Featured book on Jail

Workshop on Sound: Juxtapose pre-event: March 2024

Jun 10, 2008

टीवी एंकर और वो भी तुम

किसने कहा था तुमसे कि
पंजाब के गांव में पैदा हो
साहित्य में एम ए करो
सूट पहनो
और नाक में गवेली सी नथ भी लगा लो

बाल इतने लंबे रखो कि माथा छिप ही जाए
और आंखें बस यूं ही बात-बिन बात भरी-भरी सी जाएं।

किसने कहा था दिल्ली के छोटे से मोहल्ले में रहो
और आडिशन देने बस में बैठी चली आओ
किसने कहा था
बिना परफ्यूम लगाए बास के कमरे में धड़ाधड़ पहुंच जाओ
किसने कहा था
हिंदी में पूछे जा रहे सवालों के जबाव हिंदी में ही दो
किसने कहा था कि ये बताओ कि
तुम्हारे पास कंप्यूटर नहीं है
किसने कहा था बोल दो कि
पिताजी रिटायर हो चुके हैं और घर पर अभी मेहनती बहनें और एक निकम्मा भाई है
क्यों कहा तुमने कि
तुम दिन की शिफ्ट ही करना चाहती हो
क्यों कहा कि
तुम अच्छे संस्कारों में विश्वास करती हो
क्यों कहा कि तुम
' सामाजिक सरोकारों ' पर कुछ काम करना चाहती हो

अब कह ही दिया है तुमने यह सब
तो सुन लो
तुम नहीं बन सकती एंकर।

तुम कहीं और ही तलाशो नौकरी
किसी कस्बे में
या फिर पंजाब के उसी गांव में
जहां तुम पैदा हुई थी।

ये खबरों की दुनिया है
यहां जो बिकता है, वही दिखता है
और अब टीवी पर गांव नहीं बिकता
इसलिए तुम ढूंढो अपना ठोर
कहीं और।
(यह कविता 'हंस' के जुलाई अंक में प्रकाशित हुई है)

7 comments:

Unknown said...

स‌च्चाई को बहुत अच्छे तरीके स‌े स‌ामने रखा है. बहुत अच्छा। यही है कड़वा स‌च।

अनिल रघुराज said...

बड़ी कड़वी सच्चाई है यह। जो हिंदी की कमाई खाते हैं, वे अंग्रेज़ी में ही सोचते और बोलते हैं चाहे वो बॉलीवुड के सितारे हों या हिंदी न्यूज़ चैनलों के ज्यादातर एंकर। यहां तक कि हिंदी में नए निकलते बिजनेस अखबारों के संपादक भी अंग्रेजी से ही लिए जा रहे हैं। ये सूरत बदलनी चाहिए। देश के मानस पर अभी तक छाया औपनिवेशिक साया हटना ही चाहिए। लेकिन कैसे? पता नहीं। शायद हिंदी के उपभोक्ताओं की भारी तादाद बाज़ार को इसके लिए मजबूर कर दे।

ऋतेश पाठक said...

bahu achha lika apne.
vaise mera chhotaa saa anubhav bataata hai ki anchor hi nahi chote chote posts ke lie yahi haal hai. bahut dukh hota hai jab print ke sampaadak kahate hai ki hai hame ek achche reporter se pahale ek achhe tranlator ki jaroorat hai..

सुशील छौक्कर said...

पहले(यानिकी 2-3 साल पहले) मीडिया के प्रति कुछ अलग भाव थे पर जब से ब्लोग की दुनिया और हंस का मीडिया अंक पढा साथ कुछ दोस्त मीडिया मे गये तो भाव काफी बदल गये । ये रचना काफी हद तक उस ओर इशारा करती है। शुक्रिया।

Udan Tashtari said...

बहुत बेहतरीन तरीके से बात कही है.

ओमप्रकाश तिवारी said...

likhti rahen. hongi kamyab 1 din

sanjay patel said...

वर्तिका जी
तो क्या सात्विक,संस्कारी,तहज़ीब-पसंद
मेहनती,परिवार के लिये प्रतिबध्द ,
काम को मिशन समझने वाले लोगों
का ज़माना गया ?

आपका लिखा सच है तो शर्मनाक़ और
खेदजनक है.