राजकमल प्रकाशन,
1 बी, नेताजी सुभाष मार्ग
दरियागंज , नई दिल्‍ली
मूल्‍य: 250 रुपये।


कुछ अरसे से कवियों की जमात में शामिल वर्तिका नंदा की कविताऍं यदा कदा पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलती रही हैं। पेशे से पत्रकारिता से जुड़ी वर्तिका की ऑंखों ने जो कुछ देखा-सुना है, वह उनके लेखन में उतरा है। वे स्‍तंभ लिखती रही हों, या कविताऍं, उनका ताना बाना आम जिन्‍दगी को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर केंद्रित रहा है। अरसे से होते चले आ रहे स्‍त्री विमर्श के बीच उन्‍होंने महिला अपराध पर केंद्रित कविताओं की एक पूरी पुस्‍तक  थी हूँ रहूँगीही प्रकाशित की है जिसमें उन्‍होंने जमाने से सताई जाती स्‍त्री को अपराध के आईने में देखने की कोशिश की है। हालॉंकि ये कविताऍं अपने परिभाषित दायरे का अतिक्रमण भी करती हैं।

एक एक शब्‍द सूत की तरह कातता है कवि तब कहीं जाकर चित्‍त को जँचने वाला परिधान बन पाता है। वर्तिका के सुकोमल कवि-चित्‍त पर यथार्थ की जो खरोचें पड़ी हैं, उन्‍हें उन्‍होंने कतरा कतरा सहेजा है। मैं समझता हूँ स्‍त्री विमर्श के कोलाहल और कलरव के बीच इन कविताओं की अपनी जगह होगी। हमें पता है कि वे जिन सच्‍चाइयों से रू बरू होती हैं, लोग नहीं होते। वे कैमरे का सच देखते हैं। कैमरे के नेपथ्‍य की करुणा और ध्‍वंस का सच कवि की ऑंखें देखती हैं। खबर कविता नही होती। वह महज एक बाइट होती है। कविता न्‍यूज स्‍टोरी की तरह क्षणभंगुर नहीं होती, वह हमारी चेतना की भित्‍ति पर एक अमिट छाप छोड़ जाती है। इतने दिनों की पत्रिकारिता के बीच की दबी छुपी चीख जब कविता में उतरती है तो उसका रंग बदल चुका होता है।हम उन्‍हीं रंगों से मुतस्‍सिर होते हैं जो कविता की अपनी अस्‍थि मज्‍जा में रच बस कर तैयार होते हैं। वर्तिका की कविताओं में यथार्थ के ऐसे ही रंग हैं।

थी हूँ रहूँगीपढ़ते हुए एक कविता  कुछ जिन्‍दगियॉ कभी सोती नहींपर दीठ ठहर गयी। कविता अपने आप कहती है, उसे किसी की बॉंह गहने की जरूरत नहीं होती। यह जीवन संसार का एक ऐसा अलक्षित कोना है जहॉं कवयित्री की निगाह गयी है। यह कोना ऐसी स्‍त्रियों का है जिनकी नींदें अरसे से उड़ी हुई हैं। वे सोती हुई रातों में भी जागने को विवश हैं जैसे ऊँघती रातों में भी जागती हुई सड़कें। स्‍त्री और सड़क का यह साझा दुख कवयित्री को सालता है। देखें यह पूरी कविता:

कुछ शहर कभी नही सोते
जैसे कुछ जिन्‍दगियॉं कभी सोती नहीं
जैसे सड़कें जागती हैं तमाम ऊँघती हुई रातों में भी
कुछ सपने भी कभी सोते नहीं
वे चलते हैं
अपने बनाए पैरों से
बिना घुँघुरुओं के छनकते हैं वे
भरते हैं कितने ही ऑंगन

कुछ सुबहों का भी कभी अंत नहीं होता
आंतरिक सुख के खिले फूलदान में
मुरझाती नहीं वहॉं कोई किरण

इतनी जिन्‍दा सच्‍चाइयों के बीच
खुद को पाना जिन्‍दा, अंकुरित,सलामत
कोई मजाक है क्‍या।

स्‍त्री पर लिखने वाले बहुतेरे हैं। गगन गिल की कविताऍं हों या अनीता वर्मा की, सविता सिंह की हों या अनामिका की, उदासियों का संसार यहाँ काफी गुलजार है। कहीं कहीं थोड़ी रुनझुन निर्मला गर्ग और अनामिका के यहॉं मिलती है पर कुल मिला कर जो स्‍त्रियॉं कविताऍं लिख रही हैं, उनसे बनने वाली स्‍त्री-समाज की तस्‍वीर निराश करने वाली है। सदियों से पुरुष वर्चस्‍व के बीच सॉंस लेती, समझौता करती, घर गिरस्‍ती सँभालती स्‍त्री को वह क्षितिज कहॉं मिल सका जहॉं वह पूरी तसल्‍ली से एक पल की भी विश्रांति पा सके। शहरी स्‍त्रियॉं हों, या ग्रामीण, वे सुबह होते ही काम में जुत जाती हैं। तालीम और अवसर के तमाम सँकरे रास्‍तों से गुजरती अपनी शख्‍सियत की बेहतरी के लिए संघर्ष करती स्‍त्रियों की संख्‍या आज भी कितनी कम है। आज भी वे अपने सपने खुद नहीं देखतीं। उन्‍हें शायद इसका अधिकार भी नहीं। ऐसे हालात में वर्तिका के भीतर की समव्‍यथी कवयित्री स्‍त्री अपराध पर समाचार बाइट बटोरते हुए कब कविता की गलियों में बिलम गयी, नहीं मालूम। हॉं, वे भूमिका में लिखती हैं: कविताऍं हमेशा मन के करीब रहीं, साथ साथ चलीं, ओढ़नी बनीं और तकिया भी।...अपराध पर रोज की रिपोर्टिंग के बीच आत्‍मा भी रोज उधड़ती जाती।सच कहें तो इन कविताओं में आत्‍मा की सींवनें उधड़ी हुई ही दिखती हैं।

अचरज नहीं, कि हर वक्‍त भूमंडल में स्‍त्रियों पर तरह तरह के अत्‍याचार आजमाए जा रहे हैं। सारी गालियॉ स्‍त्रियों के नाम पर हैं, कहीं छल से, कहीं बल से, कहीं धर्म से, कहीं अंधविश्‍वास से उनके आत्‍मविश्‍वास को तोड़ने की कार्रवाई चल रही होती है। कुछ कविताएं पढ़ कर हैरानी होती है कि  किस तरह अपने आंसुओं को जमींदोज कर कवयित्री ने उन्‍हें लिखा होगा। जैसे कि निज की पीड़ा भी उनमें अनुस्‍यूत हो। संग्रह की पहली कविता नानकपुरा कुछ  नही  भूलतातो जैसे इस पूरे संग्रह के मिजाज का आधार वक्‍तव्‍य हैसताई जाने वाली स्त्रियों की पीड़ा का गोमुख। अपने ऊपर अत्‍याचारों की तहरीर के साथ नानकपुरा थाने की महिला अपराध शाखा के बाहर बैठी नाना किस्‍म के दुखों से त्रस्‍त  इन स्‍त्रियों को न तो दाम्‍पत्‍य का भरोसेमंद क्षितिज मिला, न स्‍वाभिमान से जीने का अधिकार। मरजानीएक अन्‍य कविता है जिसमें औरत की मौत किसी की संवेदना में हलचल तक नहीं पैदा करती, शोक मनाने की कौन कहे ! वर्तिका की इन कविताओं के हवाले से तो बल्‍कि यह कहा जा सकताहै कि भला कौन स्‍त्री होगी जो किसी भी तरह के अपमान, तिरस्‍कार ,लांक्षन और बेवफाई से पीड़ित न होगी। दुखों की महीन से महीन आहट को अपने सीने में समेटे स्‍त्रियों का संसार सुख के एक विश्रांति भरे पल के लिए तड़पता है। सदियों से स्‍त्री इसी खुशनुमा पल की तलाश में है। उसके दुखों की प्रजाति किस्‍म किस्‍म की है। पुरानी बिंदी के छोर पर छलक आए ऑंसुओं के कतरे हों या तकिए में छूट गयी सॉंसों की छुवन, स्‍त्री का दुख कवयित्री से अदेखा नहीं रहता। उसके सपनों ओर नेलपालिश तक में कहीं न कहीं एक अटूट रिश्‍ता है।

वह क्‍या है जिससे वंचित स्‍त्री किसी सुख के एक नन्हें से कतरे के लिए बेचैन रहती है। वह कौन है जिसके लिए उसके भीतर प्रेम का पारावार भरा होता है, वह क्‍या है जिसे टांकने के लिए वह कविताओं का आश्रय लेती है। अनामिका की एक कविता कहती है:  वह रोटी बेलती है जैसे पृथ्‍वी। वर्तिका कहती हैं: हर औरत कविता लिखती है और करती है प्रेम/ वो सेंकती है रोटी/ उसमें होता है छंद। बकौल कवयित्री उसकी कविता भले कोई छापे न छापे, वह सीधे रब के पास छपती है। ऑंसुओं की बूँदों के अनेक रूपक वर्तिका ने यहॉं  बुने  हैं। स्‍त्री के अंत:पुर की उदासियों का आख्‍यान इन कविताओं में छिपा है। वर्तिका महसूस करती हैं स्‍त्री किसी भी ओहदे पर हो, उसका मिजाज बेशक फौलादी हो, पर आखिरकार तो वह औरत ही है। वह देर से जान पाती है कि औरत और आंसू दोनों एक दूसरे के पर्याय हें। स्‍त्री अपने अतीत को भूल नही पाती,बल्‍कि उसके साथ जीवन भर सफर करती है। जबकि पुरुष का कोई अतीत नहीं केवल वर्तमान होता है। स्‍त्री के लिए घरौंदा है, सपने हैं, ऊन के गोले जैसी ख्‍वाहिशें हैं, नीड़ के निर्माण की फिर-फिर कोशिशें हैं,  क्‍या भूलूँ क्‍या  याद करूँ की कश्‍मकश है जब कि पुरुष अपने वर्चस्‍व में सब कुछ भूला हुआ होता है। स्‍त्री के मन का मानचित्र बहुत दुर्लंघ्‍य होता है। अन्‍तसकी पंक्‍तियॉं हैं:  अपने अंदर झॉंका/ तो कभी प्‍यार का एवरेस्‍ट दिखा/ कभी नफरत का आर्केटिक/ कल ही झांका तो चेरापूँजी की बारिश से भीगी/ थोड़ी देर बाद मिली सहारा की तपन।तमाम यात्राओं के बदले उसे दिल के भीतर चलने वाली यात्रा से बड़ी कोई यात्रा नहीं लगती पर वह भी तब, जब दिल में हो प्रेम, होठों पर कविता, तन में थिरकन और सांसों में कल्‍पना।

इन कविताओं में आंसुओं का नमक इतना पुरअसर है कि हर कविता जैसे स्‍त्री का शोकपत्र हो जिसका वाचन कवयित्री कर रही हो। पर हर शोक कविता बन जाए, हर ऑंसू छंद में ढल पाए जरूरी नहीं,  फिर भी इन कविताओं के तलघर में धँसने पर एक भय-सा होता है। यह जो आसपास की आबोहवा में स्‍त्रियों की खिलखिलाहटों का संसार है वह यहॉं कितना नदारद है। यहॉं तो जैसे समरभूमि में हताहत पड़े निष्‍कवच सपने हैं, ख्‍वाहिशें हैं, खिलखिलाहटें हैं---एक नीरवता जैसे यहॉं भीतर के सन्‍नाटे को रच रही हो। ऐसा तब संभव होता है जब अपना आपा कविताओं में रच बस जाए। किसी कवि ने कहा है कविताएँ ही कवि का वक्‍तव्‍य होती हैं। यहॉं कवयित्री भी कुबूल करती है ये कविताऍं नहीं, आत्‍मकथा है जिसमें उसकी ही आत्‍मा है, उसका ही कथन। इन्‍हें प्रकाशक की जरूरत नहीं।‘ ‘बहूरानीकविता में नौकरानी और मालकिन दोनो छुपाती हैं अपनी चोटों के निशान ---कहते हुए क्‍या बखूबी दर्द की निशानदेही की है कवयित्री ने। दोनों में एक सादृश्‍य है कि दोनों की ऑंखों के पोर गीले हैं। चकित है दु:ख दोनों को देख कर। यों तो और भी कविताऍं हैं यहॉं जो आत्‍मनेपद की पीड़ा से परे जाकर शादीशुदा स्‍त्री से किये जाने वाले सवालों(बेमतलब सवाल) और उपेक्षिता उर्मिला(उर्मिला) की बेकदरी पर रंज प्रकट करती हैं। फिर भी कुल मिला कर कवयित्री का यह कहना कि मै अपनी कविता खुद हूँ’---यह जताता है कि कविता कागज पर उतरे न उतरे एक मरहम का काम तो करती ही है।

इलेक्‍ट्रानिक मीडिया की अपराध बीट को कवर करने वाले सभी पत्रकार कवि नही होते। वे रिपोर्ट की आत्‍मा में धँस कर कविता की किरचें नहीं बटोरते। वे दुख को एक उत्‍पाद के रूप में पेश करने में पेशेवराना रुख अख्‍ितयार करते हैं। कविता खबर के प्रवाह में कहीं बह जाती है। वर्तिका ने रिपोर्टिंग के दौरान स्‍त्रियों की जो दुनिया देखी, जिन ऑंसुओं का साक्षात्‍कार किया, उसे अपने भीतर की स्‍त्री-संवेदना के साथ जोड़ा तो जैसे परस्‍पर साधारणीकरण का एक विलक्षण सामंजस्‍य जान पड़ा। इसीलिए उन प्रसंगों में कवयित्री ने ज्‍यादा कामयाबी पाई है जिनमें उसके अंत:करण का अपना सुख-दुख भी छलक छलक आया है। कविता कभी अपने बयान में घटित होती है, कभी अपने अहसास में, कभी भाषाई चमत्‍कार में, कभी एक नाज़ुक-से खयाल में जो साबुन के साथ बह निकलते झाग में अचानक दीख पड़ता है। कवयित्री के ही शब्‍दों में:

क्‍या वह भी कविता ही थी
जो उस दिन कपड़े धोते धोते
साबुन के साथ घुल कर बह निकली थी
एक ख्‍याल की तरह आई
ख्याल ही की तरह
धूप की आँच के सामने पिघल गई
पर बनी रही नर्म ही।                (ख्‍याल ही तो है, पृष्‍ठ 141)

कहना न होगा, ये कविताएं इसी तरह उन ख्यालों की उपज हैं जिनमें उन स्‍त्रियों की दुनिया उजागर हुई है जिनके सपने छिन गये हैं। कुनबे भर को परोसने के बाद जो उसकी थाली में आता है, वही एक मामूली स्‍त्री का सच है। ये कविताऍं हाशिए में पड़ी आधी दुनिया की उस हक़ीकत का सामना करती हैं जो मीडिया की सुदूरभेदी कैमरे से भी ओझल रह जाता है। कुँवर नारायण के एक कथन से अपनी बात कहें तो कहना होगा, दिल के दर्द को दर्ज करने वाली मशीन उस दर्द की भाषा को भला कहां समझ सकती है जिसका ताल्‍लुक सिर्फ एक आहसे होता है। इस संग्रह के नेपथ्‍य से ऐसी ही आह!की आहट आती है।