टीवी एंकर और वो भी तुम
किसने कहा था तुमसे कि
पंजाब के गांव में पैदा हो
साहित्य में एम ए करो
सूट पहनो
और नाक में गवेली सी नथ भी लगा लो
बाल इतने लंबे रखो कि माथा छिप ही जाए
और आंखें बस यूं ही बात-बिन बात भरी-भरी सी जाएं।
किसने कहा था दिल्ली के छोटे से मोहल्ले में रहो
और आडिशन देने बस में बैठी चली आओ
किसने कहा था
बिना परफ्यूम लगाए बास के कमरे में धड़ाधड़ पहुंच जाओ
किसने कहा था
हिंदी में पूछे जा रहे सवालों के जबाव हिंदी में ही दो
किसने कहा था कि ये बताओ कि
तुम्हारे पास कंप्यूटर नहीं है
किसने कहा था बोल दो कि
पिताजी रिटायर हो चुके हैं और घर पर अभी मेहनती बहनें और एक निकम्मा भाई है
क्यों कहा तुमने कि
तुम दिन की शिफ्ट ही करना चाहती हो
क्यों कहा कि
तुम अच्छे संस्कारों में विश्वास करती हो
क्यों कहा कि तुम
' सामाजिक सरोकारों ' पर कुछ काम करना चाहती हो
अब कह ही दिया है तुमने यह सब
तो सुन लो
तुम नहीं बन सकती एंकर।
तुम कहीं और ही तलाशो नौकरी
किसी कस्बे में
या फिर पंजाब के उसी गांव में
जहां तुम पैदा हुई थी।
ये खबरों की दुनिया है
यहां जो बिकता है, वही दिखता है
और अब टीवी पर गांव नहीं बिकता
इसलिए तुम ढूंढो अपना ठोर
कहीं और।
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पंजाब के गांव में पैदा हो
साहित्य में एम ए करो
सूट पहनो
और नाक में गवेली सी नथ भी लगा लो
बाल इतने लंबे रखो कि माथा छिप ही जाए
और आंखें बस यूं ही बात-बिन बात भरी-भरी सी जाएं।
किसने कहा था दिल्ली के छोटे से मोहल्ले में रहो
और आडिशन देने बस में बैठी चली आओ
किसने कहा था
बिना परफ्यूम लगाए बास के कमरे में धड़ाधड़ पहुंच जाओ
किसने कहा था
हिंदी में पूछे जा रहे सवालों के जबाव हिंदी में ही दो
किसने कहा था कि ये बताओ कि
तुम्हारे पास कंप्यूटर नहीं है
किसने कहा था बोल दो कि
पिताजी रिटायर हो चुके हैं और घर पर अभी मेहनती बहनें और एक निकम्मा भाई है
क्यों कहा तुमने कि
तुम दिन की शिफ्ट ही करना चाहती हो
क्यों कहा कि
तुम अच्छे संस्कारों में विश्वास करती हो
क्यों कहा कि तुम
' सामाजिक सरोकारों ' पर कुछ काम करना चाहती हो
अब कह ही दिया है तुमने यह सब
तो सुन लो
तुम नहीं बन सकती एंकर।
तुम कहीं और ही तलाशो नौकरी
किसी कस्बे में
या फिर पंजाब के उसी गांव में
जहां तुम पैदा हुई थी।
ये खबरों की दुनिया है
यहां जो बिकता है, वही दिखता है
और अब टीवी पर गांव नहीं बिकता
इसलिए तुम ढूंढो अपना ठोर
कहीं और।
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फिर मैं क्यों बोलूं
शहर के लोग अब कम बोलते हैं
वे दिखते हैं बसों-ट्रेनों में लटके हुए
कार चलाते
दफ्तर आते-जाते हुए
पर वे बोलते नहीं।
न तो समय होता है बोलने का
न ताकत
न बोलने-बतियाने का कोई खास सामान।
राजनीति और अपराध पर भी
अब बहुत बातें नहीं होतीं।
शहर के लोग शायद अब थकने लगे हैं
या फिर जानने लगे हैं
ऐसे शब्दों का क्या भरोसा
जो उड़कर नहीं जाते सियासत तक।
इसलिए शहर के लोग अब तब बोलेंगें
जब पांच साल होंगे पूरे
तब तक बोलना
बोलना नहीं
अपने अंदर के सच को काटना ही होगा।
ये दोनों कविताएं 'हंस' के जुलाई अंक में प्रकाशित हुई हैं.
7 comments:
काम निपटा कर ब्लाग दुनिया को टटोल रहा था। इसी दौरान यहां आना हुआ। यहां आकर एक तसल्ली जरूर हुई क्योंकि मैंने जो पढा वह वाकई मेरे लायक था। अब यहां बार बार आने का जी चाहेगा।
बाहर से ग्लैमर की चाशनी से सराबोर दिखने वाली इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की हकीकत वाकई में यही है...आपने वो परत उघाड़ी है जो दिखा देती है कि कमजोर नस कहां है...बहुत अच्छी कविता
vartika ji, achhi kavita hai. sachchai ke karib. esamen dard ki jhalak dikhati hai ek ladaki ki.
gangesh srivastava
chandigarh
s.gangesh@gmail.com
vartika ji, es kavita main sachchai dikati hai, gav ki beti ka dard jhalakata hai, ye sach ke karib hai.
gangesh srivastava
chandigarh
s.gangesh@gmail.com
बहुत अच्छी कविताएं हैं....आजकल कहां हैं आप ?
टीवी पर तो कहीं दर्शन नहीं होते...
मैं तो यह भी नहीं लिख सकता, की आपने अच्छा लिखा है.....
क्योकि आप तो मीडिया की चलती फिरती विश्वविद्यालय है......
वैसे आप ने मीडिया की याथार्थ खोल कर रख दी.........
आपका ब्लॉग अपने ब्लोग्लिस्ट में शामिल कर रहा हु....
बहुत कुछ सिखने को मिलेगा..........
bahut khub
dil ko chuu liya
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