इस जेल में इस समय करीब
1400 बंदी हैं जबकि संख्या
1475 की है.
इस मायने में यह जेल भीड़ की समस्या से काफी हद तक बची हुई है.
वैसे यह जेल बहुत लंबे समय से चर्चा में चल रही है.
एक सलमान खान की वजह से और दूसरे आसाराम की वजह से लेकिन किसी एक बड़े नाम के आ जाने के बावजूद जेल की अपनी संस्कृति बदस्तूर बनी रहती है.
पर हां,
जेल के अंदर के भाव काफी हद तक या शायद पूरी तरह से ही इस बात पर निर्भर करते हैं कि जेल के संचालकों की रुचियां और स्वभाव कैसा है.
यही वजह है कि हर जेल के दौरे ने मुझे उस समाज,
राज्य और संचालन के अंदरूनी मन की साफ झलक दी है.
शहरों से काट कर रखी जाने वाली जेलें दरअसल उस समाज की सबसे सच्ची तस्वीर होती हैं जिसे समाज खुद से काट कर रखना चाहता है.
तीसरा बंदी मंच पर आता है तो अपना परिचय देते हुए पहली पंक्ति में कहता है-
मेरा नाम पीड़ा है.
बाकी बातों के अलावा एक पीड़ा जो मुझे है,
वह यह है कि जो बाहर से आता है,
वह बस हमारी बात सुनकर चला जाता है.
हम सभी देश के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं.
हम सबमें दिल है,
इसलिए हममें संवेदना भी है और कुछ रचने का सामर्थ्य भी.
लेकिन कोई हमें याद रखे तब तो.
राखी में हर साल कई एनजीओ जेल में आते हैं.
महिलाएं बंदियों को राखी बांधती हैं.
वे एक मुस्कुराहट के साथ तस्वीर खिंचवा कर लौट जाती हैं और लगता है कि जैसे कहानी वहीं पर खत्म हो गई.
उसकी बात में दर्द भी है और सब्र भी.
इसी जेल में मेरी मुलाकात एक भूतपूर्व मंत्री से होती है. उम्र करीब 75 साल होगी. उनके हाथ में एक कॉपी है. दो रंगों के पेन से बहुत ही सफाई से लिखा हुआ एक लंबा दस्तावेज है. उन्होंने तिनका तिनका के हर चप्पे के बारे में पढ़ा है और अपने सवालों को क्रमबद्ध तरीके से लिखा है. वो बहुत साफ अंग्रेजी में मुझसे कई सवाल पूछते हैं. उनका एक सवाल यह है कि मैंने तिनका तिनका तिहाड़ के हिंदी और अंग्रेजी के कवर तो एकदम एक जैसे रखे लेकिन मराठी में एक कबूतर को क्यों चुना. और जो आखिरी सवाल मेरी तरफ उछालते हैं, उसका जबाव देना मेरे लिए बहुत मुश्किल है. वो मुझसे पूछते हैं कि मैं किसी जेल को गोद में क्यों नहीं लेती बल्कि मैं सीधे इसी जेल को एडॉप्ट क्यों नहीं करती. इस सवाल का मेरे पास क्या जबाव हो सकता है. वे मुझे बताते हैं कि पिछले कई दिनों से अज्ञेय की किताब- शेखऱ एक जीवनी- को पढ़ने की इच्छा है लेकिन वह उन्हें अब तक नहीं मिल पाई है.
जेल में एक लाइब्रेरी है.
यहां कई किताबें हैं.
तीन बड़े ढेर एक तरफ पड़े हैं.
मुझे यह जानकर बेहद खुशी होती है कि इस लाइब्रेरी के लिए नागरी प्रचारिणी सभा ने इन किताबों को तोहफे के तौर पर भेजा है
(यह भी एक सच है कि इस साल हिंदी दिवस के सरकारी तमाशे के दौरान मैंने कुछ लोगों से जेलों में सीधे कुछ किताबें भेजने का आग्रह किया था लेकिन किसी ने मदद के लिए हाथ नहीं बढ़ाया क्योंकि जेलें समाज के एक बड़े तबके के लिए कोई अहमियत नहीं रखतीं.)
इस जेल में
70 महिलाएं हैं और
7 बच्चे.
एक बच्चा महिला सुरक्षा गार्ड से बार-बार चिपक रहा है.
मैं समझ सकती हूं कि बच्चे ने आज बहुत दिनों बाद बाहर से आए किसी इंसान को देखा है.
एक युवती मेरे पास आती है.
इसकी उम्र
24 साल है.
वो अपने चेहरे को ढंककर मेरे पास आकर खड़ी हो जाती है.
उसके हाथ में ड्राइंग की एक कॉपी है,
बिल्कुल वैसी जैसे बच्चों के पास होती है.
वो उत्साह के साथ बताती है कि वह जेल के अंदर कोशिश करती है कि अपने समय में किसी तरह से कुछ रंग भर सके.
मैं उन तस्वीरों को देखती हूं,
सराहती हूं.
आखिर में उसकी आंखों की तरफ देखती हूं तो उसकी आंखों को भीगा हुआ पाती हूं.
यही जेलों का सच है.
जेल में बहुत-
से लोग अपने रिश्तेदारों के साथ हैं.
कोई भाई के साथ.
कोई पिता के साथ.
कोई बेटे के साथ.
किसी का कोई अपराध और शायद किसी का कोई अपराध नहीं.
जेल के अंदर समय रुका हुआ है.
लौटने के समय समझ नहीं पाती कि इन महिलाओं से क्या कहूं.
मैं कहती हूं कि तुम सभी को एक दिन बाहर जाना है.
बाहर जाने के समय आने तक यहां कुछ रचना शुरू कर दो ताकि जब लौटो,
तुम्हारे साथ एक खुशी हो.
मैं इस कमरे में बनी दीवार को देखती हूं.
दीवार जेल के अंदर बनी है.
इसे कुछ कलाकारों ने करीब
5 साल पहले बनाया था और वो आज भी वैसी ही है.
मैं पूछती हूं कि क्या वे ऐसी दीवार को बना पाएंगीं?
मुझे जबाव मिलता है-
हां.
जेलों की सारी जिंदगी इसी हां और ना के बीच है.
कुछ करने और कुछ रचने के बीच.
रुकी हुई घड़ी को फिर से चलाने और समय पर फिर नई इबारत लिख लेने की जद्दोजहद के बीच.
जोधपुर की जेल से बाहर निकलते और रजिस्टर पर वापिसी की सूचना लिखते हुए लगा कि जेल के ठिठके हुए समाज की ऊर्जा दरअसल जेल के अधिकारी और स्टाफ ही बनते हैं.
यह एक परिवार है जो लगातार बदलता है.
जेलें इसी बदलाव की कहानी हैं.
पूरी तरह से कमर्शियल होते मीडिया और फिल्मों को शायद आज भी इस बात का भान नहीं है कि प्रवचनों से लदी,
नफरत से देखी जाती जेलों में वादों,
अपवादों और विवादों से परे संवेदनाएं भी बसती हैं.
जेलों की मौजूदगी इसी आध्यात्मिक दबाव को समाज पर उछालती हैं. फिलहाल जोधपुर की जेल की यह यात्रा एक कॉलम में समेट रही हूं. बहुत कुछ छूट गया है लेकिन हर बार जेलों में जो देखती हूं, उसके हर सिरे को लिख सकूं, वैसी क्षमता अभी भी मुझमें शायद है नहीं.
Courtesy – Zee News
http://zeenews.india.com/hindi/special/jodhpur-jail-diary-written-by-vartika-nanda/452765
5 comments:
There's a famous saying, if you change the way you look at things, the things you look at change. The jails are often known to be purgatory with no source of hope. Finding new hopes and giving birth to aspirations at such places thus become very important to humanity. It doesn't only gives a new vision to the inmates but all the people regardless of their social positions. #vartikananda #tinkatinka #prisonreforms #humanrights
Jails have become so developed and advanced. The insights of jodhpur jail is so warming. Vartika Ma'am has written this article with that perspective of which we can't ever think. Jails are now a place of hopes and sunlight. Things will change but that will take time. Tinka tinka movement is doing a lot ijn reforming the lives of prisoners. So good #Vartikananda #prisoners #human_rights#humanity #prisoners #human_rights #humanity#change
The words of the inmate who came to the stage are indeed very saddening. This happens not only in the case of prison inmates, but to every person who is in a deprived position in society. A person helps another person only to show in front of the society that they are helping someone. Once he takes a picture with the person who was in need of help, then he or she is no longer bothered about the other person's condition. In a prison, there will be different people with different stories. Vartika Mam has interacted with these people, payed attention to their stories and has brought some hope into their lives. It's a matter of pride for our country that we have people like Vartika Mam who is constantly fighting for a cause. #tinkatinka #vartikananda #prisonreforms #humanrights
Women empowerment has taken the form of women emancipation, we talk of gender equality and hope to see it soon in the society. We say prisons aren't a part of the society yet women inmates cease to have access to libraries or phonecalls because they are a part of the prison structure meant for male inmates. Women are forced to live in narrow spaces, so much that after a point of time they experience pain while walking. If the prison is different from society then why are women not encouraged for outdoor games if it is the same as society then why are the prison inmates treated otherwise? These are questions, the answers to which we may not be wise enough to have. #vartikananda #tinkatinka #jail #prison
Dr. Vartika Nanda provides interesting insight on women inmates and the issue of women prisons. She is working tremendously hard to spread the movement for prison reforms in India. She has written three books Tinka Tinka Tihar, Tinka Tinka Madhya Pradesh, Tinka Dasna, and gives a true representation of life inside prisons. In her books, instead of sensationalizing, she sensitizes readers to the harsh realities of prisons. She is shattering the dehumanized and barbaric image of those incarcerated. Through her work, she is showing that inmates are humans with talent, aspirations, and a will to improve themselves. Her newest initiative is opening a prison radio in Haryana, she has earlier done so in Agra. Workshops were held to train inmates and to develop their talents and creativity. Her work is a testament to the idea that rehabilitation and not punishment is the answer. The radio will also keep the inmates informed about their rights and will give them respite in these challenging times of the pandemic when the inmates cannot have any visitors.#tinkatinka #tinkamodelofprisonreforms #awards #vartikananda #prisonreforms
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