पुस्तक का नाम – रेडियो इन प्रिजन
लेखिका- डा वर्तिका नंदा
पृष्ठ- 200, मूल्य- 295,
प्रकाशक नेशनल बुक ट्रस्ट
समीक्षक: रामधनी द्विवेदी
जेलों में इंद्रधनुष बनाने की कोशिश: जेल रेडियो
जब मैं बरेली में दैनिक जागरण का संपादकीय प्रभारी था, मेरे क्राइम रिपोर्टर सीपी सिंह ने एक दिन मुझसे कहा ‘ सर चलिए आपको एक नई जगह ले चलते हैं।‘ मैने पूछा भी कि कहां तो उसने नहीं बताया। मैं उसकी मोटरसाइकिल पर ही बैठ गया और थोड़ी देर में उसने बरेली सेंट्रल जेल के सामने बाइक रोकी। मैने पूछा ‘यहां कहां’। उसने कहा आइए तो। वह मुझे लेकर जेल सुपरिटेंडेंट के कमरे में गया। और उनको मेरा परिचय दिया। थोड़ी देर वहां रहा। बातचीत हुई। चाय बिस्कुट खाया। जब वहां से निकला तो पूछा’ यहां लेकर क्यों आए। उसने कहा’ सर, सोचा आज आपको जेल का कुछ खिला दें। लोग तो यहां रोज जेल की रोटी मांगने आते हैं।‘ मैने पूछा- ऐसा क्यों, तो उसने कहा ‘ जेल की रोटी खाना एक टोटका है। यदि किसी के नसीब में जेल की रोटी खाना लिखा है तो यह रोटी खा लेने से उसे जेल नहीं जाना पड़ता,ऐसी मान्यता है। मैं जोर से हंसा। अरे मुझे जेल क्यों जाना होगा। उसने कहा कि ‘मैने तो टोटका करा दिया। आपने जेल की बिस्कुट चाय पी ली है। अब कभी बुरे दिन आए तो जेल नहीं जाना होगा। हम लोग रोज खबरें छापते ही हैं न कि सीधे साधे और निरपराध लोग भी कभी ऐसे फंस जाते हैं कि जेल जाना ही पड़ जाता है।‘
जेल ऐसी जगह है कि कोई भी वहां नहीं जाना चाहता। उसका नाम ही डराता है। उसके नाम के साथ ऐसा धब्बा जुड़ा है कि जो भी एक बार जेल हो आया,उसे समाज अच्छी निगाह से नहीं देखता। लोगों की नौकरी चली जाती है। समाज में मुंह दिखाना कठिन हो जाता है। लेकिन टीवी पत्रकार, कई सम्मानों से अलंकृत और वर्तमान में दिल्ली विवि में पत्रकारिता की प्रोफेसर डा वर्तिका नंदा ने जेलों की दीवारों से दोस्ती की,वहां एक बार नहीं कई बार गईं,वहां के कैदियों की दशा देखी और उनके हालात सुधारने के लक्ष्य से अभियान शुरू किया जिसके बहुत ही सुखद परिणाम आए। उन्होंने ‘तिनका तिनका फाउंडेशन’ बनाया जिसके तहत कई सुधारात्मक कार्य किए। उन्होंने इन्हीं अनुभवों को पुस्तकों के रूप में सामने रखा। उनकी चार पुस्तकें आ चुकी हैं जिनमें ताजा है ‘Radio In Prison’ Towards New- Age Reforms.डा नंदा पहली पत्रकार हैं जिन्होने जेल बीट डेवलेप की और उसकी रिपोर्टिंग की। अभी तक मीडिया में यह काम क्राइम रिपोर्टर ही करते आएं हैं।
उन्होने कई जेलों को अंदर से अच्छी तरह देखा और आगरा की सेंट्रल जेल, हरियाणा की जेलों और देहरादून की जेल में अपने कार्य अनुभव को इस पुस्तक में समेटा है। उन्होंने बताया है कि किस तरह उनके जेल रेडियो अभियान ने कैदियों की जिंदगी को बदला और उनमें नई आशा और उर्जा का संचार किया। उनका यह प्रयास जेलों में इंद्र धनुष बनाने की कोशिश है। जिस तरह इंद्र धनुष में सात रंग होते हैं उसी तरह जेल रेडियो से उन्होंने कैदियों के जीवन में सूचना, शिक्षा, मनोरंजन,शोध,लेखन,कला और रचनात्मकता के रूप में सात रंग भरने की कोशिश की है।
पुस्तक में आठ अध्याय हैं। पहला अध्याय में भारत की जेलों की स्थिति बताई गई है। इसमें आंकड़े देकर बताया गया है कि दुनिया में भारत पांचवां देश है जिसमें सबसे अधिक लोग जेलों में हैं। यहां की कुल 1400 जेलों में साढ़े पांच लाख से अधिक लोग बंद हैं। ( ये 2022 के आंकड़े हैं) दुनिया में कुल एक करोड़ से अधिक लोग जेलों में हैं। भारत के आगे अमेरिका,चीन, रूस और ब्राजील ऐसे देश हैं जहां सबसे अधिक लोग जेलों में हैं। भारत के कैदियों में सबसे अधिक 18 से 34 साल के युवा हैं। इनमें भी अधिकतर ऐसे हैं जो पहली बार जेल गए हैं। यह अध्याय भारत में जेलों की स्थिति,ब्रिटिश काल के जेल नियम, उनमें सुधार के लिए उठाए गए कदमों की जानकारी देता है। कुछ आंकड़े चौंकाने वाले हैं जैसे अभी तक जेलों के नियम ब्रिटिश काल में बने प्रिजन एक्ट के अनुसार ही हैं। 2023 में इनमें सुधार के लिए कानून बनाए गए हैं जिन्हें अभी लागू नहीं किया गया है। अंग्रेजों का प्रिजन एक्ट ही जेल मैनुअल कहा जाता है। कुछ नियम कानून राज्यों ने अपने बनाये हैं क्यों कि जेल राज्यों के तहत आता है। यह जानकारी भी रोचक है कि अधिकतर जेलें ब्रिटिश काल की ही बनी हैं।
पुस्तक का दूसरा अध्याय अधिक महत्वपूर्ण है। इसमें जेलों में संचार की स्थिति,आपस में संपर्क के नियम-स्थितियां और उनके कैदियों पर पड़ने वाले असर का व्यापक विश्लेषण किया है और यह भी बताया है कि देश और दुनिया में कब-कब जेल की स्थितियां सुधारने के प्रयास किए गए लेकिन अभी तक उनका वांक्षित परिणाम सामने नहीं आया है। इस अध्याय को पढ़ते समय मुझे कई दशक पहले पढ़ी गई मेरी टाइलर की पुस्तक ‘ भारतीय जेलों में पांच साल’ की याद आ गई। उसमें बिहार की जेलों की जो स्थिति बताई गई है, आज भी भारतीय जेलों की कमोबेश वही हालत है। वर्तिका नंदा भी जेलों की स्थिति बताती हुई,यह भी लिखती हैं कि दुनिया के अन्य देशों में क्या स्थिति है और उनमें सुधार के लिए क्या नियम बने हैं। वह बैंकाक रूल्स को बहुत विस्तार से बताती हैं जिनमें कैदियों को संचार-संपर्क की सुविधा देने के लिए नियम बने हैं। वह बहादुर शाह जफर से लेकर जयप्रकाश नारायण तक की किताबों का उल्लेख करती हैं जिनमें जेल जीवन की कठिनाइयों की चर्चा है। भारत के अंतिम बादशाह बहादुर शाह जफर की मन:स्थिति को समझा जा सकता है जब उन्हें लिखने के लिए कागज कलम मुहैय्या नहीं कराई गई और उन्हें जेल की दीवारों पर अपनी शायरी लिखनी पड़ी। इन्हीं सभी कारणों ने ‘तिनका तिनका फाउंडेशन’ की नींव डाली और वर्तिका नंदा को जेल जीवन में सुधार के लिए आगे आना पड़ा।
जेल का अकेलापन,बाहरी दुनिया से संवाद-हीनता,अपनी बात किसी से न कह पाने की विवशता कैदी को शारीरिक और मानसिक दोनों रूपों से तोड़ती है। इसी त्रासदी को दूर करने के लिए जेल रेडियो का विचार जेल सुधारकों के सामने आया। दुनिया में सबसे अधिक लोगों को जेल प्रताड़ना देने वाले ब्रिटेन ने ही इसे सबसे पहले समझा और अपने यहां जेल रेडियो शुरू किया। और अब तो भारत सहित कई देशों में यह काम हो रहा है। भारत में इसे शुरू करने का श्रेय वर्तिका नंदा को ही जाता है। उन्होंने इसे सामाजिक अध्ययन के रूप में लिया और पाया कि इससे कैदियों की एकरसता दूर होने के साथ ही दुनिया के संपर्क में आने से उनमें सकारात्मक सुधार आया। वह अपनी बेटी आरुषि की हत्या में सजा काट रही डा नुपुर तलवार और हरियाणा की महिला कैदी के अनुभव सहित कई कैदियों के अनुभव को भी केस स्टडी के रूप में सामने रखती हैं। वह सिर्फ जेल रेडियो के माध्यम से ही नहीं अन्य कई माध्यमों से भी कैदियों की मन:दशा सुधारने का काम करती हैं।
नेल्सन मंडेला ने एक बार कहा था—‘ किसी देश को तब तक नहीं जाना जा सकता,जब तक उसकी जेलों को अंदर से न देखा जाए। किसी देश का आकलन इस बात से नहीं किया जाना चाहिए कि वह अपने देश के बड़े लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है, बल्कि इस बात से किया जाना चाहिए कि वह सबसे छोटे व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करता है।‘
जेल में अपने जीवन का सर्वाधिक समय व्यतीत करने वाले नेल्शन मंडेला के नाम पर ही संयुक्त राष्ट्र संघ ने कैदियों के साथ व्यवहार के लिए आवश्यक नियम बनाये हैं जिन्हें मंडेला रूल्स कहा जाता है।इसके नियम 63 के तहत रेडिया को जेल में संचार के लिए महत्वपूर्ण माना गया है। यह पुस्तक न सिर्फ जेल को समझने में मदद करती है बल्कि वहां के माहौल को सुधारने में जेल रेडियो स्थापित करने और उसे कैदियों लिए उपयोगी बनाने और उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए किए गए प्रयासों को भी रेखांकित करती है। यह पुस्तक समाजशास्त्रियों के साथ ही पत्रकारिता के छात्रों के लिए भी उपयोगी हो सकती है।
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