Nov 22, 2012
Nov 5, 2012
कुछ फिल्म, कुछ जिंदगी
तमाम
फिल्मी गानों के बीच
रूमानियत
प्रेम सद्भाव स्नेह ममता विछोह
हर
गीत ने हर बार अपनी जिंदगी की फिल्म ही चला दी
आसान
तो होता ही है किसी दूसरे की फिल्म को देखना
रात
में खाना खाकर
पान
के साथ उसे चबा जाना
किसी
दूसरे के आंसू, बेचारगी, विद्रूपता, षड्यंत्र
सभी
को
मजे
से पचा लेना
और
सिनेमा हाल की कुर्सी से हाथ पोंछ कर
बाहर
निकल आना
पॉपकॉर्न
के साथ हजम कर जाना
फिल्म
में दिखता अपमान, चालाकी और धूर्तता
और
अगली सुबह फिर अपने अंदर के अपराधी को जगाकर
सच
को पूजा की थाली के नीचे छिपा
दफ्तर
चले आना
फिर
चाय के साथ पकौड़ों की तरह
बात
कर लेना उस फिल्म पर
और
अखबार में पढ़ी समीक्षा और उसमे टंके सितारों पर भी
जमा
देना
अपनी
एक छोटी सी टिप्पणी
पर
दोस्त
जिंदगी
फिल्म कहां होती है
और
उसका अंत भी कहां होता है इतनी सहजता से
जिंदगी
फिल्म की पहली रील भी नहीं
जिसमें
सेंसर बोर्ड का ठप्पा लगा हो
और
न ही वह विराम
जो
पल भर के लिए बीच में चल आए कि
आप
कर सकें फिर कुछ संवाद, मतलब- बेमतलब के
और
हॉल में सिंदूर लगाए बैठी पत्नी के उस पार
गर्ल
फ्रेंड से अगले मिलन की तारीख तय कर आएं
जिंदगी
में कहां होती है 35 एमएम की रील
तीन
घंटे की फिल्म के बाद
जब
पुराने नेपकिन को फेंक आते हैं
उस
डस्टबिन में
तो
जिंदगी के बाकी बचे अंश
फिल्म
के किसी दरकते हिस्से के साथ चिपके हुए
साथ
आते तो जरूर हैं
पर
कार की खुली खिड़की,
मन
के बंद दरवाजों
और
बुने जाते सतत फंदों के बीच
वो
सारा धुंआ कहीं उड़ जाता है
मन
के पंछी को रोक कर
और
नकली संवादों को डस्टर से मिटा कर
कभी
अपनी जिंदगी पर
एक
सच्ची फिल्म बना कर देखा है क्या
बस, वही एक फिल्म होगी
जो
ब्लॉकबस्टर होगी
इस
ख्याल को
लॉक
किया जाए क्या
श्रद्धांजलि
श्रद्धांजलियां सच नहीं होतीं हमेशा
जैसे जिंदगी नहीं होती पूरी सच
तस्वीर के साथ
समय तारीख उम्र पता
यह तो सरकारी सुबूत होते ही हैं
पर
यह कौन लिखे कि
मरने वाली
मरी
या
मारी गई
श्रद्धांजलि में फिर
श्रद्धा किसकी, कैसे, कहां
पूरा जीवन वृतांत
एक सजे-सजाए घेरे में?
यात्रा के फरेब
षड्यंत्र
पठार
श्रद्धांजलि नहीं कहती
वो अखबार की नियमित घोषणा होती है
एक इश्तिहार
जिंदगी का एक बिंदु
अफसोस
श्रद्धांजलि जिसकी होती है
वो उसका लेखक नहीं होता
इसलिए श्रद्धांजलि कभी भी पूर्ण होती
नहीं
सच, न तो जिंदगी होती है पूरी
न श्रद्धांजलि
बेहतर है
जीना बिना किसी उम्मीद के
और फिर मरना भी
परिभाषित करना खुद को जब भी समय हो
और शीशे में अपने अक्स को
खुद ही पोंछ लेना
किसी ऐतिहासिक रूमाल से
प्रूफ की गलतियों, हड़बड़ियों,
आंदोलनों, राजनेताओं की घमाघम के बीच
बेहतर है
खुद ही लिख जाना
अपनी एक अदद श्रद्धांजलि
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