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Jul 1, 2008

रिएलिटी शो - तमाशा या सच ?

जितनी ज़ोर से इस बात को कहा जाता है कि यह रिएलिटी शो है, उतने ही जोर से मन में यह बात उठती है कि क्या बाकी सब झूठ है। रियलिटी शोज़ की अति दरअसल हमें इसी चौराहे की तरफ ले जा रही है।

जर्मन समाजशास्त्री जर्गन हैबरमास ने 18वीं सदी से लेकर अब तक के मीडियाई विकास के सोपानों को बारीकी से पढ़ा। वे फैंकफर्ट स्कूल आफ सोशल थाट से जुड़े रहे हैं। उन्होंने पाया कि इसके बीज लंदन, पेरिस औरतमाम यूरोपीय देशों में पब्लिक स्फीयर के आस-पास विकसित हुए। यहां के काफी हाउस और सैलून से पब्लिक डीबेट परवान चढ़े लेकिन यह सिलसिला लंबा नहीं चला। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि राजनीति का मंचन संसद और मीडिया में होता है जबकि जनता के हितों पर आर्थिक हित हावी हो जाते हैं। कुल मिलाकर जनता की राय विचारों के आदान-प्रदान के खुले प्रवाह के ज़रिए नहीं बल्कि बड़े लोगों के प्रभाव और तोड़ने-मरोड़ने के अंदाज़ पर निर्भर करती है। ज़ाहिर है कि अक्सर जो कवायद जिस जनता के नाम पर की जाती है, वह असल में आत्म-सुख से प्रेरित होकर दिमागी ताने-बाने का शिकार होती है।

इधर भारत में हम जिस किस्म के रिएलिटी शो को देख रहे हैं, उसमें से एक का मर्म मनोरंजन है औरदूसरे का रहस्य, रोमांच, अपराध, सनसनी वगैरह। एक विजेताओं के जीतने की कहानी लाइव दिखाता है और रोमांच के बीच ही कुछ कर गुजरने की प्रेरणा भरता है, दूसरा कभी डराता है, कभी विचलित करता है। काफी हद तक सच दोनों है, मकसद एक-सा है लेकिन दोनों के तरीके अलहदा हैं। दोनों ही तरह के प्रोडक्ट सच के टैगकी मार्केटिंग करते हैं। ऊपरी परत पर सच सर्वापरि दिखता भी है।
लेकिन इस सच की परत ज़रा सी उधेड़ी नहीं कि मामला पलटा हुआ मानिए। इसे खरोंचने पर टीआरपी दिखाई देती है और उसके भीनीचे जाने पर भावनाओं से खेल कर पहले नंबर पर बन जाने की कोशिश।यह रिएलिटी टीवी ही है जिसने दो साल पहले पटियाला के एकदुकानदार के खुद को आग लगा लेने के शाट्स को लाइव की आंच पर भूना था। उस दुकानदार की जान का जाना एक्लूजिव के झंडे को फट से गाढ़ने में काम आया था। इसी रिएलिटी टीवी ने गुडिया का शौहर कौन हो, इस प्रकरण पर चटपटी रोटियां सेकी थीं।मिसालें बहुत सी हो हैं लेकिन यहां बात मानसिकता को टटोलने की हो रही है।
दरअसल इलेक्ट्रानिक मीडिया मजबूरी का नाम है। शुरूआती समय में उसे प्रिंट से जूझना था। बाद में जब प्रिंट ने ही टीवी के साथ जूझना छोड़ दिया तो हार कर (या यूं मान लीजिए कि खुद को खुद ही जीता हुआ मानकर) टीवी दूसरी जंग जीतने चल पड़ा और यह जंगखुद अपनी बिरादरी पर फतह पाने की है। संभलने की बात भी यहीं पर है क्योंकि यहां जीत के लिए कोई निश्चित फार्मूला नहीं है और न ही जीत नाम की चीज स्थाई है। यहां रिजल्ट हर शुक्रवार को आता है और शनिवार को स्याह स्लेट पर फिर से लिखना शुरू होता है।वैसे चैनलों ने अपना कोड आफ कंडक्ट और अपनी सेंसरशिप लागू करने की बात भी कह दी है लेकिन कथनी और करनी एक हो, यह बात किसी बयान को देने भर से साबित होती नहीं है।

दरअसल बात कहीं संतुलन बनाने की है। निजी चैनलों की छुपनछुपाई बीच दूरदर्शन आज भी अपनी डफली बजाने में मस्त है। सरकारी पैसे से सफेद हाथी खा-पीकर जैसा मोटा-मनमौजी हो जाता है, तकरीबन वैसी ही छवि दूरदर्शन की भी है। निजी चैनलों के पास दूरदर्शन जैसे संसाधन नहीं हैं, इसलिए वह अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए जितने हथकंडी पांव मार सकता है, मार रहा है।
दोनों दो छोर हैं। जिस दिन दोनों छोर कहीं थोड़ा लचीले होकर बदलेंगे, भारतीय टीवी की तस्वीर भी बदल जाएगी।

लेकिन हमारी जो चाल रही है, उसे देखते हुए लगता है कि जब तक हम चेतेंगे लक्ष्मण रेखाएं तार-तार हो चुकी होंगी। तब हमें एक ऐसे दर्शक वर्ग से जूझना होगा जो हमारे एकदम सच्चे सच को भी सच नहीं मानेगा।

(१ जुलाई, २००८ को राष्ट्रीय सहारा के ' हस्तक्षेप ' में प्रकाशित)

4 comments:

Rakesh Kumar Singh said...

बिल्‍कुल सही लिखा आपने. दरअसल जिस किस्म के रिएल्‍टी शो हिंदी चैनल चला रहे हैं, वक़्त आ गया है अब उसको ठीक से समझा जाए. क्या प्रतियोगिताएं रियल्टी शोज़ के अनिवार्य अंग हैं? बहरहाल, मीडिया जानने-समझने में दिलचस्पी है. उम्मीद है मीडिया स्कूल मददगार साबित होगा.

Gyan Dutt Pandey said...

निजी चैनलों के पास दूरदर्शन जैसे संसाधन नहीं हैं, इसलिए वह अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए जितने हथकंडी पांव मार सकता है, मार रहा है।
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यह क्या बात हुई? बनेंगे बुद्धिमत्ता के लम्बरदार और पैसा कमाने का तर्क ले कर करेंगे भड़ैती? मीडिया का यही दोमुहापन रिपेल करता है!

आलोक साहिल said...

बिल्कुल सही कहा वर्तिका जी,
आलोक सिंह "साहिल"

E-Guru Maya said...

आपका चिट्ठा दुनिया से अलग, जो दुनिया से दुनिया के लिए ही लड़ता है.