वर्तिका नन्दा
एक समय था जब खबरों की दुनिया शाम सात बजे के आस-पास घूमती थी। यह वह समय था जब दूरदर्शन अपने बचपन से गुजर रहा था और दूर-दूर तक किसी निजी चैनल का नामोनिशान तक नहीं था। तब देश के दूर-दराज में बैठे लोग अपने-अपने राज्य के शाम सात बजे के क्षेत्रीय समाचार बहुत ही चाव से देखा-सुना करते थे। मुझे याद है कि उन दिनों पंजाब में आंतकवाद अपने चरम पर था और पंजाब में रहने वालों के लिए शाम सात बजे के यह क्षेत्रीय समाचार पंजाब की तस्वीर दिखाया करते थे।
ये वो दिन थे जब अंधेरा होते-होते पंजाब की सड़कों पर कर्फ्यू का-सा सन्नाटा पसर जाता था और उस सन्नाटे में भी लोग इंतज़ार करते थे-शाम सात बजे की खबरों का। तब जालंधर दूरदर्शन में दो-तीन समाचार वाचक ही होते थे ( जिन्हें अब एंकर कहा जाता है )। सब सादगी लिए, संजीदगी के साथ खबर पढ़ते। एक रमन कुमार थे जो खबर पढ़ने के अलावा जालंधर दूरदर्शन में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत भी थे। महिलाएं आम तौर पर सूट और कभी-कभार साड़ी पहनती थीं लेकिन पश्चिमी परिधान कभी नहीं।
आज के निजी चैनलों की तरह कसी हुई टीशर्ट पहनकर और उछलकूद के साथ खबर पढ़ने की परंपरा तब सोची तक नहीं गई थी। तब टेलीविजन को तकरीबन अंतिम सच माना जाता था। खबर पर शक नहीं होता था। खबर की परख को लेकर मानस में सवाल नहीं उठते थे। तब खबर बिकती नहीं थी। वो सिर्फ एक खबर होती थी और खबर सम्मान और भरोसा पाती थी।
खबरों के प्रसारण में 'मसाला' नहीं होता था और न ही आतंकवाद को भुना-पका कर पेश करने की फितरत दिखती थी। इसलिए अक्सर लगता है कि अगर तब शाम सात बजे की समाचारों की जगह आज जितने निजी न्यूज़ चैनल होते तो शायद पंजाब अब तक सुलग ही रहा होता और न जाने 'ब्रेकिंग न्यूज़' और 'एक्सक्लूसिव' के फेर में कितनी खबरें तोड़-मरोड़ कर पेश की जातीं। यह वह समय था जब सात बजे की खबर जि़न्दगी का एक हिस्सा थी। बात भी होती थी तो इस अंदाज में कि यह बात 'न्यूज़' से पहले की है या बाद की। तब खबर की एक प्रतिष्ठा थी।
न्यूज चैनलों की इतनी बड़ी भीड़ आज भी सात बजे की खबर की उस साख से होड़ नहीं कर पाई है। तब दूरदर्शन के पास लालिमा मोंगा, देवेंद्र कपूर, सुरिंदर शर्मा और सुरिंदर साहनी जैसे कई ऐसे दूरदर्शनकर्मी थे जिन्होंने दूरदर्शन की गरिमा को बनाए और बचाए रखने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगाई। बरसों कई कलाकार जालंधर दूरदर्शन की बदौलत ही जनमे और बड़े सितारे बनकर उभरे। अब न तो दूरदर्शन वैसा रहा, न वैसे खबरनवीस। चौबीसों घंटों की खबरों की रेलमपेल ने खबरों को सुनने के इंतजार को अतीत बना दिया है। एक नियत समय पर एक सीमित मात्रा में मिलने वाली खबर कई बार बेहतर लगती थी। इस दौर में शायद ऐसा कभी हो न सके लेकिन एक आदत के तौर पर किसी दिन सिर्फ एक बार खबर की खुराक को पाने का इंतजार शायद अच्छा भी लगे।
(जनसत्ता: 30 अक्तूबर, 2019)